जंगल और आदिवासियों के बीच अटूट रिश्ता रहा है. वे खुद को जंगलों-वनों एवं नदियों-पहाड़ों का प्राकृतिक संरक्षक और उन्हें अपना पूर्वज-संबंधी मानते हैं. उनके गीतों, नृत्यों, कहानियों और जीवन की हर धडक़न में जंगल, नदियां, पहाड़ शामिल हैं. जंगल अथवा वन आदिवासियों के जरिये ही बचाए जा सकते हैं. लेकिन, लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आए दो फैसलों ने देश के आदिवासी समुदाय को नाराज कर दिया है.
वनाधिकार अधिनियम-2006 को लेकर हाल में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने देश के विभिन्न इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को निराश कर दिया. उक्त आदेश के तहत करीब 12 लाख आदिवासी परिवारों को उनकी पीढिय़ों पुरानी बसाहट से बेदखल किया जाना था. हालांकि, केंद्र सरकार की अंतरिम याचिका के चलते सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस आदेश पर फिलहाल जुलाई तक रोक लगा दी है. गौरतलब है कि आदिवासियों एवं अन्य पारंपरिक वनवासियों द्वारा वनाधिकार कानून के तहत किए गए दावे खारिज कर दिए गए थे. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के दूसरे आदेश के तहत बीते ७ मार्च को वन कानून 1927 में संशोधन की बात कही गई.इस पर भी कोई कदम लोकसभा चुनाव के बाद ही उठाया जाएगा. केंद्र सरकार की लचर पैरवी और आदिवासी विरोधी कदमों के खिलाफ समुदाय एवं उनके बीच सक्रिय संगठनों ने ‘उलगुलान’ का ऐलान कर दिया है. आदिवासी समुदाय ने इस मामले को चुनावी मुद्दा बनाने की ठान ली है.
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में ‘जागृत आदिवासी दलित संगठन’ के बैनर तले आयोजित चेतावनी रैली में जुटे आदिवासियों एवं विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों ने कांग्रेस और भाजपा से वन अधिकार के मुद्दे पर अपना पक्ष साफ करने को कहा है. मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 13 फरवरी को वन अधिकार कानून 2006 के तहत अपात्र पाए गए दावेदारों को बेदखल करने का आदेश दिया था, जिसे अब जुलाई तक स्थगित कर दिया गया है. इस आदेश से 21 राज्यों के 11.8 लाख आदिवासियों एवं वनवासियों के सिर पर बेदखली का खतरा मंडरा रहा है. मध्य प्रदेश में 3.5 लाख से ज्यादा आदिवासी हंै. झारखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र देकर स्वीकार किया कि राज्य के एक लाख सात हजार 187 जनजातीय एवं ३,569 मूलवासी परिवारों ने वन अधिकार अधिनियम के तहत अपने दावे पेश किए थे, जिनमें से 27 हजार 809 आदिवासी एवं 298 मूलवासी परिवारों के दावे निरस्त कर दिए गए. केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा बेदखली का आदेश देने के बाद दायर अंतरिम याचिका में माना कि दावे तय करने की प्रक्रिया सही ढंग से नहीं हुई और जिनके दावे खारिज हुए, उनका पक्ष नहीं सुना गया.
लोक संघर्ष मोर्चा (महाराष्ट्र) की प्रतिभा शिंदे, समाजवादी जन परिषद के अनुराग मोदी, श्रमिक आदिवासी संगठन के सदाराम मांडले, शहरी मजदूर संगठन के पल्लव, किसान आदिवासी संगठन के फागराम, जागृत आदिवासी दलित संगठन के अंतराम भाई, आशा बाई एवं माधुरी कहते हैं कि अदालत में वन अधिकार कानून पर सुनवाई के दौरान सरकार मौन क्यों रही? अगर वह पहले ही सही बात अदालत के सामने रखती, तो बेदखली का आदेश नहीं आता. देश के आदिवासी क्षेत्रों में वन अधिकार कानून 2006 की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. इस कानून के तहत ग्राम सभाओं को वन अधिकार के दावों की जांच करके पात्रता तय करने का हक है, लेकिन ग्राम सभाओं के बैठने से पहले या उनके प्रस्तावों को नजरअंदाज करके वन विभाग एवं जिला प्रशासन द्वारा दावे अपात्र बताए जा रहे हैं. सामुदायिक वन अधिकार कहीं पर नहीं दिए जा रहे हैं. महिलाओं एवं बच्चों के साथ मारपीट की जाती है. मवेशी जब्त कर लिए जाते हैं.
असल में केंद्र सरकार सारा जंगल निजी कंपनियों को देने की तैयारी कर रही है. हाल में छत्तीसगढ़ में चार लाख एकड़ भूमि पर फैला जंगल अडानी से जुड़ी कंपनी को कोयला खनन के लिए दिया जा चुका है, बाकी जंगल पर्यावरण बचाने के नाम पर दिया जाएगा. इसलिए सरकार आदिवासियों एवं वनवासियों की रोजमर्रा की जरूरतों को भी अपराध करार देकर उन्हें जेल में डालने और जुर्माना ठोंकने की तैयारी कर रही है. रायपुर (छत्तीसगढ़) में सर्वोदय समाज की संस्था सर्व सेवा संघ के 87वें अधिवेशन में जल, जंगल एवं जमीन से संबंधित एक प्रस्ताव में कहा गया कि 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया बनाम पर्यावरण मंत्रालय से संबंधित सिविल याचिका पर आया फै.सला सरकार, वन विभाग, खनन कंपनियों एवं होटल व्यवसायियों के बीच जुगलबंदी का परिणाम है. यही वजह है कि इस मामले को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया. जाने-माने गांधीवादी पीवी राजगोपाल कहते हैं, सरकारों को वनाधिकार कानून लागू करने को प्राथमिकता देनी चाहिए. दस्तावेज और भूमि पर काबिज होने की समय सीमा तय करने से बात नहीं बनेगी. जो लोग जमीन पर काबिज हैं, उन्हें उसका मालिकाना हक दिया जाए. ऐसा न किए जाने पर कई बार आदिवासी अपने हिसाब से फैसले करते हैं. यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों ने पत्थरगढ़ी जैसे आंदोलन को अपनाया.
वन कानून 1927 ब्रिटिश सरकार के व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया था. इस कानून ने आदिवासियों की रोजमर्रा की जरूरतों को आपराधिक करार देते हुए उन्हें अपने ही घर में चोर बना दिया था. इस कानून के आधार पर ही वन विभाग आदिवासी क्षेत्रों के लगभग आधे भू-भाग का मालिक बन गया. अब आजादी के 72 सालों बाद जो बदलाव प्रस्तावित किए जा रहे हैं, वे इस कानून को और भी दमनकारी बना देंगे. मसलन, वन कानून 1927 में बदलाव के प्रस्ताव के अनुसार, जंगल में अतिक्रमण करके खेती करने, झोपड़ी बनाने या बिना इजाजत वनोपज लेने एवं पत्ते बीनने पर होने वाली सजा एक माह से बढ़ाकर छह माह और जुर्माने की राशि 500 से बढ़ाकर पांच हजार रुपये की जाएगी. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात एवं मध्य प्रदेश की आदिवासी बहुल 133 सीटों के पिछले नतीजों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि अधिनियम के तहत वनाधिकार के दावेदार वोटरों की आबादी करीब 95 प्रतिशत सीटों पर जीत के अंतर से अधिक थी. जाहिर है, वनाधिकार अधिनियम के प्रभावी अमल का दावा करने वाली कोई भी पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के जीत के मंसूबे पर पानी फेर सकती है.