कोरेगांव भीमा की घटना से फिर पुरानी राजनीति शुरू करने की कोशिश हो रही है, जो सौ साल पहले और बार-बार विफल हुई है। यह राजनीति है: कुछ जाति विशेष के हिन्दुओं को हिन्दू समाज से अलग करने और उन्हें मुसलमान/ ईसाई बनाने की राजनीति। यह इतने हाल की बात है कि इस के विविध प्रमाण मौजूद हैं। चूंकि यह तब भी विफल हुई थी, जब अछूत, हरिजन या दलित कहलाने वाले लोग आज की तुलना में अधिक पीड़ित, वंचित और दुर्बल थे; सभी हिन्दू विदेशी शासन के अधीन थे; और चर्च-मिशनरी समेत अन्य हिन्दू-विरोधी अधिक सशक्त थे।
अत: यह कहने में कोई जोखिम नहीं कि वह आज भी विफल होगी। बल्कि सोचा तो यह जा सकता है कि कौन किसे बेवकूफ बना रहा है- हिन्दू-विरोधी रेडिकल, मिशनरी आदि दलित नेताओं को या दलित नेतागण हिन्दू-विरोधी तत्वों को? क्योंकि विगत सौ वर्ष के देशी-विदेशी अनुभवों और डॉ. अंबेडकर से लेकर जगजीवन राम, कांशी राम आदि के कार्य और संदेश आदि के सामने होते आज के समर्थ दलित नेता हिन्दू और हिन्दू-विरोधी धर्म, दर्शन, जीवन और परंपरा के अच्छे-बुरे की तमीज न कर सकें, यह अस्वाभाविक लगता है।
फिर भी, यह कहना पड़ेगा कि दलित प्रश्न के प्रति हिन्दू समाज के अधिकांश नेताओं का रुख अज्ञानपूर्ण या उदासीन रहा है। यहां तक कि महात्मा गांधी, जिन्होंने अछूतोद्धार और हरिजन सेवा को काफी महत्व दिया था, उन्होंने तथा उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने कथनी के बराबर उसे करनी में नहीं उतारा। हाल में आई प्रसिद्ध तेलुगु पत्रकार एम. वी. आर. शास्त्री की पुस्तक ‘असली महात्मा’ (हैदराबाद, 2016) के सात अध्यायों, 12 से 18 में इस का प्रामाणिक विश्लेषण आया है। इस पुस्तक में (पृ. 72-120) सन्् 1919 से 1924 और बाद तक के घटनाक्रम में दिखाया गया है कि अपनी घोषणाओं में दलितों की समस्या को प्रमुखता देकर भी कांग्रेस नेतृत्व ने उसे चालू, रूटीन भाव से ही लिया या उपेक्षित सा रखा। स्वामी श्रद्धानन्द इसी बिन्दु पर कांग्रेस से क्षुब्ध होकर अलग हो गए थे। डॉ. अंबेडकर ने इस पर विस्तार से लिखा है कि लंबे समय तक श्रद्धानन्द के सिवा किसी प्रमुख कांग्रेसी ने दलितों के उत्थान के लिए पूरी लगन और जीवटता से काम नहीं किया। कहना चाहिए कि हिन्दू नेताओं की वह प्रवृत्ति आज भी कुछ वैसी ही बनी हुई है। वरना दो साल पहले रोहित वेमुला प्रकरण के बाद तो आज के हिन्दू कर्णधारों को सुध लेनी चाहिए थी कि दलितों की आड़ में हिन्दू-विरोधी राजनीति को ठंडा करने के लिए सुसंगत कार्यक्रम चलाते। पर कोरेगांव की घटना को आधार बनाकर फिर वही वैचारिक, राजनीतिक अभियान शुरू हुआ है, जो दो साल पहले हैदराबाद में रोहित की आत्महत्या के बाद हुआ था। जनवरी 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या के साथ एक नोट छोड़ा था। उस ने निजी निराशा में अपना अंत किया था। विशेष बात यह है कि उसे चोट पहुंची थी तो उन्हीं से जिनके साथ वह हाल के वर्षों में सक्रिय रहा था। यानी वामपंथी, रेडिकल, हिन्दू-विरोधी गुट! मगर इन तथ्यों की सरसरी अनेदखी कर देश-विदेश में हिन्दू-विरोधी और भाजपा विरोधी अभियान सफलतापूर्वक चलाया गया। इससे सतर्क होना चाहिए था कि हिन्दू-विरोधी ताकतें कितनी चतुर, कटिबद्ध और सुसंगठित हैं। किन्तु गांधीजी की कांग्रेस की तरह आज के भाजपाई भी वैसे ही आत्म-मुग्ध और ढीले हैं। जिस तरह गांधीजी अपनी भारी लोकप्रियता से मुगालते में रहते थे, वैसे ही भाजपा कर्णधार भी अपनी चुनावी जीतों से इतराते, सारी समस्याओं का समाधान उसी में हुआ माने रहते हैं। यह राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक स्थिति है। कई दशकों से सेक्युलर-वामपंथी मतवाद के दबाव में विविध प्रकार से भारतीय नागरिकों में विभाजक, शिकायती, स्वार्थी और उदासीन मानसिकता भरी जाती रही है। किन्हीं समुदायों को स्थायी रूप से वंचित, पीड़ित और अन्य को शोषक, धूर्त आदि कहा जाता है। इससे कभी कुछ राजनीतिक दलों को भले लाभ हुआ हो, मगर देश की घोर हानि हुई। रोहित वेमुला इसी का शिकार हुआ था। उसका अंतिम नोट ध्यान देने का विषय था, जिसे भुला दिया गया। रोहित को हिन्दू-विरोधी गुटों ने अपने साथ कर लिया था जिनसे उसे घोर निराशा हुई थी। क्या महाराष्ट्र में फिर वही छलावा दुहराने की कोशिश नहीं हो रही है?
आखिर रोहित को अपने जीवन में डॉ. अंबेडकर जितना कष्ट, अपमान तो नहीं सहना पड़ा था। तब वह क्यों विचार से ‘खाली’ हो गया? रोहित को कम्युनिस्ट और चर्च-मिशनरी संगठनों ने अपनी ओर खींचा था। लेकिन संवेदनशील रोहित ने जल्द ही उस भूल को पहचान लिया, जिसमें लोगों का ‘प्रकृति से तलाक’ हो चुका है, ‘आदमी की कीमत एक वोट’ भर हो गई है। यह कीमत किसने लगाई थी? उसकी सहृदयता थी कि उसने किसी को दोष नहीं दिया। लेकिन प्राणांत से पिछले साल दो साल की उसकी फेसबुक टिप्पणियां, गतिविधियां दिखाती हैं कि वह हिन्दू-विरोधी तत्वों के संसर्ग में था। इसी पृष्ठभूमि में उसके अंतिम पत्र में निराशाजनक टिप्पणियों का अर्थ और दलितों को हिन्दू समाज से तोड़ने की राजनीति का हश्र समझना चाहिए!
इस पर स्वयं डॉ. अंबेडकर की विरासत और चेतावनी बिल्कुल स्पष्ट है। दुर्भाग्य कि न केवल भटके हुए या स्वार्थी दलित नेता, बल्कि हिन्दू राष्ट्रवादी भी देश के नागरिकों, नई पीढ़ियों को उससे परिचित कराने की कोई परवाह नहीं करते। रोहित वेमुला या कोरेगांव जैसी घटनाएं, उनका हिन्दू-विरोधी इस्तेमाल आदि देखकर भी वे स्वामी विवेकानन्द, श्रद्धानन्द या डॉ. अंबेडकर की मूल्यवान शिक्षाओं के घर-घर प्रसार के बजाए केवल आत्म-प्रचार में डूबे रहते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने दलितों को सशक्त बनाने पर बड़ी मार्के की बातें कहीं और उपाय बताया था। उनके व्याख्यान (मद्रास) ‘भारत का भविष्य’ में उन्होंने बताया था कि दलितों के उत्थान में चैतन्य और कबीर के अद्भुत प्रयत्न बाद में ठहराव के शिकार हो गए। क्योंकि उन्होंने दलितों को संस्कृत शिक्षा की ओर प्रवृत्त न किया। विवेकानन्द के अनुसार भारत में संस्कृत ज्ञान बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शक्ति और आदर की कुंजी है। यदि दलित युवा संस्कृत और इसमें उपलब्ध ज्ञान पर अधिकार करें तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा स्वत: बढ़ जाएगी- यह भारत की विशेषता है। रोचक बात यह कि डॉ. अंबेडकर ने भी इसका महत्व समझा था और देश की राजकीय भाषा संस्कृत बनाने का सुझाव दिया था। किंतु दुर्योगवश एक वोट से संविधान सभा ने संस्कृत के बदले हिन्दी को स्वीकृति दी। उसका क्या नतीजा हुआ, यह अलग विषय है, पर यहां इतना ही प्रासंगिक है कि दलित उत्थान और हिन्दू एकता के लिए सच्चे मनीषियों, कर्मयोगियों की शिक्षा और अनुभव को भुला दिया गया। अपने को हिन्दू हितैषी कहने वाले भी अपने संगठन और पार्टी में ही उलझे रहते हैं। विगत दो सालों में भाजपाइयों ने जितना सरकारी, सार्वजनिक धन और समय अपने पार्टी नेताओं को महान बताने, प्रचारित करने में लगाया, उसका शतांश भी स्वामी विवेकानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द या डॉ. अंबेडकर की उन शिक्षाओं को प्रसारित करने में नहीं लगाया जो दलितों को हिन्दू धर्म-समाज की तुलनात्मक महत्ता बताती हैं।
डॉ. अंबेडकर ने सन् 1935 में ही घोषणा की थी कि वे हिन्दू धर्म में पैदा हुए हैं, किन्तु हिन्दू मरेंगे नहीं। तभी से उन्हें ईसाई या मुसलमान बनाने के बहुत प्रयास हुए। किन्तु डॉ. अंबेडकर उनसे दूर रहे। अंतत: जब अक्टूबर 1956 में उन्होंने हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा की, तो बौद्ध बने। इससे ईसाई मिशनरियों और इस्लामी तबलीगियों को घोर निराशा हुई। उनकी निराशा इस दृष्टि से और गहरी थी कि डॉ. अंबेडकर ने सबको ईसाइयत और इस्लाम से दूर रहने की चेतावनी भी दी थी। उनके शब्दों में, ‘बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है, और इसलिए मेरा धर्मांतरण भारतीय संस्कृति और इतिहास को क्षति न पहुंचाए, इसकी मैंने सावधानी रखी है।’ इसमें साफ संदेश था कि किसी विदेशी धर्म में धर्मांतरण भारतीय संस्कृति और इतिहास को चोट पहुंचाता है। यह डॉ. अंबेडकर का वह मूल्यवान संदेश है, जिसमें वे इस्लाम-ईसाइयत की तुलना में हिन्दू-धर्म को श्रेष्ठ बताते हैं।
चूंकि देश के प्रथम कानून मंत्री तथा प्रमुख संविधान निर्माता, दोनों रूप में डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध, जैन और सिखों को हिन्दू माना था (धारा 25), यह भी दिखाता है कि उन्होंने अपने को सचेतन ‘हिन्दू’ बनाए रखा। इसीलिए मिशनरियों ने सही महसूस किया कि डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू धर्म को छोड़ा नहीं। बौद्ध दीक्षा लेने के दूसरे दिन, 15 फरवरी 1956 को अपने भाषण में डॉ. अंबेडकर ने ईसाइयत, इस्लाम आदि के उदाहरण देकर कहा था कि वे ‘भेड़ चाल’ वाले हैं। वे ‘एक ईश्वर-पुत्र’, ‘एक दूत-पैगंबर’ जैसे जड़ अंध-विश्वासों का दावा करते हैं। जिनके ‘अंधे अनुयायियों’ का काम बस यह है कि उस दूत के गीत गाता रहे। उन धर्मों के चिंतन, दर्शन में भोग, लोभ और संपत्ति-प्रेम ही केंद्रीय लालसा है। मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कोई चिंता नहीं है। वे सब सारत: ‘खाओ, पियो और मौज करो’ से अधिक कुछ नहीं कहते। जबकि बौद्ध धर्म विवेक पर आधारित है। यह किसी के गले में ‘कुत्ते के पट्टे’ जैसी मजहबी पहचान नहीं बांधता।
ये सब अत्यंत मर्मभूत बातें थीं, जिसे सार्वजनिक रूप से कहकर डॉ. अंबेडकर ने दलितों को वस्तुत: हिन्दू धर्म-परंपरा से जुड़े रहने की ही शिक्षा दी थी। वह कोई अपवाद प्रसंग न था। हिन्दू धर्म के शत्रु मतवादों के सामने डॉ. अंबेडकर सदैव हिन्दू धर्म का बचाव करते थे। बौद्ध-धर्म में भी वे हिन्दू ज्ञान का अवदान मानते ही थे। दुर्भाग्यवश, उन्हें यह परखने का समय न मिला कि हिन्दू समाज में कई कुरीतियां हिन्दू धर्म का अंग नहीं, बल्कि विदेशी शासनों के दुष्काल में आए दुर्गुण हैं। इसीलिए इन्हें दूर करने के लिए स्वामी दयानन्द के धर्म-सुधार आंदोलन को संपूर्ण देश में भारी समर्थन मिला था। उनके ‘आर्य समाज’ ने जाति-प्रथा के दुर्गुणों का संशोधन करने में बड़ी भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के बाद छुआ-छूत को दंडनीय बनाने तथा दलित-उत्थान के लिए अनगिन कदम उठाने में हिन्दू समाज ने पूर्ण सहयोग दिया। यह सब डॉ. अंबेडकर ने नोट भी किया था। उनके शब्दों में, ‘हिन्दुओं में सामाजिक बुराइयां हैं। किंतु एक अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और उसे दूर करने में सक्रिय लोग भी हैं। जबकि मुस्लिम यह मानते ही नहीं कि उनमें बुराइयां हैं और इसलिए उसे दूर करने के उपाय भी नहीं करते।’
यह सभी अनुभव और ज्ञान दलितों समेत संपूर्ण हिन्दू समाज में फैलाए जाने चाहिए। तभी हर प्रकार के भ्रमित, मतवादी कुशिक्षित हिन्दू समझ सकेंगे कि किसी हिन्दू को हिन्दू समाज से अलग करने, तोड़ने का तार्किक परिणाम उसे निर्बल करना है। भारतीय ज्ञान-परंपरा के जीवंत स्रोत से अलग करना है। ताकि उन्हें साम्राज्यवादी मतवादों, मजहबों का शिकार बनाना आसान हो।
जिस तरह से किसी भी घटना को ‘दलित पर अन्याय’ कह कर राजनीतिक अभियान चलाया जाता है, उससे देश की रुग्ण बौद्धिक स्थिति पर भी सोचना चाहिए। हमारे कर्णधार इसे महत्व नहीं देते और केवल चुनावी या दलीय जीत को पर्याप्त मान लेते हैं। हिन्दू-विरोधी ताकतें अत्यधिक अनुभवी, सतर्क, संपन्न, धैर्यवान और कटिबद्ध हैं। इसीलिए वे मामूली घटना को भी हिन्दू-विरोधी धार देने, प्रचारित करने में सफल हो जाते हैं।
इसके विपरीत हिन्दू नेता इसके प्रति लापरवाह रहते हैं। वे विमर्श की केटेगरी, शब्दावली बदलने की कोशिश नहीं करते और हिन्दू-विरोधी तत्वों द्वारा खड़ी की गई दुष्टतापूर्ण शब्दावली ही अपना लेते हैं। यहां विमर्श में किसी भी प्रसंग में ‘दलित’, ‘मुस्लिम’, ‘वामपंथी’, ‘मराठी’ आदि विशेषण नियमित उपयोग होते हैं। इसकी तुलना में ‘राष्ट्रीय’, ‘हिन्दू’, ‘मानवीय’, ‘सामाजिक’, ‘भारतीय’ जैसे विशेषणों के साथ सहज टीका-टिप्पणी नगण्य रहती है। अर्थात हमारे नेताओं, बुद्धिजीवियों में विभाजनकारी मानसिकता का प्रभाव अधिक है। हिन्दू नेताओं, सगंठनों ने इस प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष नहीं किया। उलटे वे भी उसी शब्दावली को अपना कर बात करते हैं। यह एक कारण है कि जब कोई हिन्दू-विरोधी अभियान शुरू होता है तो वे बेबस हो जाते हैं।
हमेशा अपने लिए कुछ लेने और धर्म, समाज की अनदेखी हिन्दू भावना या देशभक्ति नहीं है। लेकिन हमारा राजनीतिक-बौद्धिक विमर्श इसी भाव से चलता और इसे पोषित करता है। इसी पर अहंकार भी पालता है कि वह अमुक वर्ग या समुदाय के लिए लड़ रहा है। उसे समझ तक नहीं कि इस प्रवृत्ति से देश की एकीकृत समझ पर ही चोट पड़ती है!
धर्म और देश से पहले किसी न किसी वर्ग या समुदाय की झक से ही विभाजक नारों को प्रोत्साहन मिला है। यही मानसिकता देश की बौद्धिकता पर हावी है, जो आइडिया आॅफ इंडिया की ऐसी अवधारणा करती है जिस में देश के टुकड़े करना भी शामिल है। यह दिखाता है कि हमारा आम राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग कितना अबोध है। उसे न तो 1947 के भारत-विखंडन से उपजी भयावह, अंतहीन समस्याओं की समझ है, न दुनिया के हालात, न देश के अंदरूनी-बाहरी शत्रुओं की शक्ति या कटिबद्धता की। इस अबोधावस्था में ही हमारे अनेक नेता और बुद्धिजीवी केवल दलीय, सामुदायिक, वर्गीय प्रचार चलाते रहते हैं। इस तरह देश की जड़ में मट्ठा डालते रहते हैं। हमारा चालू विमर्श पार्टी-बंदी पर आधारित है। इस स्थिति में भारत के विकास की बातें भारी आत्म-छलना हैं। अनेक प्रभावशाली बुद्धिजीवी और नेता अपने मतवादी, दलगत या संकीर्ण स्वार्थ के सिवा प्राय: कोई बड़े मापदंड नहीं रखते। इसीलिए 1989 में कश्मीरी हिन्दुओं की रक्षा करने कोई नहीं आया! वरना वह एक निर्णय और चार दिन का काम था। वह प्रसंग भी देश-हित को पीछे रखने और बौद्धिक-राजनीतिक नासमझी का ही उदाहरण था।
ऐसे राजनीतिक बौद्धिक चलन में अपनी धर्म-संस्कृति, कर्तव्य की चेतना और देश की चिन्ता नहीं है। अधिकांश नेता और बुद्धिजीवी सत्ता, सुख-सुविधा पाने, उसे भोगने के सिवा किसी कठिन कार्य को करना तो क्या, देखने से भी मुंह चुराते हैं। यह हालत विकास है या ह्रास? हम भारत के असंख्य लोग देश के अंदर ही दुष्ट, अत्याचारी, धूर्त और अतिक्रमणकारियों के सामने असहाय बने रहते हैं। बंगाल से लेकर केरल तक ऐसी घटनाएं रोज हो रही हैं। आक्रमण, अत्याचार केवल बाहरी सैनिक हमलों से ही नहीं होता। वह नियमित उग्र बयानबाजी, आतंकी हमले, जनसांख्यिकी प्रहार, संगठित धर्मांतरण, जाति-धर्म देखकर पीड़ित की उपेक्षा, पुलिस व्यवस्था का लचरपन आदि कितने तरह से हो रहा है। हमारे बुद्धिजीवी और मीडिया इन अत्याचारों पर सोचने के बजाए किसी न किसी दलीय राजनीति में लग पड़ते हैं। इससे सीधी हानि देश को होती है।
जिस देश के अनेक नेता और बुद्धिजीवी विभाजक मानसिकता में जीते हों, उसका किसी दूरगामी, व्यवस्थित, संगठित प्रहार से बचना कठिन है। अब तक भारत की विशाल हिन्दू आबादी ही इसकी अंतिम सुरक्षा के रूप में काम आ रही है। लेकिन जिस कटिबद्धता से उसे मजहब, जाति, भाषा, आरक्षण, विचारधारा, पार्टी, आदि नाम पर निरंतर तोड़ा जा रहा है, उसी का कुफल है कि किसी भी बिन्दु पर राष्ट्रीय, मानवीय, स्वतंत्र दृष्टि से सोचने-विचारने-करने वाले कम होते जा रहे हैं।
इसके संभावित दुष्परिणामों पर गंभीरता से और दलीय स्वार्थ से उठकर सोचना चाहिए। उन तमाम शत्रु शक्तियों, विचारधाराओं और देसी-विदेशी कुटिल संगठनों, समीकरणों की पृष्ठभूमि में, जिन्हें भारत लंबे समय से झेल रहा है। कई राष्ट्रवादी, लोकप्रिय नेताओं को भी इसकी पर्याप्त समझ नहीं है। नहीं तो राष्ट्रवादी कहलाने वाले दलित भी ऐसे निष्क्रिय न रहते। मानो उनके लिए कोई कर्तव्य ही न था! जिस घटना, दुर्घटना में हिन्दू धर्म-समाज का कोई दोष नहीं, वह भी इनके माथे मढ़ दिया जाता है। यह राष्ट्रवादियों की वैचारिक दुर्बलता के कारण ही होता है। उन्हें समय रहते इस पर ध्यान देना चाहिए।