रामा… बदरना… और अब रमेश। ये तीनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। बदरना नक्सली थे। संगठन में कमांडर के पद तक पहुंचे। आत्मसमर्पण के बाद उन्हें सरकार ने रहने को घर और पति पत्नी दोनों को सरकारी नौकरी दी है। वह आज भी संगठन के लिए सदस्य बनाने का काम करते हैं। उनकी पत्नी लता भी नक्सली थीं। संध्या द्विवेदी ने बदरना से बात की।

समर्पण क्यों कर दिया? क्या नक्सलवाद या माओवाद से ऊब चुके थे?
बिल्कुल नहीं। आज भी मन करता है कि माओवादी बन जाऊं। कमांडर के पद तक आ गया था। उससे आगे बढ़ने पर काम बहुत टेक्निकल था, जो मेरे हिसाब से कठिन था।

क्या अपनी बातें मीडिया तक पहुंचाने के लिए संगठन ने आत्मसमर्पण के लिए कहा?
नहीं। यह फैसला खुद मैंने किया।

पढ़ाई कैसे की?
संगठन से जुड़ने के बाद ही पढ़ाई की। कमांडर रैंक तक की पढ़ाई की। कक्षा 1 से 5 तक वैसी ही पढ़ाई पढ़ी जैसी सरकारी स्कूलों में होती है। लेकिन प्रमुख तौर पर राजनीतिक किताबें पढ़ाई जाती हैं। माओ, लेनिन, मार्क्स के सिद्धांत हमें जरूर पढ़ने होते हैं। हमारी क्रांति का आधार इन्हीं के विचारों से निकलता है। क्रांति क्या है? कैसे करनी है? नवजनवादी क्रांति, सोशलिज्म के साथ ही संगठन कैसे बढ़ाना? यह सब हमारी पढ़ाई का हिस्सा होता है। भारत ही नहीं बल्कि अमेरिका, चीन और दूर दूर से संगठन में लेक्चर देने के लिए लोग आते हैं। चीन की किताबों का हिंदी में अनुवाद कर पढ़ाया जाता है।

बंदूक से क्रांति की जगह चुनाव का हिस्सा बनकर आखिर बदलाव क्यों नहीं करते?
दरअसल पहले सबसे निचले वर्ग के बीच सजगता लानी होगी। उनके भीतर क्रांति के बीज बोने होंगे। पेड़ बीज से ही बनता है न कि पत्तों से। वोट का हक देने से ही कुछ नहीं होता बल्कि वोट क्यों और किसको डाला जाए यह भी तय करने की समझ होनी चाहिए। वोट औपचारिकता भर नहीं होना चाहिए।

क्या यह सपना पूरा हो सकता है?
हां।

आंदोलन इतना लंबा चलने के बाद भी सपने के करीब आप क्यों नहीं पहुंचे?
ये लड़ाई लंबी चलती है।

देश के आखिरी आदमी तक सजगता और विकास पहुंचाने की बात करने वाले लोग सड़क और स्कूलों का इतना विरोध क्यों करते हैं?
दरअसल सड़क गांव के विकास के लिए नहीं बल्कि फोर्स को हम तक पहुंचाने के लिए बनाई जाती है। स्कूल भी फोर्स का बेस कैंप बन जाते हैं। सड़क नहीं तालाब बनाने चाहिए।

क्या आपके संगठन में सभी को अपना निर्णय लेने का हक होता है?
वहां हम समाज के लिए काम करते हैं, निजी स्वार्थ के लिए नहीं। हम तो वहां अपनी मर्जी से शादी भी नहीं कर सकते। यहां तक कि शादी के बाद नसबंदी करवा दी जाती है। ताकि बच्चा न पैदा हो।

क्या यह निजी आजादी का हनन नहीं है?
कम्युनिस्ट का सिद्धांत है- स्वार्थ छोड़ो, समाज के लिए लड़ो, व्यक्तिगत संपत्ति रद्द करो।

अपनी बेटी को पढ़ना लिखना सिखा रहे हैं?
हां’।

कल वह नक्सली बनना चाहे तो बनने देंगे?
(उनकी पत्नी बोल पड़ती हैं) बिल्कुल नहीं। हम चाहते हैं कि वह पढ़े और आगे बढ़े।

क्या बंदूक के रास्ते से क्रांति आएगी?
नहीं कभी नहीं। हमने तो आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाये हैं। बंदूक से चलने वाली सरकार का मुकाबला भी तो बंदूक से ही करना होगा। मगर यह भी सच है कि बंदूक के बल पर कम्युनिस्ट पार्टी नहीं आएगी। बदलाव नहीं होगा। बदलाव में वक्त लगेगा।

नक्सलवादी संगठन का ढांचा कैसा होता है?
संगठन का ढांचा वैसा ही होता है जैसा सेना का। सबसे पहले दल सदस्य बनते हैं। एक दो साल तक काम करने के बाद पार्टी मेंबरशिप मिलती है। फिर उसका कार्य अच्छा हुआ तो उस एरिया का एरिया कमांडर बनाया जाता है। आगे और अच्छा काम किया तो डिप्टी कमांडर, आगे कमांडर, डिस्ट्रिक्ट कमांडर, फिर स्पेशल जोनल कमांडर। फिर ऐसे ही बड़े पद तक चले जाते हैं। बड़े पद तक जाने के लिए कम्युनिस्ट विचारधारा को अच्छी तरह पढ़ना और समझना पड़ता है। सैलरी नहीं मिलती। गांव वाले ही चावल, दाल या और जीवन को चलाने के लिए जरूरी चीजें हमें देते हैं। दुनिया भर में हमारा संगठन है। हमें लेक्चर देने के लिए लोग भारत ही नहीं बल्कि चीन, अमेरिका तक से आते हैं। वो हमसे पूछते हैं कि हमारा मकसद क्या है? क्रांति का मतलब क्या है?