सियासी गलियों में वेलेंटाइनी बयार

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chikotiदेश के सियासी गलियारों में मौसमी वेलेंटाइंस की चहलकदमी बढ़ गई है, जहां ‘रोज-चॉकलेट’ नहीं, बल्कि मनपसंद सीट-पद आदि प्रेम की प्रगाढ़ता बढ़ाने के औजार हैं. कोई इस बात पर खुशी से फूला नहीं समा रहा कि ‘काम’ बन गया और कोई खिन्न-उदास बैठा है कि ‘महबूब की मेहंदी’ फलां के हाथों में कैसे रच गई. बड़ा अजब-गजब माहौल है बबुआ.

भइया लाल लपकते हुए चौराहे की ओर बढ़े चले जा रहे थे, तभी मैंने उन्हें लपक लिया. दादा, इतनी भोर में किधर चल दिए, मेरा पहला सवाल दगा. क्यों, मुझे तुमसे पूछने की जरूरत है? भइया लाल आंखें तरेरते हुए बोले, अच्छा अब पूछ लिया है, तो जान लो पुत्तर, सीपी यानी कनॉट प्लेस जा रहा हूं.

ओह, फरवरी की चौदह तारीख है, लेकिन जीवन के इस मोड़ पर किसे ‘रोज-चॉकलेट’ थमाओगे दादा, कुछ तो शर्म करो, मैंने उन्हें छेड़ा ़क्या सारे लोग सीपी किसी को ‘रोज-चॉकलेट’ थमाने ही जाते हैं? भइया लाल ने पलटवार करते हुए कहा, क्या अब मुझे कोई मिलेगा नहीं? वैसे मैं किसी को कुछ देने नहीं जा रहा, बस यूं ही तबियत उचाट हुई, तो सोचा कि यार-दोस्तों से मिल आऊं. मिलने-मिलाने से ही रिश्ते मजबूत होते हैं. नेताओं से कुछ सीखो.

चुनाव लडऩे का मन बना रहे हैं क्या? मैंने फिर सवाल फेंका.

नहीं, मिलने-मिलाने का एकमात्र मतलब चुनाव लडऩा नहीं होता. जो अक्सर मिलते हैं, वे जरूरत पडऩे पर दांव दे जाते हैं या फिर बतौर दुश्मन सामने नजर आने लगते हैं. और, जो आपस में कभी नहीं मिलते, एक-दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते, वे आपस में गलबहियां करके विरोधियों को मैदान में धूल चटाने का ऐलान कर देते हैं, भइया लाल अपनी रौ में आ गए.

आप किसकी बात कर रहे हैं, दादा?

मौसम मिलन का है स्वीट हार्ट, कहीं कोई बुआ अपने धुर विरोधी भतीजे से गले मिल रही है, तो कहीं भतीजे अपने चाचाओं की आवभगत में जुटे हैं. कहीं चाचा, मामा, फूफा, ताऊ, दीदी-चाची सबके सब एक-दूसरे पर बलिहारी जा रहे हैं और तरन्नुम में गा रहे हैं, हम एक थे, हम एक हैं, हम एक रहेंगे.

आपकी बात मेरे सिर से ऊपर निकली जा रही है दादा, अपने रिश्तेदारों का जिक्र क्यों करने लगे. बात वेलेंटाइन डे से निकली थी, आप मिलने-मिलाने और लडऩे-लड़ाने पर भाषण झाडऩे लगे.

माई डियर, मैं वेलेंटाइन डे और वेलेंटाइंस पर ही बात कर रहा हूं. तुम एक दिन के प्रेम-पर्व पर सीमित रह गए और मैं पूरे मौसम में प्रेम की बहार देख रहा हूं. चुनाव की बेला आ गई है, इसलिए देश के सियासी गलियारों में मौसमी वेलेंटाइंस की चहलकदमी बढ़ गई है. वहां ‘रोज-चॉकलेट’ नहीं, बल्कि मनपसंद सीट-पद आदि तत्व प्रेम की प्रगाढ़ता बढ़ाने के औजार हैं. यही औजार प्रेम बरकरार रखते हैं, बढ़ाते और कम करते हैं, भइया लाल ने अनुभव उड़ेला.

और क्या हो रहा है सियासी गलियारों में?

यह न पूछो कि क्या हो रहा है, बल्कि पूछो कि क्या नहीं हो रहा है? कोई इस बात पर खुशी से फूला नहीं समा रहा कि ‘काम’ बन गया और कोई खिन्न-उदास बैठा है कि ‘महबूब की मेहंदी’ फलां के हाथों में कैसे रच गई. बड़ा अजब-गजब माहौल है बबुआ, भइया लाल अब गंभीर होने लगे थे.

यह तो अच्छी बात है कि हमारे सियासत दां आपस में प्यार-मुहब्बत बनाए रखें. अगर वे एक रहेंगे, तभी तो देश को एकता के सूत्र में बांध सकेंगे, मैंने ज्ञान बघारा.

प्यारे, जैसे हाथी के दांत खाने के लिए कुछ और दिखाने के लिए कुछ होते हैं, वैसे ही नेताओं की भाईचारगी भी मौसमी और दिखावटी होती है, जिसका असली चेहरा चुनाव के बाद सामने आता है, भइया लाल ने देश के मौजूदा सियासी हालात को आईना किया.

बड़े अफसोस की बात है, मैंने ठंडी-सी आह भरी.

प्यारे, यह हमारे देश की बदकिस्मती है, जिसे कविवर नीरज बहुत पहले कह चुके हैं, ज्यों लूट लें कहार ही दुल्हन की पालकी, हालत यही है आजकल हिंदोस्तान की.

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