किसानों की कर्जमाफी के साइड इफेक्ट

विजयशंकर चतुर्वेदी।

यूपी के किसानों का एक लाख तक का फसली कर्ज माफ हो गया है, भले ही कर्ज ली गई रकम ज्यादा हो। इससे फिलहाल 31 मार्च 2016 तक फसली कर्ज लेने वाले 86 लाख किसानों को फायदा होगा और माफी की रकम सीधे किसानों के आधार कार्ड से जुड़े बैंक खातों में चली जाएगी, चाहे बैंक कोई भी हो। इस फैसले से यूपी के किसानों में उत्साह का संचार होगा और देश के अन्य राज्यों के किसानों में आशा जगेगी कि शायद उनका भी कर्ज माफ हो जाए! हालांकि 30,729 करोड़ रुपये की इस कर्जमाफी ने यूपी के सिर पर 36,359 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ डाल दिया है क्योंकि करीब सात लाख ऐसे किसानों का भी 5,630 करोड़ रुपया माफ किया गया है जिनका कर्ज एनपीए (नॉन परफॉरमिंग असेट) हो गया था। इनमें बड़े किसान भी शामिल हैं।

इस कर्जमाफी ने यकीनन किसानों को राहत दी है, उनकी खेती करने में आस्था बरकरार रखी है लेकिन अर्थशास्त्री इसे ‘बैड इकनॉमिक्स’ और राजनेता ‘सियासी झुनझुना’ बता रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यूपी चुनावों के दौरान जब भाजपा ने सत्ता में आने पर किसानों की कर्जमाफी का वादा किया था तो देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक आॅफ इंडिया की चेयरपर्सन अरुंधती भट्टाचार्य ने सीआईआई के एक कार्यक्रम में फौरन कह दिया था कि इस तरह की योजनाओं से बैंक और कर्ज लेने वालों के बीच अनुशासन बिगड़ता है। इससे पहले केंद्र द्वारा विभिन्न सरकारों के कृषि कर्जमाफी कार्यक्रमों पर सवाल उठाते हुए भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि इस तरह की योजनाओं से किसानों का कर्ज प्रवाह बाधित होता है। यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने भी इस फैसले की आलोचना करते हुए ट्वीट किया है कि यह सूबे के गरीब किसानों के साथ धोखा है क्योंकि एक लाख रुपये की सीमा लगा दी गई है।

नुक़्ताचीनी अपनी जगह है लेकिन यूपी की कर्जमाफी का पूरे देश में संक्रामक असर हो रहा है। किसानों की आत्महत्याओं से दहल रहे महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, तेलंगाना, तमिलनाडु, एमपी और आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में भी कर्जमाफी की मांग जोर-शोर से उठ रही है और राज्य सरकारें भारी दबाव में आ गई हैं। महाराष्ट्र में तो शिवसेना कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने स्पष्ट कह दिया है कि कर्ज माफ करना महज ‘चुनावी जुमला’ नहीं है, योगी जी की तरह सीएम देवेंद्र फडणवीस को भी किसानों का कर्ज माफ करना ही होगा। इससे फडणवीस भी दबाव में हैं और अपने वित्त सचिव को आदेश दिया है कि वे यूपी के मॉडल का अध्ययन करके शीघ्र बताएं कि महाराष्ट्र के लिए यह कितना और कैसे अनुकरणीय है। उनके वित्त मंत्री सुधीर मुनगुंटीवार ने भी राज्य के करीब 31 लाख 57 हजार किसानों की कर्जमाफी के संकेत दिए हैं।
हालांकि अभी मार्च में जब महाराष्ट्र का बजट सत्र चल रहा था तो विपक्ष को फडणवीस ने दो टूक शब्दों में सुना दिया था कि अगर किसानों का कर्ज माफ करेंगे तो राज्य के विकास के लिए पैसा ही नहीं बचेगा। उन्होंने यह भी बताया था कि यूपीए सरकार द्वारा 2009 में की गई कर्जमाफी के बाद से 2014, यानी उनकी सरकार बनने तक महाराष्ट्र में 16 हजार किसान आत्महत्या कर चुके थे और आज भी किसानों का 30,500 करोड़ रुपये का कर्ज मियाद से आगे चल रहा है। क्या गारंटी है कि कर्जमाफी के बाद एक भी किसान आत्महत्या नहीं करेगा! उनके इस रवैये के विरोध में विपक्ष ने पूरे राज्य में संघर्ष यात्रा निकाली और एनसीपी के मुखिया एवं पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और एनसीपी के ही दूसरे दिग्गज अजित पवार ने पिछले दिनों उन्हें अल्टीमेटम ही दे डाला। अब जाकर फडणवीस के तेवर ढीले पड़े हैं।

वहीं भाजपा शासित राज्य हरियाणा में भी यूपी का साइड इफेक्ट देखने को मिल रहा है। इंडियन नेशनल लोकदल समेत कई किसान संगठनों ने कर्जमाफी को लेकर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। राज्य के 15.36 लाख में से 15 लाख किसान 56,336 करोड़ रुपये के कर्ज में दबे हुए हैं। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी कांग्रेस की कैप्टन सरकार से किसानों की कर्जमाफी कराने पर अड़ गई है जिस पर सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह का कहना है कि कांग्रेस अपना वादा जरूर निभाएगी, हालांकि उन्होंने इसकी कोई समय सीमा नहीं बताई है। नेशनल सैम्पल सर्वे आॅफिस ने राजस्थान में यह नतीजा निकाला है कि राज्य के 100 में से 62 किसान कर्जदार हैं और आत्महत्या के बारे में सोचते हैं। यूपी के फैसले के बाद हाथ लगे किसानों के मुद्दे पर विपक्षी कांग्रेस सत्तारूढ़ वसुंधरा सरकार से दो-दो हाथ करने के मूड में है। भाजपा नेता कृष्णकुमार सिंह ने बिहार के सीएम नीतीश कुमार से कैबिनेट की अगली बैठक में ही किसानों को कर्ज से राहत देने की मांग की है। इस घटनाक्रम के बीच सबसे दिलचस्प मामला तमिलनाडु का है।

तमिलनाडु के किसान आत्महत्या कर चुके साथियों की मुंडमालाएं लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर कुछ हफ़्तों से धरना दे रहे थे लेकिन केंद्र सरकार उनकी व्यथा पर कान नहीं दे रही थी। इसी बीच मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस एस. नागामुथु और जस्टिस एमवी मुरलीधरन की खंडपीठ का ऐतिहासिक फैसला आया कि तमिलनाडु सरकार किसानों को लघु एवं सीमांत किसानों में न बांटते हुए सूखा प्रभावित क्षेत्रों के सभी किसानों का कर्ज माफ करे और सहकारी समितियां तथा बैंक बकाया वसूली तत्काल स्थगित करें। लेकिन इस फैसले की जो सबसे महत्वपूर्ण बात थी वो यह कि तमिलनाडु की मदद करने में केंद्र सरकार को मूकदर्शक नहीं बने रहना चाहिए क्योंकि राज्य सरकार पहले ही 5,780 करोड़ रुपये का भार अकेले उठा रही है और कर्जमाफी के बाद उस पर 1980.33 करोड़ रुपये का बोझ और बढ़ जाएगा।

मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू बार-बार कह चुके हैं कि किसानों की कर्जमाफी राज्यों का मामला है और इसके लिए राशि का प्रबंध राज्यों को अपने संसाधनों से ही करना होगा। केंद्र के ऐसा कहने के कारण भी हैं।

पिछले वर्ष 18 नवंबर को केंद्र सरकार ने राज्यसभा में जो लिखित जानकारी दी थी उसके मुताबिक 30 सितंबर 2016 तक देश के किसानों पर अलग-अलग बैंकों का लगभग 12 लाख 60 हजार करोड़ रुपया बकाया था। इसमें 7 लाख 75 हजार करोड़ रुपये फसली कर्ज और 4 लाख 85 हजार करोड़ रुपये अवधि कर्ज (टर्म लोन) था। केवल यूपी में ही 2016-17 के वित्त वर्ष में दिसंबर तक 60,179 करोड़ रुपये किसानों को कर्ज के तौर पर बांटे जा चुके थे। ऐसे में राज्यों की किसान कर्जमाफी केंद्र का बजट तहस नहस कर सकती है। लेकिन मद्रास हाई कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र का रुख देखना दिलचस्प होगा।

यूपी सरकार की पहली कैबिनेट मीटिंग इसीलिए भी 15 दिन टलती रही कि वादा निभाने के लिए कर्जमाफी की घोषणा पहली बैठक में ही की जानी थी और इसके लिए वित्त-प्रबंधन की कोई राह नजर नहीं आ रही थी। लेकिन अब जबकि यूपी में फैसला लिया जा चुका है। वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल का कहना है, ‘किसान राहत बॉन्ड जारी करने, ट्रांसफर टु स्टेट मद में केंद्र का सहयोग पाने और स्वतंत्र कर्ज लेने जैसे अन्य विकल्पों पर विचार किया गया है। लेकिन इतना तो तय है कि इस कर्जमाफी के चक्कर में कई बैंकों की बैलेंस शीट बिगड़ने वाली है और विकास के अन्य कार्य प्रभावित होने जा रहे हैं क्योंकि कर्जमाफी की रकम राज्य की जीडीपी का 8% बैठती है।’

किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा सियासी तौर पर हमेशा संवेदनशील रहा है। इसे लेकर राजनीतिक रोटियां भी सेंकी जाती रही हैं। डॉ. मनमोहन सिंह की यूपीए वन सरकार ने चौतरफा असफलताओं के बावजूद 2009 में किसानों के 52,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ करके चुनाव जीत लिया था। आज भी इसे मोदी और योगी का मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है जिसका गुब्बारा फोड़ने के लिए कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, ‘इस कर्जमाफी के बाद भी किसानों पर 56,241 करोड़ रुपये का कर्ज बरकरार है और भाजपा ने किसानों को केवल ‘बेवकूफ’ बनाया है।’

उधर, किसान संघों का कहना है कि कर्ज सीमा और कर्जमाफी को फसली कर्ज तक सीमित रखने से किसानों के लाभ का दायरा बहुत सीमित हो गया है जबकि मोदी जी के चुनावी वादे से बड़ी उम्मीदें जगी थीं। भारतीय किसान यूनियन के सदस्य धर्मंेद्र सिंह का कहना है, ‘चूंकि लघु एवं सीमांत किसान फसली कर्ज बहुत कम लेते हैं इसलिए इससे उन्हें कोई फायदा नहीं मिलने वाला।’ सीतापुर के किसान नेता उमेश चंद्र पांडेय ने कहा, ‘छोटे किसान मदद पाने के हकदार हैं लेकिन राज्य में बड़े किसानों के हालात भी बेहतर नहीं हैं। किसानों ने भैंसें, ट्रैक्टर, सिंचाई मशीनें और कृषि औजार आदि खरीदने के लिए जो कर्ज लिया है, उसे छुआ भी नहीं गया है।’

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक यूपी के 3.88 करोड़ लोग खेती पर आश्रित थे जिनमें 2.33 करोड़ किसान ऐसे थे जिनकी अपनी खुद की जमीन थी। लघु एवं सीमांत किसानों की संख्या 92% थी। लघु (स्माल) किसान का अर्थ औसतन 1.4 हेक्टेयर और सीमांत (मार्जिनल) किसान का अर्थ औसतन 0.4 हेक्टेयर भूमि का स्वामी या बटाईदार होता है। यूपी में ऐसे किसानों की संख्या 2.15 करोड़ से ज्यादा है और इनके ऊपर कर्ज साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। यूपी में किसानों का कर्ज जहां 2012-13 में 31,900 करोड़ रुपये था, 2014-15 में यह बढ़कर 55,600 करोड़ रुपये हो गया था।

सरकार द्वारा किसानों की कर्जमाफी एक स्वागतयोग्य कदम है। भूमि-सुधार और सर्वोदय आंदोलन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार कुमार प्रशांत कहते हैं, ‘किसान के कर्ज में फंसने की परिस्थिति ही नहीं बननी चाहिए और जो समर्थन मूल्य सरकारें तय करती हैं वह किसानों की को-आॅपरेटिव को तय करना चाहिए। निर्धारित बाजार भाव पर फसल बिक्री सुनिश्चित करने के अलावा सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि हमारे राजनेता किसानों की नहीं, अपनी फिक्र में रहते हैं!’

एक समस्या यह भी है कि लघु एवं सीमांत किसान की खेती का रकबा तो परिभाषित हो सकता है लेकिन बुंदेलखंड जैसे इलाकों में इतने रकबे में होने वाली उपज समान नहीं होती। दूसरी समस्या यह है कि छोटा किसान सिर्फ राष्ट्रीय बैंकों से ही कर्ज नहीं लेता है। वह सहकारी समितियों, पतपेढ़ियों, आढ़तियों और साहूकारों की शरण में जाता है। आत्महत्या भी छोटा किसान ही करता है। कर्जमाफी का एक दुखद पहलू यह भी है कि किसानों के नाम पर नेता और अफसर मालामाल हो जाते हैं। वर्ष 2009 में हुई कर्जमाफी के बाद एमपी में को-आॅपरेटिव बैंकों के जरिये 200 करोड़ रुपये हड़प लिए गए थे। राहत की बात यही है कि यूपी के सीएम योगी की कड़क और फैसलाकुन छवि के चलते सूबे के नेता-अफसरान फिलहाल ऐसी जुर्रत नहीं करेंगे वरना नप जाएंगे।

यूपी में कर्जमाफी भले ही आंशिक हो और ‘बैड इकानॉमिक्स’ का उदाहरण मानी जाए, लेकिन किसानों के लिए यह स्वाति की बूंद का काम कर सकती है। वे खेती में और पैसा लगाने को उत्साहित होंगे और बाजारों की रौनक भी बढ़ाएंगे। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी लगातार तीन ट्वीट कर इसका स्वागत किया है। लेकिन इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानों को सस्ते और उन्नत बीज, खाद, सिंचाई के साधन, खेती के औजार और कीटनाशक सहज उपलब्ध कराना पहला तथा कर्जमाफी अंतिम उपाय होना चाहिए। कर्जमाफी से खेती और किसानों की बुनियादी अर्थव्यवस्था पर कोई वास्तविक फर्क नहीं पड़ता। लघु एवं सीमांत किसानों से निकलकर भूमिहीनों, कंगालों और मजदूरों की फौज बनती और लगातार बढ़ती ही रहती है।

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