भारतीय राजनीति का भस्मासुर बनेगा सोशल मीडिया ?

विजयशंकर चतुर्वेदी

भारतीय राजनीति ने सोशल मीडिया की ताकत और हर वर्ग के मतदाताओं के बीच इसकी पैठ को अच्छी तरह से पहचान लिया है। वरना क्या कारण है कि जहां 2009 में कांग्रेस के शशि थरूर जैसे इक्का-दुक्का राजनेता ही ट्विटर पर सक्रिय थे, वहीं 2017 में आलम यह है कि शायद ही किसी राजनीतिक दल का कोई नेता ऐसा बचा हो, जिसका फेसबुक अथवा ट्विटर पर खाता न हो। भारत में लगभग हर हाथ में मोबाइल पहुंचा देखकर अब सभी प्रमुख दलों के प्रचार प्रमुख सोशल मीडिया को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनाने लगे हैं। मोबाइल पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 90 फीसदी तक पहुंच चुकी है।

आगामी आम चुनाव की पूर्व तैयारी के सिलसिले में पिछले मार्च की 30 तारीख को पीएम नरेंद्र मोदी ने जब विभिन्न राज्यों के भाजपा सांसदों से मुलाकात की तो उनका स्पष्ट संदेश था- ‘मोबाइल तकनीक का उपयोग कीजिए क्योंकि यही वह माध्यम है, जिसका इस्तेमाल भारत का युवा सबसे अधिक करता है।’ मोदी ने अपने सांसदों को नसीहत दी थी कि वे सोशल मीडिया पर सक्रिय हो जाएं और अपनी तथा सरकार की नीतियों का अपने-अपने लोकसभा क्षेत्रों में जमकर प्रचार करें क्योंकि 2019 के चुनाव मोबाइल के माध्यम से लड़े जाएंगे। मोदी स्वयं सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करते हैं और ट्विटर पर उनके फॉलोअरों की संख्या साढ़े तीन करोड़ के आस-पास जा पहुंची है, जबकि इस मामले में विपक्षी नेता उनके आस-पास भी नहीं हैं।

सोशल मीडिया की ताकत यह है कि वह मतदाताओं के मन में नेताओं की तरह-तरह की छवियां गढ़ने में सक्षम है। चूंकि आजकल चुनाव एक तरह के छवि-युद्ध में भी तब्दील हो गए हैं, इसलिए सोशल मीडिया से विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपनी छवि चमकाने तथा अपने विरोधियों के चेहरे पर कालिख पोतने के काम भी लिया जाने लगा है। आपको याद होगा कि 2014 का पिछला आम चुनाव सोशल मीडिया पर कितने आक्रामक ढंग से लड़ा गया था। नरेंद्र मोदी के बरक्स राहुल गांधी की छवि कांग्रेस को ले डूबी थी। राहुल गांधी के लिए बीजेपी समर्थक ट्विटरबाजों ने हैशटैग #पप्पू का इस्तेमाल किया जिसके जवाब में कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम ने नरेंद्र मोदी के लिए हैशटैग #फेकू को प्रचलित करने की कोशिश की और सोशल मीडिया पर जमकर राजनीति खेली गई। भारत में सोशल मीडिया और राजनीति की दोस्ती भले ही ज्यादा पुरानी नहीं है लेकिन अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया जैसे देशों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने मतदाताओं तक पहुंचने के लिए काफी पहले से किया जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले बराक ओबामा ने अमेरिकी जनता के साथ गूगल हैंगआउट के जरिये लाइव बातचीत की थी। आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड भी जनता से रू-ब-रू होने के लिए गूगल का सहारा लिया करती थीं। भारत में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी काफी पहले इसकी ताकत पहचान चुके थे और एक हाई टेक सीएम के रूप में गूगल हैंगआउट पर लोगों से सीधे जुड़ा करते थे। लेकिन सोशल मीडिया की ताकत का असली अंदाजा भारतीय राजनेताओं को पीएम उम्मीदवार घोषित होने के बाद नरेंद्र मोदी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता के बाद लगा। विरोधियों ने 2014 के चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी को सोशल मीडिया का प्रधानमंत्री तक कह दिया था।

इसका कारण शायद यह था कि गोवा में बीजेपी की लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनने के बाद जब पहली बार नरेंद्र मोदी मुंबई पहुंचे तो उन्होंने पार्टी पदाधिकारियों से साफ कहा था कि उन्हें 48 लाख सोशल मीडिया आईडी चाहिए। यानी महाराष्ट्र की हर लोकसभा सीट से एक लाख सोशल मीडिया आईडी! मोदी एक झटके में अपनी बात पहुंचाने की तरकीब का बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करना चाहते थे। लोकसभा चुनाव में ‘अबकी बार मोदी सरकार’ का नारा सोशल मीडिया की बदौलत ही परवान चढ़ सका था। आज मोदी ट्विटर पर हिंदी, उर्दू के अलावा मराठी, उड़िया, बांग्ला, तमिल, असमिया, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं में ट्वीट करते हैं। जाहिर है इसके लिए एक पूरी आईटी टीम दिन-रात सक्रिय रहती है। अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी माना था- ‘टेक्नालॉजी का इस्तेमाल बढ़ने से मीडिया का विस्तार हुआ है और सोशल मीडिया का प्रभाव पिछले कुछ बरसों में काफी बढ़ा है।’

भाजपा के बाद सोशल मीडिया से सबसे ज्यादा लाभ उठाने वाला अगर कोई राजनीतिक दल है तो वह है आम आदमी पार्टी। सोशल मीडिया की ताकत को दुनिया ने अरब अपराइजिंग से पहचाना था। लेकिन भारतीय राजनीति का सोशल मीडिया की ताकत से परिचय वर्ष 2011 में अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन ने करवाया। आंदोलन की पल-पल की खबर लेकर हर कोई सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लोगों से इस आंदोलन में भाग लेने की अपील कर रहा था। आंदोलन के बाद गठित ‘आप’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में साफ तौर पर दिखा दिया था कि सोशल मीडिया के इस्तेमाल से कैसे कोई पिद्दी-सा दल भी शक्तिशाली शासकों का सफाया कर सकता है। 15 अप्रैल 2014 को अरविंद केजरीवाल ने एक ट्वीट किया- ‘राहुल और मोदी से लड़ने के लिए हमें ईमानदार पैसा चाहिए।’ दो ही दिन के अंदर उनकी इस अपील पर एक करोड़ रुपये जमा हो गए। चुनावों में सोशल मीडिया के इस्तेमाल का यह एक अनोखा प्रयोग था।

स्पष्ट है कि जिन राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया की ताकत को जितना जल्दी पहचाना, उन्हें उतनी बड़ी सफलता मिली। कांग्रेस, सपा, बसपा, आरजेडी, जेडीयू जैसी पार्टियां इस ओर से उदासीन रहीं तो उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। तब आरजेडी नेता रघुवंश प्रसाद का मानना था- ‘बिहार जैसे प्रदेशों में सोशल मीडिया की पैठ अधिक नहीं है इसलिए हम इस पर जोर नहीं देंगे बल्कि घर-घर जाकर प्रचार करेंगे।’ लेकिन आज इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसियएशन आॅफ इंडिया और इंडिपेंडेट आयरिस नॉलेज फाउंडेशन की रिपोर्ट यह बताती है कि लोकसभा की 543 सीटों में से करीब 250 सीटें ऐसी हो गई हैं, जो सोशल मीडिया से सीधे प्रभावित की जा सकती हैं। इसीलिए बुजुर्ग नेता भी इंटरनेट साक्षर बनने के लिए मजबूर हैं और उन्होंने फेसबुक और ट्विटर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रखी है।

चर्चित सोशल मीडिया विश्लेषक एवं मीडिया शिक्षक विनीत कुमार का मानना है, ‘सोशल मीडिया ने राजनीति को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया है- एक तो मतदान की राजनीति, जो परंपरागत रूप से चली आ रही है और दूसरी वेब राजनीति। यह जरूरी नहीं है कि किसी राज्य, पंचायत और यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर नागरिक मतदान करें ही। लेकिन वह उसके पक्ष या विपक्ष में जनमत निर्माण का कार्य अवश्य कर सकता है। ये वो नेटिजन्स हैं जिनकी नागरिकता भौगोलिक दायरे के बाहर है। ऐसे में आज की राजनीति में दो स्तर पर चुनाव लड़ने होते हैं और दोनों स्तरों पर लामबंदी करनी होती है। इसका नतीजा यह हुआ है कि रियल स्पेस और वर्चुअल स्पेस पर राजनीति होने से लागत पहले से कई गुना बढ़ गई है। अब वर्चुअल स्पेस पर अलग से करोड़ों रुपये खर्च करने की जरूरत उत्पन्न हो गई है।’

विनीत की इस बात में दम है। अगर हम 2014 के आम चुनावों की तरफ मुड़कर देखें तो एक अनुमान के मुताबिक सभी पार्टियों ने सोशल नेटवर्किंग पर कुल मिलाकर 400-500 करोड़ रुपए खर्च किए, जो कुल चुनावी खर्च का लगभग 10 फीसदी बैठता है। इन चुनावों में इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग का खर्च उस स्तर तक पहुंच गया था कि किसी भी वेबसाइट या सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चुनावी विज्ञापन लगाने से पहले चुनाव आयोग से अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया था। सोशल मीडिया ने मोदी लहर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए विनीत कहते हैं, ‘वर्चुअल स्पेस के जरिये चुनाव से पहले ही यह तय हो जाता है कि कौन जीत रहा है। इसे चाहें तो इस तरह भी कहा जा सकता है कि सरकार पहले ट्विटर और फेसबुक पर बनती है, उसके बाद केंद्र या किसी राज्य में।’
यह भी सच है कि मतदाताओं के बीच यह अतिउत्साह पनपता है कि माहौल या छवि बनाने में उनकी अहम भूमिका है क्योंकि अब वे मात्र निष्क्रिय नागरिक नहीं हैं बल्कि कंटेंट के निर्माता भी हैं और उपभोक्ता भी। इसी खामखयाली में ये लोग लगातार मेमे, मैसेजेज, पोस्टर आदि के जरिये सोशल मीडिया में सामग्री उत्पादन के काम में जुटे रहते हैं। लेकिन इस खामखयाली के बीच यह समझना जरूरी है कि राजनीतिक दलों के आईटी प्रकोष्ठ और वाररूम का सोशल मीडिया में जो दखल है, और जहां से संदेश पठाए जाते हैं; जहां ट्रोलिंग का काम होता है, वह लोकतंत्र के रेशे को अपने स्तर पर विकृत या कमजोर करने का काम करता है।

इसका मतलब हुआ कि एक ऐसी सामग्री जो नागरिकों अर्थात मतदाताओं के जरिए आती हुई जान पड़ती है, वह दरअसल वाया वॉररूम या आईटी प्रकोष्ठ के जरिए आ रही होती है। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है इंटरनेट पर चुनाव और राजनीति से जुड़ा अधिकांश विमर्श और गतिविधियां गाली-गलौज और अश्लील बातों से भरा होता है। यह भी देखा गया कि समाचार और विचार प्रधान वेबसाइटों पर उपलब्ध हर इंटरैक्टिव विकल्प का उपयोग भाजपा और मोदी समर्थक टिप्पणियों से भरा रहता है। एक बार तो ऐसा हुआ कि जर्मन प्रसारण सेवा डॉयचे वेले की हिंदी वेबसाइट में मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसेन पर लिखे गए एक ब्लॉग में मोदी के महिमामंडन के कमेंट डाल दिए गए थे। स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ये अनायास नहीं बल्कि सुनियोजित थे। यानी सोशल मीडिया पर मौजूद हर स्पेस का उपयोग गोलबंद तरीके से किया जाने लगा है।

सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में ऐसी उम्मीदें जताई जा रही थीं कि इससे राजनीतिक स्तर पर वैविध्य आएगा और देशभर के लोगों की आवाज को शामिल किया जा सकेगा। राजनीतिक दल और नेता अब अपनी बात रखने के लिये मुख्यधारा के मीडिया के गेटकीपरों और उनके न्यूज लॉजिक के मोहताज नहीं रह जाएंगे और छद्म व्यवहार करने वाले राजनीतिज्ञों के लिए यह मुसीबत खड़ी कर देगा। सोशल मीडिया एक ताजा लहर के समान था लेकिन बहुत ही कम समय में जिस आक्रामकता के साथ राजनीतिक दलों ने इसका इस्तेमाल करना शुरू किया है, यह संभावना तेजी से मरती हुई दिखाई देती है। इस अर्थ में इसने कीबोर्ड के बाहुबलियों की राजनीति का विस्तार किया है। कहा जा सकता है कि इस खुले, स्वतंत्र और सहज उपलब्ध सामाजिक मंच ने राजनीति की जमीन को सक्रियता के स्तर पर विस्तार जरूर दिया है, लेकिन लोकतांत्रिक स्तर पर उसकी जड़ों को उसी अनुपात में मजबूत नहीं कर पा रहा है।

सोशल मीडिया किसी महासागर की तरह विस्तृत और गहरा है। इसका सकारात्मक इस्तेमाल राजनीति को सही दिशा देने में किया जा सकता है। लेकिन जैसा कि हम देखते हैं इसका दुरुपयोग करने में राजनीतिक दल और उनके समर्थक ही सबसे आगे हैं। अमेरिका की शिकागो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर मैथ्यू जेंटकोव ने जानेमाने अर्थशास्त्री जेस शैपिरो के साथ मिलकर एक अध्ययन किया और पाया कि परंपरागत मुख्यधारा के माध्यमों की तुलना में इंटरनेट ज्यादा तेजी से ध्रुवीकरण करता है। खुद ट्विटर के सह-संस्थापक ब्रिज स्टोन का मानना है, ‘ट्विटर जोड़ता है लेकिन यदि बहुमत इस पर कब्जा जमा ले तो ये विभाजनकारी भी हो सकता है। इंटरनेट पर जितनी अधिक आपकी संख्या है उतनी ही अधिक ऊंची आपकी आवाज है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसकी लाठी उसकी भैंस!’

सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट टेक्नोलॉजी ने भारतीय लोकतंत्र की चुनावी संस्कृति को हमेशा के लिए बदल डाला है। अगर इसका विवेकपूर्ण और आत्मनियंत्रण भरा इस्तेमाल न हुआ तो इसको राजनीति का भस्मासुर बनते देर नहीं लगेगी।

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