बनवारी

जिस समय केंद्र सरकार और भारतीय सेना पूरी गंभीरता से कश्मीर में आतंकवादियों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, कश्मीर के नेताओं ने एक बार फिर अलगाववादी भाषा बोलनी शुरू कर दी है। कश्मीर की राजनीति में अब दो ही प्रभावी राजनीतिक परिवार रह गए हैं। मुफ्ती परिवार की प्रतिनिधि महबूबा मुफ्ती राज्य की मिलीजुली सरकार की मुख्यमंत्री हैं और अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी के उमर अब्दुल्ला विपक्ष के सबसे बड़े नेता हैं। दोनों ने ही अनुच्छेद 35(ए) के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई याचिका को लेकर जिस तरह की भाषा बोलनी शुरू की है, वह अत्यंत आपत्तिजनक है। महबूबा मुफ्ती जिस सरकार की मुखिया हैं उसका एक घटक केंद्र की सत्ता में है। इसके बावजूद उन्होंने कहा कि अगर अनुच्छेद 35(ए) से छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर घाटी में तिरंगा थामने वाला कोई नहीं मिलेगा। यह द्रोह की भाषा है और इस तरह की भाषा बोलने का अधिकार संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति को नहीं होना चाहिए। अब्दुल्ला परिवार भी काफी आक्रामक भाषा बोल रहा है। महबूबा मुफ्ती अब्दुल्ला परिवार से अपनी राजनीतिक दुश्मनी छोड़कर मिल आई हैं और चाहती हैं कि दोनों परिवार इस मुद्दे पर साथ रहें।
संविधान के अनुच्छेद 35(ए) का मामला केंद्र सरकार के नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। उसे लेकर राजनीतिक प्रश्न तो उठते ही रहे हैं, अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां भी सामने आई हैं। सर्वोच्च न्यायालय कोई राजनीतिक संस्था नहीं है। उसे संविधान के दायरे में और जम्मू-कश्मीर सहित देश के सभी नागरिकों के हित और अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में फैसला करना है। जम्मू-कश्मीर की सरकार, वहां के सभी राजनीतिक दलों और नेताओं को न्यायालय के सामने अपना पक्ष रखने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय की स्वायत्तता और निष्पक्षता के बारे में कभी किसी ने कोई शिकायत नहीं की। इन सबके बाद भी जिस तरह की भाषा इन दोनों राजनीतिक परिवारों की ओर से इस्तेमाल की जा रही है, उससे राजनीतिक मर्यादाओं के बारे में गंभीर प्रश्न पैदा होते हैं। क्या लोकतंत्र के नाम पर अलगाववाद भड़काने की स्वतंत्रता दी जा सकती है? यह राजनीतिक मर्यादा का प्रश्न है और इस बारे में सभी राष्ट्रीय दलों और नेताओं को गंभीरता से सोचना चाहिए। कोई भी लोकतंत्र राजनीतिक स्वेच्छाचार से नहीं चल सकता। उसके लिए राजनीतिक मर्यादाएं बनानी पड़ती हैं और उनका पालन करना पड़ता है। लोकतंत्र में अमर्यादित राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की छूट नहीं होनी चाहिए।
कश्मीर के मामले में यह बात और भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि कश्मीर समस्या अधिकांशत: नेताओं और दलों द्वारा ही पैदा की गई है। कश्मीरी अलगाववाद का जनक तो अब्दुल्ला परिवार ही है लेकिन पिछले तीन दशक से मुफ्ती परिवार की भी उसमें उतनी ही भूमिका रही है। यह सब जानते हैं कि देश की आजादी के समय आम कश्मीरियों में अलगाव की कोई भावना नहीं थी। पाकिस्तान के नेताओं को यह गलतफहमी अवश्य थी कि कश्मीर घाटी के लोग मुसलमान होने के कारण भारत में रहना नहीं चाहेंगे। यही सोचकर उसने कश्मीर पर आक्रमण किया था और उम्मीद की थी कि उसके भेजे कबाइलियों और उनके भेष में आए पाकिस्तानी सैनिकों के पहुंचते ही घाटी में विद्रोह शुरू हो जाएगा और पाकिस्तान कश्मीर को भारत से छीन लेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पाकिस्तानी आक्रमण को असफल करने में सेना के साथ-साथ स्थानीय नागरिकों की भी बड़ी भूमिका थी। अलगाव कश्मीर के नागरिकों में नहीं था, शेख अब्दुल्ला और उनके परिवार के मन में था। शेख अब्दुल्ला कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाने और उस पर राज करने का सपना देखते रहे और अपने इस सपने की पूर्ति के लिए कश्मीर में अलगाववादी भावनाएं भड़काते रहे।
शेख अब्दुल्ला की राजनीतिक शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई थी। वे अपने आपको एक प्रगतिशील मुसलमान मानते थे। उनकी प्रगतिशीलता का अर्थ था राजा-महाराजाओं का विरोध। उन्होंने तीस के दशक में कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस बनाई थी। लेकिन अन्य समुदायों के सहयोग के बिना वे कश्मीर की राजशाही के विरुद्ध कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा कर सकते थे। 1933 में उन्होंने दूसरे समुदायों से बात करने के लिए अपने दल की एक समिति गठित की। लेकिन दूसरे समुदायों को उन पर भरोसा नहीं था और बात आगे नहीं बढ़ी। 1937 में उनकी भेंट जवाहर लाल नेहरू से हुई और दोनों के विचारों में एकता का आधार राजशाही के विरुद्ध एक जैसी भावनाएं थीं। जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें अपने संगठन का नाम बदलने का सुझाव दिया। अगले वर्ष उन्होंने मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम बदलकर नेशनल कांफ्रेंस कर दिया और यहीं से उन्हें जवाहर लाल नेहरू का समर्थन मिलना शुरू हो गया। 1946 में उन्होंने डोगरा राज परिवार के विरुद्ध कश्मीर छोड़ो आंदोलन छेड़ा। उन्हें पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया। जवाहर लाल नेहरू ने न केवल उन्हें जेल से छुड़वाया बल्कि 1948 में राज्य का प्रधानमंत्री बनवा दिया। अपने इस निर्णय के लिए बाद में जवाहर लाल नेहरू को पछताना पड़ा।
शेख अब्दुल्ला भारत और पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र कश्मीर का सपना देख रहे थे। वास्तव में वे केवल कश्मीरी मुसलमानों के नेता थे, लेकिन बाकी लोगों को साथ लेने के लिए उन्होंने कश्मीरियत का नारा दिया। कश्मीरी राष्ट्रवाद जैसी कोई अलग भावना उस समय नहीं थी। उस समय की परिस्थितियों में ऐसी कल्पना करना संभव ही नहीं था। लेकिन जवाहर लाल नेहरू को कश्मीरियत का नारा प्रभावशाली लगा। जवाहर लाल नेहरू यह नहीं देख पाए कि कश्मीर के मुसलमानों को केंद्र बनाकर चलने वाली कोई भी राजनीति पूरे जम्मू-कश्मीर को नहीं समेट सकती। शेख अब्दुल्ला की दृष्टि शुरू से ही सांप्रदायिक थी। अंतत: 1953 में जवाहर लाल नेहरू को उन्हें जेल भिजवाना पड़ा। नेशनल कांफ्रेंस के दूसरे नेताओं को लेकर सरकार चलती रही। लेकिन नेहरू परिवार फिर भी अब्दुल्ला परिवार से सम्मोहित बना रहा।
एक दशक बाद उन्हें जेल से निकालकर पाकिस्तान भेजा गया कि वे अयूब खां से भारत-पाक महासंघ और कश्मीर समस्या के हल पर बात कर सकें। वास्तव में न शेख अब्दुल्ला की इसमें कोई रुचि थी न पाकिस्तान की। 1964 में जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु हो गई। उसके बाद भी कांग्रेस के नेताओं की अब्दुल्ला परिवार से दोस्ती-दुश्मनी चलती रही। जवाहर लाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला का कद काफी बढ़ा दिया था। बाद में वे उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश करते रहे। इसी कोशिश में कश्मीर की राजनीति बिगड़ती चली गई। जवाहर लाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के प्रभाव में अनुच्छेद 370 संबंधी प्रावधान स्वीकार किए थे। वह और अनुच्छेद 35(ए) आज तक एक जबरदस्ती खोद दी गई खाई की तरह है। कश्मीर भारत का अंग होते हुए भी राजनीतिक अलगाव में धकेला जाता रहा है। शेख अब्दुल्ला के मुकाबले फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला की भूमिका बेहतर रही है। लेकिन कश्मीर की प्रतिस्पर्धी राजनीति में वे भी जब तब अलगाववादी भावनाएं भड़काने को मजबूर होते रहे हैं। मुफ्ती मोहम्मद सईद 1950 में ही प्रदेश की राजनीति में आ गए थे। उनका राजनीतिक कौशल सरकारों में बने रहना था। इसके लिए वे राजनीतिक दल और विचार बदलते रहे। उनका काफी समय कांग्रेस में बीता। फिर वे विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ कांग्रेस से अलग हुए और देश के पहले मुस्लिम गृह मंत्री बन गए। 1999 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई। राज्य में 1986 के चुनाव में हुई धांधली में उनकी मुख्य भूमिका थी। उसके बाद प्रदेश की राजनीति बिगड़ती चली गई। 1990 से 1996 तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। इसी दौर में आतंकवाद की नींव मजबूत हुई। जब प्रदेश के लोगों का नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस से मोहभंग हो रहा था, मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अलगाववादी राजनीतिक भाषा को एक नया मुहावरा दिया और अपना राजनीतिक आधार खड़ा कर लिया। मुफ्ती मोहम्मद सईद की मृत्यु के बाद भाजपा से गठजोड़ के जरिये महबूबा सरकार चला रही हैं। भाजपा का हाथ थामने के कारण उन्हें जो राजनीतिक परेशानी होती है, उसे वे जब तब की गई अलगाववादी टिप्पणियों से दूर करने की कोशिश करती हैं।
नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की राजनीति में केंद्रीय भूमिका देने के दो और परिणाम हुए थे। एक यह कि कश्मीर की राजनीति कश्मीर के मुसलमानों पर ही केंद्रित रही। जम्मू और कश्मीर में पर्याप्त संख्या में होते हुए भी हिंदुओं की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिक जैसी ही रही है। उनके साथ निरंतर भेदभाव होता रहा पर वह कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बना। दूसरेकश्मीर घाटी को अनुपात से अधिक महत्व दिया जाता रहा। जम्मू क्षेत्र के राजनेताओं को कभी उभरने नहीं दिया गया। जम्मू क्षेत्र के एकमात्र कद्दावर नेता गुलाम नबी आजाद हैं लेकिन कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में होते हुए भी वे राज्य की राजनीति में हाशिये पर ही रखे गए हैं। जम्मू के हिंदू नेताओं की तो वैसे भी निरंतर उपेक्षा होती रही है। जम्मू क्षेत्र में पहले कांग्रेस और अब भाजपा का प्रभाव है। भाजपा सरकार में है लेकिन फिर भी जम्मू के नेताओं की कोई विशेष पहचान नहीं बन पाई है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद जम्मू और उसके नेताओं को महत्व देने की कोशिश अवश्य हो रही है, लेकिन अब तक उनके साथ जो भेदभाव होता रहा है उसे एकदम दूर नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान के नेताओं और कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत सफल न होने के बाद केंद्र सरकार ने कश्मीर में आतंकवाद की समाप्ति के लिए वैकल्पिक रणनीति पर काम करना शुरू किया है। सीमापार से घुसपैठ की कोशिश सेना की जवाबी कार्रवाई से मुश्किल होती जा रही है। घाटी के आतंकवादी नेताओं को चुन-चुनकर समाप्त किया जा रहा है। गिलानी के तंत्र को अब तक मिलते रहे बाहरी पैसे की छानबीन चल रही है।
इस बार केंद्र सरकार कश्मीर की आतंकवादी शक्तियों को समाप्त करने में जितनी दृढ़ संकल्प दिखाई दे रही है, पहले की सरकारों ने नहीं दिखाई। इससे गृह मंत्री राजनाथ सिंह की इस टिप्पणी की विश्वसनीयता बनती है कि 2022 तक सरकार कश्मीर से आतंकवादी शक्तियों को समाप्त करने में सफल हो जाएगी। लेकिन ठीक ऐसे समय अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार अनुच्छेद 35(ए) को लेकर अलगाववादी भावनाएं भड़काने में लगे हैं। 1988-89 में जब कश्मीर घाटी में पंडितों की हत्याएं हो रहीं थीं और उन्हें घाटी से खदेड़ा जा रहा था, यह दोनों परिवार सत्तासीन थे। फारूक अब्दुल्ला राज्य के मुख्यमंत्री थे और मुफ्ती विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के गृह मंत्री। पंडितों को सुरक्षा देने की बजाय वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे। पंडितों के खदेड़े जाने से कश्मीर के जन-भूगोल में हुए परिवर्तन पर इन दोनों परिवारों को कभी ग्लानि नहीं हुई। आज जब अनुच्छेद 35(ए) सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है, उन्हें इसमें कश्मीर का जन-भूगोल बदलने का षड्यंत्र दिखाई दे रहा है।
कश्मीर में आतंकवाद का ही नहीं, अलगाववादी राजनीति का भी यह अंतिम दौर है। आने वाले समय में यह दोनों ही परिवार निरर्थक होने वाले हैं। आतंकवादी और अलगाववादी राजनीति जबरन कश्मीर को भारत की मुख्यधारा से अलग-थलग किए रही है और आम कश्मीरियों को हिंसा में उलझाए रही है। अब इसका समय शेष हो चला है। कश्मीर के लोगों में देश की मुख्यधारा में लौटने की ललक है। यह लक्ष्य जल्दी पाया जा सके, इसके लिए आवश्यक है कि कश्मीरी राजनेताओं की भाषा मर्यादित हो। कश्मीर को उनकी अलगावादी राजनीतिक भाषा से दूर किए बिना वह माहौल नहीं बनेगा जिसमें आम कश्मीरियों के देश की मुख्यअनुच्छेद में आने की संभावना बने। अगर महबूबा को या उमर अब्दुल्ला को अलगाववादी भाषा बोलते रहने की छूट दी जाती रही तो कश्मीर में जब सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं, वे कुछ और लंबे खिंच जाएंगे। कश्मीर के राजनेताओं और उनकी भाषा को मर्यादित करने का काम केवल राजनीतिक तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता। उसके लिए समाज के दूसरे वर्गों से दबाव बनना चाहिए। समाज के भीतर से भी राजनीतिक मर्यादाएं बनाने की पहल होनी चाहिए। 