रणछोड़ पायलट?

विजय माथुर

पिछले दिनों भाजपा के राजस्थान प्रभारी अविनाश राय खन्ना का यह बयान क्या कांग्रेस की साख पर बट्टा लगाने वाला था या गुरूर में डूबा हुआ था कि अलवर और अजमेर संसदीय उपचुनाव के रण में कांग्रेस के बड़े नेता अपनी हार के अंदेशे में मैदान छोड़ रहे हैं। कांग्रेस ने इस बयान पर आंखें तरेरने की बजाय कम से कम खन्ना की इस बात पर तो मुहर लगा दी कि प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और भंवर जितेंद्र सिंह ने चुनावी चक्रव्यूह में घुसने से परहेज कर लिया। नतीजतन दोनों कद्दावर नेताओं ने पार्टी के उस मिथक को करारा झटका दिया है कि कांग्रेस अब अनिश्चितता से उबर रही है। सचिन पायलट अजमेर लोकसभा सीट से कांग्रेस के स्वाभाविक रूप से संभावित प्रत्याशी थे लेकिन पार्टी सूत्रों के मुताबिक, अजमेर से कांग्रेस जिन तीन नामों पर विचार कर रही थी उनमें वहां के पूर्व सांसद सचिन पायलट का नाम नहीं था। अविनाश खन्ना को मौका मिला तो उन्होंने शरारत भरा बयान दे डाला कि, ‘हमें तो उम्मीद थी कि पायलट अजमेर से चुनाव लड़कर अपनी लीडरशिप दिखाएंगे लेकिन अब हमें इस बात से महरूम रहना पड़ेगा।’

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दोनों ही नेता पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के भरोसेमंद बिग्रेडियर में शुमार हैं। अब जबकि उन्हें धूल झाड़कर उठने और दौड़ने के लिए तैयार होना था तो पीठ दिखा गए। बेशक भंवर जितेंद्र सिंह अलवर राजघराने से ताल्लुक रखते हैं और भले ही उन्होंने एक सामान्य व्यक्ति के लिए सीट छोड़ दी लेकिन चुनावी नतीजों की छाया तो उन्हीं की छवि को प्रभावित करेगी। अजमेर लोकसभा सीट का नजारा तो और ज्यादा दिलचस्प होगा। यह सीट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की परंपरागत सीट रही है। अब जबकि कांग्रेस की चुनावी कमान पायलट थामे हुए हैं तो इस सीट को कब्जाने के लिए भाजपा और कांग्रेस में जबरदस्त घमासान छिड़ेगा। भंवर जितेंद्र सिंह की तर्ज पर पायलट ने भी यह सीट पार्टी के सामान्य उम्मीदवार के लिए छोड़ दी है लेकिन चुनावी नतीजे तो उन्हीं का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे।

विश्लेषकों का कहना है कि सच्चाई तो यह है कि अजमेर संसदीय सीट के नतीजे राजस्थान में कांग्रेस की अस्मिता का भविष्य गढ़ेंगे। भाजपा की चुनावी कमान थामे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी अपनी पूरी ताकत इस सीट को कब्जाने में लगा रखी है। कांग्रेस ने अलवर से डॉ. कर्ण सिंह यादव और अजमेर से रघु शर्मा को उम्मीदवार बनाया है। विश्लेषकों का कहना है कि पायलट ने एक तरह से खुद को साबित करने का मौका गंवा दिया। साथ ही कांग्रेस की भद्द पिटवाने का मौका दे दिया। उधर करो या मरो का मिशन लेकर चुनावी महाभारत में उतरी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कौशल विकास मंत्री डॉ. जसवंत सिंह यादव को अलवर से अपना उम्मीदवार घोषित किया है। कांग्रेस ने इस तर्क के साथ डॉ. कर्ण सिंह यादव को उम्मीदवारी सौंपी है कि यादव होने के नाते वे बराबरी के धारदार नेता साबित होंगे।

अलवर लोकसभा क्षेत्र के जातिगत गणित को समझें तो यह मुख्य रूप से जाट और माली बहुल क्षेत्र है। यादव और ब्राहण तो गिनती के हैं। इस दृष्टि से चुनावी जीत का दारोमदार जाट और माली मतदाताओं के हाथ में होगा। माली इसलिए डॉ. कर्ण सिंह को वोट देने से कतरा सकते हैं कि उम्मीदवारी तय करने के मामले में अशोक गहलोत को भरोसे में ही नहीं लिया गया। गहलोत माली समुदाय से हैं। वहीं कर्ण सिंह का जाटों से शुरू से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। अलवर के बहरोड़ विधानसभा क्षेत्र से 1989 में विधायक रहते हुए कर्ण सिंह ने जाटों की जमकर खिलाफत की थी। विधानसभा में आरक्षण विधेयक पर बहस के दौरान उन्होंने यहां तक कह दिया था कि जाटों को आरक्षण दिया गया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।

वहीं भाजपा उम्मीदवार जसवंत सिंह यादव ने अपने इर्द-गिर्द विवादों की गहरी खंदक खोद रखी है। लेकिन सामने कोई प्रबल चुनौती न हो तो नाउम्मीदी कैसी? खासकर उन स्थितियों में जब वसुंधरा राजे आरएसएस की छत्र छाया में रणनीति गढ़ रही हैं। कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि मौजूदा हालात में अजमेर में रघु शर्मा से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। उनका मुकाबला भाजपा के युवा और ऊर्जावान रामस्वरूप लांबा से है जो दिवंगत सांसद साबरमल जाट के बेटे हैं। उनके पास बतौर तुरुप का पत्ता सहानुभूति वोट बैंक तो है ही, इस संसदीय क्षेत्र में दो लाख जाट वोटर हैं जो इस सीट का तीसरा बड़ा वोट बैंक है। जाटों पर पायलट का कितना असर है, यह कहने की नहीं समझने की जरूरत है?

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