विजय माथुर

राजस्थान की हवाएं बड़ी बेरहम हो चली हैं। दरिंदों के नुकीले पंजों से लहूलुहान होती और कुम्हलाती बेटियां इसकी बानगी हैं। इन दिनों नई उम्र की कलियां गांव-ढाणियों के पंच परमेश्वरोें के कोप से थर्राई हुई हैं। फूल सी मासूम चार साल की खुशबू पर पंचों का कहर महज इस बात को लेकर टूटा कि अनजाने में उसका पांव टिटहरी के घोसले पर पड़ गया। नतीजतन एक अंडा क्या फूटा, पूरे गांव में बवंडर उठ गया। दलित रैगर समुदाय की बच्ची खुशबू पहली बार 2 जुलाई को स्कूल गई थी। उसी दिन स्कूलों में बच्चों को दूध पिलाने की योजना की शुरुआत हुई थी। खुशबू भी दूध लेने के लिए बच्चों की कतार में खड़ी थी। तभी टिटहरी का घोसला उसके पांव तले आ गया। मासूम बच्ची की मामूली भूल ने इस कदर कोहराम मचाया कि आनन-फानन में गांव की पंचायत बैठी और बच्ची को जीव हत्या का दोषी मानते हुए जाति से बाहर निकालने का फरमान सुना दिया। पंच पटेलों ने तालिबानी तरीके से बालिका को सामाजिक बहिष्कार की सजा सुना दी जो उसका अर्थ भी नहीं जानती थी। घर के बाहर बरसाती हवाओं के थपेड़ों और आंधी-पानी के बीच टीन शेड के नीचे रोती-बिलखती बच्ची ने एक दिन नहीं बल्कि दस दिन बिताए।
उसे इस कदर अछूत मान लिया गया कि उसे खाना भी दूर से फेंक कर दिया जाता था ताकि खाना देने वाला व्यक्ति उससे छू न जाए। कोई उससे बात कर पाता, इसका तो सवाल ही नहीं था। परिवार के लिए हजार बंदिशें थीं। पंच पटेलों का विरोध करने का मतलब था बच्ची की सजा में और इजाफा होना। पिता हुकुमचंद को भी पंच पटेलों ने जुर्माने की बेड़ियों में जकड़ दिया। हुकुमचंद को हुकुम दिया गया कि पंच पटेलों को एक किलो नमकीन और शराब की बोतल का नजराना भेंट करे। यह घटना बूंदी जिले के हिंडोली उपखंड के ग्राम पंचायत सथूर में स्थित हरिपुरा गांव की है। ग्रामीण समाज में यह पुरानी मान्यता है कि पंचों में परमेश्वर बसते हैं और बच्चे परमेश्वर को सबसे ज्यादा प्रिय होते हैं। लेकिन इस घटना ने इस अवधारणा पर कालिख पोत दी है। वे कैसे परमेश्वर थे कि जिन्होंने अपनी सारी ताकत फूल सी बच्ची को कुचलने में लगा दी? दस दिनों तक खुले में बारिश के थपेड़े सहते हुए बच्ची ने जो असहनीय पीड़ा भोगी होगी उस सदमे से वो शायद ही कभी उबर पाए। बच्ची की मुक्ति तभी हुई जब जिला कलेक्टर महेश शर्मा को खबर लगी। लेकिन उनका कथन भी किताबी था कि गांव वालों को अपने स्तर पर ही इससे निपट लेना चाहिए था। लेकिन जब पूरा गांव ही निर्ममता का साक्षी था तो कौन किसको बचाता? बच्ची की मुक्ति को लेकर भी पंच पटेलों ने घंटों तक अजीबोगरीब रस्मों की अदायगी का पाखंड रचा लेकिन थानाध्यक्ष लक्ष्मण सिंह और अन्य अधिकारी उन्हें कानून का भय दिखाने की बजाय तमाशबीन ही बने रहे।

वरिष्ठ पत्रकार राजेश त्रिपाठी इसे बौद्धिक निर्धनता का नजारा करार देते हुए कहते हैं, ‘बच्चे जंगल बुक तो पसंद कर सकते हैं लेकिन जंगलराज नहीं। मानवता जब पाखंड की मुट्ठी में कैद हो तो हम किस मुंह से आजादी की 71वीं सालगिरह मना रहे थे?’ अब मानवाधिकार आयोग भी इस घटना पर हायतौबा कर रहा है। आयोग के अध्यक्ष जस्टिस प्रकाश टाटिया का कहना है कि यह अत्यंत शर्मनाक और गंभीर प्रकरण है। टाटिया ने इस मामले में जिला कलेक्टर और जिला पुलिस अधीक्षक से रिपोर्ट तलब कर ली लेकिन अभी तक रिपोर्ट का कोई अता-पता नहीं है। मानवता को शर्मिंदा करने वाले पंचों का अभी तक बाल भी बांका नहीं हुआ है।

वसुंधरा सरकार दलितों के उत्थान के हजार दावे करे लेकिन हकीकत में उनकी नजर में दलित वोट बैंक से ज्यादा कुछ भी नहीं है। छूत-अछूत से अंजान मासूम बच्चे जब ऐसी स्थितियों से दो चार होते हंैं तो उनके चेहरे पर हैरानी का भाव चस्पा हो जाता है कि ऐसा क्यों? उदयपुर जिले की पंचायत समिति क्षेत्र की संलूबर तहसील स्थित राजकीय बालिका उच्च प्राथमिक विद्यालय उथरदा में एक दलित छात्रा के साथ ऐसी ही बीती। वो उस समय हक्का-बक्का रह गई जब पोषाहार छू लेने भर से स्कूल की महिला रसोइया ने न सिर्फ पूरा पोषाहार फेंक दिया बल्कि उसकी सात पुश्तों को जी भर कर गालियां दी। बात यहीं तक सीमित नहीं रही, अगले दिन उसे स्कूल में घुसने से रोक दिया गया। मामले ने तूल तब पकड़ा जब घटना का वीडियो वायरल हुआ। स्कूल के प्रधानाध्यापक शंकर लाल मीणा ने यह कहते हुए घटना पर लीपापोती कर दी कि हमने बच्ची के परिजनों को समझा दिया कि अब ऐसा नहीं होगा। लेकिन इस गंभीर घटना के लिए कसूरवार महिला रसोइया और स्कूल में दाखिल होने से रोकने वाले शिक्षकों के खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं हुई।

ये घटनाएं सरकार की असंवेदनशीलता और दलितों के प्रति दबंगों के कुत्सित आख्यान को गढ़ती हैं। समाज और व्यवस्था में आए इस भूचाल में दबी-ढकी दहलाने वाली दास्तानों के उड़ते तिनके आंखों में बुरी तरह चुभते हैं। समाजशास्त्री लक्ष्मण खांडेकर ने एक बार इन घटनाओं पर तिलमिला देने वाली प्रतिक्रिया जाहिर की थी कि, ‘चमचमाते विकास के पीछे नफरत की चीखट काइयां क्यों दिखाई नहीं देती?’ इन थर्रा देने वाली घटनाओं में पिछले चार साल में गजब का इजाफा हुआ है। इन घटनाओं के कथा सूत्र तब नए ढंग खुलते नजर आते हैं जब पुलिस की मौजूदगी में दलितों पर हमले किए जाते हैं। नागौर की उस व्यथा कथा को किसने समझा जब पांच दलितों की निर्दयता से हत्या कर दी गई, दलित युवती देलता मेघवाल का बलात्कार कर उसकी जघन्य हत्या कर दी गई। जिले के भागेगा गांव में दो दलित बहनों के साथ बलात्कार कर उन्हें इस कदर अपमानित किया गया कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। दलित महिला विधायक चंद्रकांता मेघवाल को तो पुलिस स्टेशन में ही पीटा गया। दलित पुलिस कांस्टेबल गनेराम को इस कदर जलील किया गया कि उसने ठौर आत्महत्या कर ली। दलितों पर सितम ढाने वाली घटनाओं की कतार इतनी लंबी है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती।

अजमेर के मदनगंज-किशनगंज स्थित प्रख्यात शिक्षण संस्थान में एक दलित छात्र के यौन शोषण का मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि एक और वहशी घटना सामने आ गई। एक सरकारी विश्वविद्यालय में रैगिंग की आड़ में दलित छात्र के साथ अप्राकृतिक कृत्य किया गया। जयपुर जिले के जोबनेर में रहने वाले छात्र ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को शिकायत भी की लेकिन किसी का भी बाल बांका नहीं हुआ। पुलिस ने भी यह कह कर हाथ खड़े कर दिए कि हमारे पास तो ऐसी कोई शिकायत नहीं आई। पस्ती और शर्मिंदगी से निढाल परिवार ने उस छात्र का विश्वविद्यालय से नाम कटवा कर घर लौटाना ही बेहतर समझा। ताज्जुब तो इस बात का है कि सरकार में दलित मंत्री भी हैं और सत्ताधारी दल में दलित विधायक भी लेकिन दलितों पर हो रहे जुल्मों पर उन्होंने आंखों पर पट्टी बांध ली है।

कुछ अरसा पहले पाली जिले के जाडन गांव के चुन्नीलाल की इसलिए हत्या कर दी गई कि उसने बेटी का नाम बाइसा रख दिया था। उसके इस दुस्साहस पर राजपूत उबल पड़े क्योंकि बाइसा का नाम तो उनकी बपौती है, क्यों कर दलित इसे अपना सकते हैं। इस वारदात ने पूरे परिवार को ही तबाह कर दिया। चुन्नीलाल की बीवी को सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ और वो चल बसी और बेटी पागल हो गई। पश्चिमी राजस्थान में दलितों और राजपूतों के बीच दहकती सीमा रेखा खिंच गई है। इसकी वजह दलितों का अपने नाम के आगे सिंह लगा लेना है। क्षत्रियता का अहंकार ढोते हुए लोगों को क्यों पता नहीं कि कई हस्तियां गैर क्षत्रिय होकर भी नाम के आगे सिंह लगाती रही हैं। अलवर की जाटव बिरादरी के तो सभी लोग सिंह ही लगाते हैं। जैन समुदाय के लोग भी अपने नाम के आगे सिंह लगाते हैं। राष्ट्रीय मेघवाल महासंघ के अध्यक्ष अपना नाम हनुमान सिंह रखे हुए हैं तो क्या गलत है। समाजशास्त्री इसे संस्कृतिकरण की संज्ञा देते हैं जो सदियों से चलती रही है और चलती रहेगी। ’