महेंद्र पांडेय
कुछ वर्षों पहले तक वैज्ञानिक समुदाय जलवायु परिवर्तन के बारे में एकमत नहीं था, पर अब यह एक सच्चाई है। आंधी, तूफान, चक्रवात, सूखा, बिना मौसम बारिश आदि इसकी गवाही दे रहे हैं। हर साल पिछले साल से अधिक गरम होता जा रहा है। दक्षिणी ध्रुव की बर्फ अभूतपूर्व तेजी से पिघल रही है। इसीलिए अब वैज्ञानिक समुदाय इसके होने वाले प्रभावों के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
जन स्वास्थ्य को तापमान वृद्धि सीधा प्रभावित करती है, पर बात यहीं खत्म नहीं होती। सबसे बड़ा असर पोषण पर पड़ने वाला है। मछलियां समाप्त होती जा रही हैं और कृषि उत्पादन कम होने लगा है। जहां उत्पादन कम नहीं हो रहा है वहां पोषक पदार्थों की कमी होती जा रही है। पिछले दिनों एक अनुसंधान में चावल में पोषक पदार्थों में कमी की बात की गई थी। तापमान वृद्धि से गेहूं की पैदावार में कमी आ रही है। सब्जियों में पोषक पदार्थ कम होते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यदि भविष्य सुधारना है तो मांस खाना भी छोड़ना पड़ेगा।

सब्जियों में पोषक पदार्थों की कमी
लंदन स्कूल आॅफ हाइजिन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के एक अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का यही हाल रहा तो वर्ष 2050 तक विश्व में सब्जियों और दालों के उत्पादन में एक तिहाई की कमी हो जाएगी। इसका कारण बढ़ता तापमान और उससे पानी की कमी है। अध्ययन के मुख्य लेखक डॉ. पौलिन स्चील्बीक के अनुसार सब्जियों और दालों के उत्पादन में कमी का सीधा असर जन स्वास्थ्य पर पड़ेगा क्योंकि भोजन में अनेक पोषक तत्वों की कमी हो जाएगी।
डॉ. पौलिन के अनुसार उनके अध्ययन से स्पष्ट है कि तापमान वृद्धि और पानी की कमी जैसे पर्यावरणीय प्रभावों से विश्व में कृषि उत्पादकता को वास्तविक खतरा है, जिसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा और जन स्वास्थ्य पर पड़ना तय है। सब्जियां और दालें, स्वस्थ्य, संतुलित और सतत पोषण के लिए सर्वाधिक आवश्यक हैं। पोषण के दिशा निर्देश लगातार लोगों को अपने भोजन में इनको अधिक से अधिक शामिल करने का सुझाव देते हैं। ऐसे में दालों और सब्जियों के उत्पादन में कमी का सीधा असर आबादी के पोषण और स्वास्थ्य पर पड़ना तय है। डॉ. पौलिन के दल ने यह अध्ययन वर्ष 1975 के बाद इसी विषय पर प्रकाशित पूरे विश्व के शोध पत्रों के आधार पर किया है। इसीलिए इस निष्कर्ष से दीर्घकालीन अनुमान लगाना आसान है। इनके अनुसार वर्ष 2050 तक दालों के उत्पादन में 9 प्रतिशत और सब्जियों के उत्पादन में 35 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
डॉ. पौलिन के अनुसार, समय रहते ध्यान देकर इस समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकता है। इसके लिए बीजों की नई किस्मों के आविष्कार पर ध्यान देना होगा जिनका उत्पादन बढ़ते तापमान से प्रभावित न हो और जो कम पानी में भी पनप सकें। परंपरागत कृषि के तौर तरीकों में भी बदलाव लाने की जरूरत है जो सतत विकास का हिस्सा बन सकें। अभी पर्यावरण अनुकूल विकास में सबसे बड़ी बाधा कृषि है। इसलिए इसमें तत्काल परिवर्तन लाने की जरूरत है।

चावल में पोषक पदार्थों की कमी
युनिवर्सिटी आॅफ टोक्यो के प्रोफेसर कजुहिको कोबायाशी की अगुवाई में किए गए एक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे वायुमंडल में कार्बन डाईआॅक्साइड की सांद्रता बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे चावल में पोषक तत्वों की कमी होती जाएगी। यह अध्ययन साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के नए अंक में प्रकाशित किया गया है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इसी वर्ष के अप्रैल महीने में कार्बन डाईआॅक्साइड की औसत सांद्रता 410 पीपीएम से अधिक थी, जो पिछले 8 लाख वर्षों में इस गैस की वायुमंडल में सबसे अधिक सांद्रता थी। अनुमान है कि इस शताब्दी के उत्तरार्ध में इस गैस की सांद्रता 568 से 590 पीपीएम तक पहुंच जाएगी। यदि ऐसा हो गया तब चावल में प्रोटीन, विटामिन, आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाएगी। सबसे अधिक 30 प्रतिशत की कमी विटामिन बी9 में होगी। इस विटामिन को फोलेट कहते हैं और इसे गर्भवती महिलाओं को उनके और गर्भ में पल रहे बच्चे के पोषण के लिए दिया जाता है। इसी तरह प्रोटीन व आयरन में 10 प्रतिशत और जिंक में 5 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
जाहिर है कि चावल में पोषण की कमी से दो अरब से अधिक लोग प्रभावित होंगे क्योंकि इनके लिए चावल ही मुख्य भोजन है। प्रोफेसर कजुहिको कोबायाशी के अनुसार, पूरे विश्व में एक बड़ी आबादी के लिए चावल केवल कैलोरी का स्रोत नहीं है, बल्कि प्रोटीन और विटामिन का भी प्रमुख स्रोत है। एशियाई देशों में तो कृषि का आरम्भ ही धान की खेती से हुआ है और अब यह अफ्रीका के देशों में भी बड़े पैमाने पर पैदा किया जा रहा है। वर्तमान में धान की खेती अंटार्कटिक को छोड़कर शेष सभी महाद्वीपों पर और सभी प्रकार की जलवायु में की जा रही है।
कृषि वैज्ञानिक और इतिहासकार इस तथ्य से सहमत हैं कि धान की खेती चीन में शुरू की गई, पर इसका विस्तार दूसरे दक्षिण एशियाई देशों में कैसे हुआ इस पर मतभेद हैं। 17 मई को साइंस नामक जर्नल के अंक में विज्ञान लेखिका लिजी वेड ने इस विषय पर नई जानकारी दी है। उनके अनुसार बहुत पुराने मानव अवशेषों के डीएनए अध्ययन से पता चला है कि चीन के कुछ भ्रमण के शौकीन किसान दूसरे देशों की यात्रा के समय अपने साथ धान के बीज ले गए और वहां के लोगों को इसकी खेती से संबंधित जानकारी दी। इसका सीधा सा मतलब है कि दक्षिण एशियाई देशों में स्थानीय निवासियों या उनके पड़ोसी देशों को धान की खेती की जानकारी सुदूर चीन से आए मेहमानों ने दी। यूनिवर्सिटी आॅफ वाशिंगटन की प्रोफेसर क्रिस्टी इबी, जो उपरोक्त अध्ययन की सह लेखिका हैं, के अनुसार चावल में पोषक पदार्थों की कमी से करोड़ों महिलाओं और उनके बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। पोषक पदार्थों की कमी से बच्चों की सामान्य वृद्धि प्रभावित होगी, पेट की बीमारियां बढेंÞगी और मलेरिया के मामले भी बढ़ेंगे।
प्रोफेसर कजुहिको कोबायाशी के अनुसार उन्हें कार्बन डाईआॅक्साइड की बढ़ती सांद्रता से चावल में पोषक पदार्थों में कमी की आशंका वर्ष 1998 से ही थी, जब उन्होंने देखा कि खुले खेतों में पैदा किए गए चावल की गुणवत्ता और बंद ग्रीनहाउस में पैदा किए गए चावल की गुणवत्ता में अंतर होता है। बंद ग्रीनहाउस में कार्बन डाईआॅक्साइड की सांद्रता खुले स्थानों की अपेक्षा अधिक होती है। इस दल ने अध्ययन चीन और जापान के खेतों में किया। खेत का कुछ हिस्सा सामान्य रखा गया और शेष हिस्से में ग्रीनहाउस बनाकर प्लास्टिक की पाइप से कार्बन डाईआॅक्साइड की सांद्रता बढ़ाई गई।

मांस की बढ़ती खपत से संकट में पर्यावरण
प्रतिष्ठित जर्नल ‘साइंस’ के जुलाई अंक में प्रकाशित एक रिव्यू लेख के अनुसार विश्व में मांस की बढ़ती मांग के कारण पर्यावरण संकट में है। तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार कार्बन डाईआॅक्साइड गैस का उत्सर्जन बढ़ रहा है और जैव-विविधता कम हो रही है। विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है और औसत वार्षिक आय भी बढ़ रही है। इस कारण मांस का उपभोग भी बढ़ता जा रहा है। लेख के सह-लेखक यूनिवर्सिटी आॅफ आॅक्सफोर्ड के प्रोफेसर टिम के के अनुसार, मांसाहार की वर्तमान दर भी पर्यावरण के लिए घातक है और भविष्य में इसके गंभीर परिणाम होंगे। पर्यावरण के अतिरिक्त मांसाहार स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा नहीं है। इसके अधिक उपभोग से कोलोरेक्टल कैंसर और कार्डियोवैस्कुलर रोगों के खतरे बढ़ जाते हैं।
विश्व के संदर्भ में मांस की खपत पिछले 50 वर्षों में लगभग दोगुनी हो चुकी है। वर्ष 1961 में प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 23 किलोग्राम थी जो वर्ष 2014 तक 43 किलोग्राम तक पहुंच गई। इसका सीधा सा मतलब यह है कि मांस की खपत इसी दौरान जनसंख्या वृद्धि की तुलना में 4 से 5 गुना तक बढ़ गई। सबसे अधिक वृद्धि मध्यम आय वर्ग वाले देशों जिनमें चीन और पूर्वी एशिया के देश प्रमुख हैं, में दर्ज की गई है। दूसरी तरफ कुछ विकसित देश ऐसे भी हैं जहां कुछ वर्ष पहले की तुलना में मांस की खपत कम हो रही है। इंग्लैंड में ऐसा ही हो रहा है। वर्ष 2017 के नेशनल फूड सर्वे के अनुसार वहां वर्ष 2012 की तुलना में मांस की खपत में 4.2 प्रतिशत की कमी आ चुकी है जबकि मांस वाले उत्पादों में 7 प्रतिशत की कमी आई है।
संयुक्तराष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन के एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया में मांस की खपत में आज की तुलना में 76 प्रतिशत की वृद्धि होगी। मुर्गी पालन में वृद्धि दोगुनी होगी, जबकि गाय और सुअर के मांस में क्रमश: 69 प्रतिशत और 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी का अनुमान है।
समय-समय पर मांसाहार से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से भी वैज्ञानिक आगाह करते रहे हैं। वर्ष 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संसाधित (प्रोसेस्ड) मांस को कैंसरकारक पदार्थों की सूची में शामिल कर दिया है। इंग्लैंड के कैंसर रिसर्च नामक संस्था के अनुसार यदि वहां कोई संसाधित मांस और रेड मीट का सेवन न करे तब प्रतिवर्ष कैंसर के 8,800 कम मामले आएंगे।
मांस के उत्पादन में अनाजों, सब्जियों और फलों की तुलना में पानी की अधिक खपत होती है। कार्बन डाईआॅक्साइड का अधिक उत्सर्जन होता है और पर्यावरण पर अधिक बोझ पड़ता है। मानव की गतिविधियों के कारण तापमान वृद्धि करने वाली जितनी गैसों का उत्सर्जन होता है, उसमें 15 प्रतिशत से अधिक योगदान मवेशियों का है। विश्व स्तर पर पानी की कुल खपत में 92 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि में किया जाता है और इसका एक तिहाई से अधिक मांस उत्पादन में खप जाता है। वर्ष 2010 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सब्जियों के उत्पादन में पानी की औसत खपत 322 लीटर प्रति किलोग्राम है जबकि फलों के लिए यह मात्रा 962 लीटर है। दूसरी तरफ मुर्गी के मांस के लिए 4,325 लीटर, सुअर के मांस के लिए 5,988 लीटर, बकरे के मांस के लिए 8,763 लीटर और गाय के मांस के लिए प्रति किलोग्राम 15,415 लीटर पानी की जरूरत होती है।
वैज्ञानिकों की चेतावनी के बाद भी अगले कुछ वर्षों में मांस की खपत कम होगी, ऐसा नहीं लगता। यह कारोबार बहुत बड़ा है और इसमें एक बड़ी आबादी संलग्न है। फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन के अनुसार वर्ष 2016 में कुल 31.7 करोड़ मीट्रिक टन मांस का उपभोग किया गया, जिसका आर्थिक मूल्य 741 अरब डॉलर आंका गया था। खाने वाले कुल उत्पादों में मांस का योगदान 40 प्रतिशत है। इससे 1.3 अरब आबादी सीधे तौर पर जुड़ी है।
पिछले वर्ष एनवायरमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव नामक जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार तापमान वृद्धि से गेहूं, चावल और जौ जैसी फसलों में प्रोटीन की कमी हो रही है। अभी लगभग 15 प्रतिशत आबादी प्रोटीन की कमी से जूझ रही है और वर्ष 2050 तक लगभग 15 करोड़ अतिरिक्त आबादी इस संख्या में शामिल होगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व की लगभग 76 प्रतिशत आबादी अनाजों से ही प्रोटीन की भरपाई करती है। पर अब मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के कारण इनमें प्रोटीन की कमी आ रही है। इन वैज्ञानिकों ने अपने आलेख का आधार लगभग 100 शोधपत्रों को बनाया जो फसलों पर वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाईआॅक्साइड के प्रभावों पर आधारित थे।
वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2050 तक बहुत कुछ बदलने वाला है। जलवायु परिवर्तन के कारण अभूतपूर्व मानव विस्थापन होगा और बहुत सारे सागर तटीय क्षेत्र डूब चुके होंगे। पृथ्वी का एक बड़ा हिस्सा मरुभूमि बन चुका होगा। कुल मिलाकर इतना तो तय है कि दुनिया का नक्शा बदल चुका होगा। इसीलिए पूरे विश्व समुदाय को मिलकर इस समस्या पर ध्यान देना होगा तभी हम भविष्य के लिए तैयार हो सकेंगे।