शंभूनाथ शुक्ल

पिछले साल इन दिनों पूरी दिल्ली में हाहाकार मचा हुआ था। डेंगू, चिकनगुनिया का आतंक हर घर में पसरा था। दिल्ली-एनसीआर के हर पांचवें घर में कोई न कोई सदस्य इस बुखार से पीड़ित था। हर अस्पताल की इमरजेंसी फुल थी। ओपीडी में लाइनें लगी हुई थीं। प्लेटलेट्स ढूंढे नहीं मिल रहे थे। कोई बकरी का दूध तलाश रहा था तो कोई पपीते के पत्ते। यानी जो जिसने बता दिया वही इलाज। इस वर्ष अगर वैसा आतंक नहीं है तो इसके पीछे कहीं न कहीं स्वच्छता मिशन का हाथ भी है। इस स्वच्छता मिशन के चलते ही लोग अब अपना घर और प्राकृतिक स्थानों पर साफ-सफाई रखने लगे हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि डेंगू और चिकनगुनिया का वायरस नष्टप्राय हुआ है। इस वर्ष भी देखिए, गर्मी वैसी ही है और धूप-घाम तथा बारिश भी। लेकिन डेंगू व चिकनगुनिया का प्रकोप उतना नहीं है। पर डेंगू और चिकनगुनिया का खतरा कम हुआ है तो स्वाइन फ्लू का बढ़ा है। और स्वाइन फ्लू के पीछे भी हमारी ही छोटी-छोटी भूलें हैं।
ऊष्ण कटिबंधीय वातावरण वाले देशों में कोई भी विषाणु मच्छर फैलाते हैं। क्योंकि मच्छरों के प्रजनन और उनकी बढ़ती आबादी को रोकना असंभव है। वे दुगनी-तिगुनी संख्या में फैलते हैं। जितने मच्छर हर सेकंड मरते उससे कहीं ज्यादा वे पैदा हो जाते हैं। इसलिए डीडीटी से लेकर मच्छर रोधी केमिकल के स्प्रे के बावजूद उन्हें फैलने से रोका नहीं जा सका। दरअसल मच्छरों के प्रजनन में हम खुद सहायक होते रहते हैं। चूंकि मच्छरों का प्रजनन रोका भले न जा सके पर अंकुश तो लगाया ही जा सकता है। इसलिए उनके फैलाव-प्रसार को रोकने के उपाय होने चाहिए और हम रोकने के उपाय बरतने में दिलचस्पी लेना तो दूर उलटे उन्हें बढ़ाने के प्रयास ज्यादा करते हैं। मच्छरों का प्रजनन रोकने का एक ही उपाय है साफ-सफाई। पर औसत हिंदुस्तानी चाहे वह उत्तर का हो या दक्षिण का अथवा पूरब या पश्चिम का, सार्वजनिक स्थानों पर सफाई बरतने के प्रति सर्वथा लापरवाह होता है। और उसकी साफ-सफाई के प्रति यही उदासीनता मच्छरों को पनपने से रोकने में पहली बाधा है। यही नहीं शहरों ने भी मच्छरों को बढ़ाया है। छोटे-छोटे फ्लैटों में गंदगी रखते हैं। पानी को जमा होने देते हैं और उसकी निकासी का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करते। नतीजा यह होता है कि मच्छरों का लार्वा अक्सर पानी की टंकियों और सीवर लाइन के आसपास पनपता रहता है।
कुछ लोगों को अपने ड्राइंग रूम या बालकोनी में गमले रखने का बड़ा शौक होता है। वे बड़े नाज के साथ इन गमलों को सजाते हैं पर कभी भी इनको साफ करने की कोशिश नहीं करते। उनका पानी नहीं बदलते, जो पानी सड़ रहा है उसे वैसा ही सड़ने देते हैं। नतीजा होता है कि मच्छरों का लार्वा वहां पनपने लगता है। इसी तरह जो लोग कुत्ता पालने का शौक रखते हैं वे भी इन्सिफेलाइटिस को अपने आसपास फैलाते हैं। कुत्ता कब दूसरे जानवरों से इन्सिफेलाइटिस या स्वाइन फ़्लू के विषाणु ले आएगा, पता नहीं चलता। और उस कुत्ते को कैरियर बनाकर मच्छर इन विषाणुओं को आदमियों में इंजेक्ट करने लगते हैं। सूअर के जरिये आने वाला इन्सिफेलाइटिस अन्य पालतू जानवरों में तेजी से फैलता है। और इस तरह जब कोई इंसान इन इन्फेक्टेड जानवरों के सम्पर्क में आता है तो वह भी इस बुखार की चपेट में आ जाता है। पर जानवर तो अपनी प्राकृतिक क्षमता के अनुकूल उनका प्राकृतिक निदान भी जानता है मगर इंसान इस निदान से अभी तक महरूम है। यही कारण है कि बच्चों की कमजोर प्रतिरोधक क्षमता इस जापानी बुखार की चपेट में आकर दम तोड़ देती है। यदि समय पर उसे प्रतिरोधक टीका लगवा दिया जाए तो काफी हद तक उसे बचाया जा सकता है। परन्तु औसत भारतीय मां-बाप पहले लापरवाही बरतते हैं और जब रोग बिगड़ जाता है तब डॉक्टर के पास भागते हैं। फिर शुरू होता है कृत्रिम आॅक्सीजन और नौकरशाही का खेल। इसका नतीजा हमारे सामने है।
हमारे ही पड़ोस का एक छोटा-सा देश श्रीलंका अब मलेरिया मुक्त देश हो गया है। यह उस देश की बहुत बड़ी सफलता है। दक्षिण एशिया में जिस तरह की ऊष्ण कटिबंधीय जलवायु है उसमें मलेरिया से निजात पाना सबसे बड़ी उपलब्धि है। वह दक्षिण एशिया का पहला ऐसा देश बन गया है जहां अब मलेरिया का खतरा नहीं होगा। इससे एक तो उसे अपने पर्यटन को बढ़ाने में मदद मिलेगी दूसरे उस देश में स्वास्थ्य को लेकर एक नई जागरूकता आएगी। अंग्रेज जब भारत आए थे तो अधिकांश की मौत यहां की गर्मी और मलेरिया से हुई थी, खासकर तटवर्ती इलाकों और उत्तर पूर्व के जंगलों में। क्योंकि जहां-जहां वर्षावन हैं वहां पर मलेरिया के विषाणुओं को पनपने से रोका नहीं जा सकता। इसीलिए जब भी भारत में मानसून बेहतर होने से खुशी की लहर दौड़ती है तत्काल मलेरिया का खतरा प्रकट हो जाता है। अब इस साल ही एक तरफ तो मानसून की बारिश अच्छी हुई दूसरे पूरे उत्तर भारत में मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया और वायरल ने मानसून की खुशी मायूसी में बदल दी। आज उत्तर भारत के हर शहर व गांव में हालत यह है कि हर घर में कोई न कोई सदस्य या तो वायरल से पीड़ित है अथवा चिकनगुनिया या डेंगू से। इन बीमारियों के विषाणु व्यक्ति को तोड़ देते हैं। और ठीक होने के बाद भी उसे कई दिनों तक चलने-फिरने में दिक्कत होती है।
ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में मलेरिया के विषाणु कहीं बाहर से नहीं आते हैं वे वहां पर स्वत: ही पनपने लगते हैं। खासकर वर्षा वनों और तटीय व तराई के इलाकों में। वर्षा के बाद जहां कहीं भी गंदगी होती है वहां पर सूरज का पारा चढ़ते ही मलेरिया के कीटाणु पनपने लगते हैं। हालांकि प्रकृति स्वयं इन कीटाणुओं को नष्ट करने का भी उपाय बताते चलती है मगर अब लोगबाग मनुष्य समाज के अनुभवजन्य ज्ञान को विस्मृत करते जा रहे हैं। तुलसी के पौधे और एलोवेरा स्वयं ही मलेरिया रोधक होता है। इसलिए जहां-जहां भी मलेरिया के कीटाणु पनपने की आशंका होती है वहां पर ये पौधे भी पनपते हैं और उन कीटाणुओं की बढ़त रोक देते हैं। इसके अतिरिक्त नीम के पत्ते भी मलेरिया रोधक होते हैं। इसीलिए नीम के पत्तों का धुआं करने से मलेरिया के कीटाणु भाग जाते हैं। किसी भी कीटनाशक से मलेरिया के कीटाणु नष्ट नहीं होते हैं बल्कि फौरी तौर पर वे या तो वहां से उड़ जाते हैं अथवा बेहोश हो जाते हैं और फिर जैसे ही हवा चली वे पुन: सक्रिय हो जाते हैं। यही कारण है कि हर साल मलेरिया रोधक दवाओं की मारक क्षमता बढ़ाई जाती है।
मलेरिया को जड़ से निकाल बाहर करने का अकेला उपाय सफाई है। गंदगी रहेगी ही नहीं तो मलेरिया के कीटाणु पनपेंगे कहां से। इसलिए उन सारे मुल्कों ने जहां पर मलेरिया का खतरा रहता है और जहां का मौसम नम है, ने सफाई का पुख्ता इंतजाम कर रखा है। अगर गंदगी बिखरी न रहे और रहने की जगहें साफ-सुथरी रहें तो कोई शक नहीं कि मलेरिया जड़ से खत्म हो जाएगा। और इन सब कामों के लिए जरूरी है शिक्षा और साफ-सफाई रखने की चेतना। कुछ काम सरकार को अपने जिम्मे लेने होंगे जैसे कि हर एक को मकान स्वयं सरकार दे ताकि बेतरतीब ढंग से बनाए मकानों से निजात मिले। अथवा नगर पालिकाएं स्वयं इतनी सक्षम हों कि किसी मकान का नक्शा तब ही पास किया जाए जब उससे पानी की निकासी की उत्तम व्यवस्था हो। इसी तरह नाली-नालों का पानी लगातार बहता रहे और इसका निस्तारण भी होता रहे। अन्यथा और कोई चारा नहीं है मलेरिया से निजात पाने का। याद कीजिए कि आजादी के तत्काल बाद चुनी हुई सरकारों की पहली प्राथमिकता मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम था। मगर यह मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम महज डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया इंस्पेक्टरों की मर्जी पर टिका था। इसलिए शुरू में तो इसका असर दिखा और साठ के दशक में मलेरिया गायब हो गया मगर सत्तर आते-आते मलेरिया फिर पांव पसारने लगा। मलेरिया की दवाएं एकतरफा काम करती हैं अर्थात मलेरिया का वायरस अगर पकड़ में आ गया तो उसे समाप्त कर देंगी और अगर वह पकड़ में नहीं आया तो शरीर के अन्य अंगों को नुकसान पहुंचाएंगी। चिकित्सकों का कहना है कि मलेरिया का कीटाणु बहुत शातिर होता है और गजब का रक्षात्मक भी। मरीज यदि एंटीबायोटिक (विषाणुरोधी) और जरूरत से कम मात्रा में मलेरिया की दवा ले भी ले तो वह विषाणु फौरन मरीज के पेट के नाजुक अंगों जैसे कि लीवर, किडनी या आंतों में जाकर छुप जाएगा और वहीं से मार करता रहेगा। इसीलिए उचित दवा न मिल पाने के कारण मलेरिया का मरीज महीनों बीमार बना रहता है। उसका बुखार उतरता है और फिर चढ़ता है। मलेरिया से निजात पाने के लिए जरूरी है कि दवा आवश्यक मात्रा में दी जाए और उसकी जांच जरूरी है। यही कारण है कि आजकल डॉक्टर बिना जांच के मलेरिया की दवा नहीं देते और मरीज को सिर्फ सामान्य तौर पर बुखार उतारने की दवा देते रहते हैं। बुखार यदि सामान्य हुआ तो एकाध दिन में उतर ही जाएगा और नहीं उतरा तब मलेरिया की जांच से पता चलेगा कि मलेरिया है या नहीं और अगर है तो किस प्रकार का। डेंगू, फाल्सीफेरम आदि तो जानलेवा मलेरिया हैं और यदि मरीज बच भी गया तो उसके शरीर के किसी न किसी अंग में यह मलेरिया अपना प्रभाव छोड़ ही आएगा, जिससे मधुमेह, हृदय रोग अथवा कोलोस्ट्रोल बढ़ने की शिकायतें भी मिलने लगती हैं। जब भी मलेरिया फैलता है तो भयावह रूप से ही फैलता है। आमतौर पर मानसून के बाद यह अगस्त के अंतिम सप्ताह से फैलना शुरू होता है और अक्टूबर तक चलता रहता है। चिकित्सकों का मानना है कि जब तक सामान्य तौर पर तापमान बीस डिग्री पर न आ जाए मलेरिया का विषाणु रक्तबीज की तरह फैलता रहता है। इसलिए यह खुद ब खुद तो मरने से रहा। यह प्रकृति की देन है और इसे नष्ट करने का ज्ञान भी प्रकृति के पास है।
इसलिए मलेरिया, मच्छर और इन्सिफेलाइटिस पर मातम मनाने की बजाय सरकार की सारी एजेंसियां इस बात पर सोचें कि इस मलेरिया के फैलाव को कम कैसे किया जाए। हम मच्छर को खत्म नहीं कर सकते मगर विभिन्न प्रजातियों के मच्छरों को परस्पर लड़वा जरूर सकते हैं। यह बड़ा मजेदार होगा ठीक राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की तरह जो एक-दूसरे पर वार कर प्रतिद्वंद्वी पार्टी के फैलाव पर काबू पा लेते हैं। यानी एक तो स्वच्छता अभियान को राष्ट्रव्यापी बनाना और दूसरे जबरिया टीकाकरण। पोलियो को खत्म करने में टीकाकरण ही मददगार बना। इस टीकाकरण से कोई बख्शा न जाए क्योंकि एक भी आदमी अगर उस बीमारी का शिकार हो गया तो सैकड़ों को वह अपने दायरे में ले लेगा। और ये सैकड़ों लोग उसी तादाद में इस बीमारी को बढ़ाते जाएंगे। सार्वजनिक स्थानों पर साफ-सफाई को सख्ती से अमल में लाया जाए। इससे मच्छरों की आवक कम होगी और इस तरह इंसान को वह दे पाएंगे जो अभी तक कोई सभ्यता उसे नहीं दे सकी। हर प्रजाति का मच्छर दूसरी प्रजाति के मच्छर को नष्ट करता है। इसलिए बेहतर है कि प्रकृति के इस परस्पर विरोधाभासी खेल को समझा जाए। 