किसी अर्थशास्त्री ने कहा था कि खोटा सिक्का खरे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अर्थशास्त्र के इस नियम को आठ नवम्बर की रात बदल दिया। एक झटके में ऐसा काम कर दिया जो देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं समाज और लोगों के व्यवहार पर दूरगामी असर डालेगा। उन्होंने खोटे सिक्के को एक झटके में बाहर कर दिया। कालाधन और भ्रष्टाचार दशकों से देश को घुन की तरह खा रहे हैं। पर किसी प्रधानमंत्री ने उसके खिलाफ ऐसी निर्णायक कार्रवाई का साहस नहीं दिखाया। मोदी के इस कदम की तुलना 1948 और 1978 में बड़े करेंसी नोटों को बंद करने के निर्णय से नहीं की जा सकती। क्योंकि कालेधन के खिलाफ पहले की तरह उनका यह एकमात्र कदम नहीं है। सत्ता में आने के बाद पहले ही दिन से मोदी सरकार धीरे धीरे कालेधन को निकालने और उसके पैदा होने के रास्तों को बंद करने के कदम उठा रही है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक विदेशों में जमा कालेधन को लाने के लिए एसआईटी का गठन करने के बाद पंद्रह अगस्त को लाल किले से जनधन योजना की शुरुआत की घोषणा हुई। इस योजना को सामान्यत: वित्तीय समावेशन के कदम के तौर पर देखा गया। सरकार ने भी यही प्रचारित किया। पर यह एक बड़ी कार्रवाई की बुनियादी तैयारी थी। फिर बेनामी लेनदेन संबंधी कानून में बदलाव करके बेनामी सम्पत्ति पर लगाम लगाई। उसके बाद दो लाख से ज्यादा राशि का सोना खरीदने पर पैन नम्बर देना अनिवार्य करके सोने में काला धन लगाने के रास्ते को बंद किया। रियल स्टेट संबंधी सुधारों से इस क्षेत्र में कालेधन के इस्तेमाल को काफी हद तक सीमित कर दिया। माइनिंग के क्षेत्र में पहले ही सुधार करके पूरी व्यवस्था को पारदर्शी बना दिया। उसके बाद आई आईडीएस योजना। लोगों को ईमानदार बनने का एक मौका दिया गया कि कालेधन की घोषणा करो, टैक्स और पेनल्टी दो और चैन से सोओ। बार बार कहा गया कि जो इस योजना का लाभ नहीं उठाएंगे उनके लिए मुश्किल बढ़ने वाली है। पर बहुत से लोगों को लगा कि सरकार तो ऐसा बोलती ही रहती है। आठ नवम्बर की रात ऐसे लोगों को पता चल गया कि देश में निजाम बदल गया है। अब जैसे चल रहा था वैसे नहीं चलने वाला।
इस एक कदम से आतंकवाद के लिए आ रहे पैसे का स्रोत फिलहाल सूख गया है, भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों को संदेश है कि सुधर जाओ, देश की अर्थव्यवस्था कम से कम नकदी (लेस कैश) की व्यवस्था की ओर बढेगी और गरीब के हक का पैसा भ्रष्टाचारियों के हाथ में नहीं जाएगा और गया है तो काम नहीं आएगा। नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव अभियान के समय देश से अच्छे दिन लाने का वादा किया था। किसी देश के इतिहास में इससे अच्छा दिन क्या हो सकता है कि ईमानदार लोगों को अपने ईमानदार होने पर गर्व महसूस हो। पहले पाक अधिकृत कश्मीर में सेना की सर्जिकल स्ट्राइक और अब कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राइक से मोदी ने निर्णायक नेतृत्व के अपनी पार्टी के दावे को पुष्ट कर दिया है। इस एक कदम से पूरे देश में एक अजीब तरह की खुशी की लहर है। इस खुशी में भ्रष्टाचारी की बरबादी से मिले संतोष का भी पुट है। नए करेंसी नोटों की कमी से परेशानी के बावजूद लोग सरकार से सहयोग करने को तैयार हैं। अमूमन ऐसा माहौल केवल युद्ध के समय नजर आता है। किसी शहर में किसी सड़क पर चले जाइए नोट बदलवाने के लिए घंटों से लाइन में खड़े लोगों से पूछिए एक ही जवाब मिलता है- परेशानी तो हो रही है पर अच्छा काम हुआ है। मुझे याद नहीं आता कि इससे पहले कब किसी सरकारी कदम का आम लोगों में इतने उत्साह से स्वागत हुआ हो।
इस नोटबंदी के कदम से एक और बात उभर कर सामने आ रही है। इस देश का आम आदमी और विपक्षी दल दो अलग दिशाओं में चल रहे हैं। जो बात देश के आम लोगों को साफ दिखाई दे रही है वह विपक्ष को दिख ही नहीं रहा या फिर वह देखना नहीं चाहता। दोनों स्थितियां अच्छी नहीं हैं। सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया बताती है कि आज उसकी यह दुर्दशा क्यों है। सरकार के इस फैसले का विरोध करने वाली कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी और वामदल एक ही बात बोल रहे हैं कि इससे आम लोगों को परेशानी हो रही है। अब यह विचित्र बात है कि जिसकी परेशानी से ये राजनीतिक दल इतने हैरान परेशान हो रहे हैं वह कोई शिकायत ही नहीं कर रहा है। दरअसल ऐसा करके ये राजनीतिक दल अपनी परेशानी का इजहार कर रहे हैं। मोदी ने एक फैसले से बहुत कुछ बदल दिया। अब चुनाव लड़ने का तरीका ही नहीं राजनीति करने का तरीका भी बदल जाएगा। राजनीतिक दलों की परेशानी का सबब यह भी है। इन राजनीति दलों की विडंबना यह है कि ये कालेधन के खिलाफ भी दिखना चाहते हैं लेकिन दरअसल हैं उसके विरुद्ध कार्रवाई के। इसी विरोधाभास को साधने में सब हाथ से निकल रहा है।