पिछले दिनों भ्रष्टाचार के मामले में नवाज शरीफ को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनकी जगह पार्टी में उनके खास शाहिद खाकान अब्बासी पाकिस्तान के अंतरिम प्रधानमंत्री बने। वहीं पनामा केस में पक्षकार और तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष इमरान खान अश्लीलता से जुड़े एक मामले में सुर्खियों में हैं। इसी दौरान आतंकी सरगना हाफिज सईद ने मिल्ली मुस्लिम लीग पार्टी बनाकर देश की चुनावी राजनीति में उतरने का ऐलान कर दिया। अगले साल पाकिस्तान में संसदीय चुनाव होने हैं। वहां बदलते राजनीतिक घटनाक्रम क्या सैन्य शासन की आहट है? क्या पाकिस्तान की मौजूदा सियासत का असर भारत पर भी पड़ेगा? इन्हीं तमाम मुद्दों पर पाकिस्तान में भारतीय उच्चायुक्त रहे जी. पार्थसारथी से अभिषेक रंजन सिंह ने बातचीत की। प्रस्तुत हैं उनके मुख्य अंश…

पनामा पेपर मामले में नवाज शरीफ को सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्य ठहराया और उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। शाहिद अब्बासी को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया। आपको क्या लगता है कि इससे पाकिस्तान का राजनीतिक संकट खत्म हो जाएगा या फिर सैन्य शासन की आहट है?
मेरे ख्याल से भ्रष्टाचार के मामले में नवाज शरीफ को जिस तरह निशाना बनाया गया है, वह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। आप शुरू से इस मामले को देखिए कहीं न कहीं कुछ संदेह पैदा तो होता है। पनामा पेपर लीक मामले में मुख्य पक्षकार और तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के प्रमुख इमरान खान ने सिर्फ नवाज शरीफ और उनके परिवार के लोगों को निशाना बनाया। जबकि इस मामले करीब 200 लोगों के नामों का जिक्र था। उनके खिलाफ तो कोई मुकदमा उन्होंने कायम नहीं किया। इमरान खान को इस मामले में सेना का पूरा सहयोग मिला और उनके इशारों पर ही नवाज शरीफ को टारगेट किया गया। जहां तक पनामा पेपर का मामला है तो यह कोई आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भी यह बात कही है। हालांकि अपने चुनावी हलफनामे में नवाज शरीफ ने कई बातें गुप्त रखीं ऐसा कोर्ट का कहना था। यह पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत का फैसला है और इस बारे में हमारी टिप्पणी का कोई मतलब नहीं है। लेकिन पाकिस्तान में कई लोग इस फैसले पर सवाल उठा रहे हैं। मेरी समझ में यह नहीं आता कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ जिनका पाकिस्तान और दूसरे मुल्कों में कारोबार भी है, वह शख्स महज दस हजार दरहम जो पाकिस्तानी रुपये में ढाई लाख रुपये है, इसकी जानकारी क्यों छुपाएगा? सुप्रीम कोर्ट में तो उन्होंने कहा कि हमने कोई पैसे लिए ही नहीं हैं तो इसकी जानकारी क्यों दें। दरअसल, पाकिस्तान के लोकतंत्र का आधा हिस्सा तो सैन्य शासन में ही बीता है। अगर वहां कोई चुनी हुई सरकार चलती भी है तो वह सेना की मर्जी से। चाहे वहां जिनकी भी सरकारें रही हों पाकिस्तान की न्यायपालिका को भी पूरी तरह निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। वहां सेना और न्यायपालिका में अंदरूनी तालमेल है। इसके कई उदाहरण हैं, मसलन पाकिस्तान में जितनी बार चुनी हुई सरकार को अपदस्थ कर सैन्य शासन रहा। चाहे वह जनरल जिया उर रहमान हों, याहया खान हों या फिर जनरल परवेज मुशर्रफ। उन्होंने अपनी मर्जी से पाकिस्तान में हुकूमत की। पाकिस्तान में यह कैसी न्यायपालिका है, जो तख्तापलट को भी संवैधानिक मान्यता देती है? पाकिस्तान में अब तक हुए तख्तापलट और सैन्य शासन को वहां की शीर्ष न्यायपालिका ने मान्यता दी। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है, जब वहां की सुप्रीम कोर्ट इसे लेकर कोई आपत्ति दर्ज की हो। बलूचिस्तान के मामले में भी पाकिस्तानी न्यायपालिका का रवैया सही नहीं है। पृथक बलूचिस्तान की मांग करने वाले लोगों पर सेना और आईएसआई का जुल्म कोई नया नहीं है। बलूच राष्ट्रवादी नेता रहे नवाब अकबर खान बुग्ती समेत उनके समर्थकों को जनरल मुशर्रफ के शासन के दौरान जिस बेरहमी से कत्ल किया गया, उसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है। लेकिन इस मामले में भी न्यायपालिका ने गंभीर संज्ञान नहीं लिया। बलूचिस्तान में आए दिन लोगों को अगवा कर लिया जाता है और बाद में उसकी लाश मिलती है। इन बलूचियों की हत्या में सीधे तौर पर सेना शामिल है, लेकिन पाकिस्तान की न्यायपालिका ने सेना को कभी सख्त निर्देश नहीं दिया। कहने का मतलब यह है कि पाकिस्तान की राजनीति में सेना का दखल इतनी बढ़ गई है कि इससे मुक्त होना लगभग नामुमकिन है। कमोबेश न्यायपालिका पर भी सेना की छाया दिखती है। नवाज शरीफ की सत्ता जाने के बाद पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता तो जरूर पैदा हो गई है, लेकिन वहां सत्ता की कमान फिलहाल सेना अपने हाथों में लेगी ऐसा नहीं लगता। अगले साल पाकिस्तान में नेशनल असेंबली के चुनाव होने हैं इसलिए सेना इतनी जल्दी नहीं करेगी। बेशक वह राजनीतिक हालात और जनता के मिजाज का आकलन करेगी।

अपने शपथ ग्रहण के बाद प्रधानमंत्री शाहिद खाकाम अब्बासी ने कहा कि वह भारत के साथ बेहतर संबंध चाहते हैं। साथ ही उन्होंने बातचीत के जरिये कश्मीर समस्या सुलझाने की भी बात कही है। भारत के संदर्भ में उनके इस बयान की कितनी अहमियत है?
वैसे, देखा जाए तो पाकिस्तान के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने भारत के साथ तनाव खत्म करने और दोस्ताना संबंध स्थापित करने की बातें कही हैं। समय-समय पर विपक्षी पार्टियों के नेता भी आपसी कड़वाहट समाप्त करने की बातें करते हैं। लेकिन उनके बयान से तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता। भारत के साथ रिश्ते मधुर हों, यह वहां की सरकार के बस की बात नहीं है। अगर पाकिस्तानी सेना और आईएसआई चाहेगी तभी इस दिशा में कोई सार्थक पहल होने की उम्मीद है। यहां सवाल उठता है कि आखिर पाकिस्तान फौज ऐसा चाहेगी क्यों? वह तो भारत को जन्मजात अपना शत्रु मानती है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के लिए कहना तो आसान था कि वह भारत के साथ बेहतर संबंध की इच्छा रखते हैं, लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि आतंकवाद और शांति की प्रक्रिया एक साथ नहीं चल सकती। कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ और उन्हें हथियारों की आपूर्ति एवं प्रशिक्षण पाकिस्तानी सेना देती है। पाकिस्तानी आर्मी और आईएसआई कश्मीर में जारी घुसपैठ और हिंसक वारदात को आतंकवाद नहीं मानती। उसकी नजरों में यह तहरीक-ए-आजादी है। भारत के साथ बेहतर संबंध बनाने की कोशिश पाकिस्तान की जिन सरकारों में हुआ उसका हश्र देखें क्या हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में इसकी कोशिश हुई। लाहौर में वाजपेयी और नवाज शरीफ मिले और बातें भी हुर्इं, लेकिन उसकी परिणति क्या हुई, सभी को पता है। प्रधानमंत्री अब्बासी ने भारत के साथ संबंध सुधारने की जो बातें कही हैं उसका कोई मतलब नहीं है। अगर पाकिस्तान वाकई भारत के साथ मित्रवत संबंध की इच्छा रखता है तो सबसे पहले उसे भारत के खिलाफ आतंकवाद और छद्म युद्ध से परहेज करना होगा।

अगले साल पाकिस्तान नेशनल असेंबली के चुनाव होने हैं। पनामा प्रकरण का कितना फायदा इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी को मिलेगा? क्या पीएमएल (एन) दोबारा सत्ता में आएगी या फिर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की वापसी होगी?
मेरा मानना है कि अगर पाकिस्तान में भयमुक्त और निष्पक्ष चुनाव हुए तो पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) दोबारा सत्ता में आ सकती है। यह सच है कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर जरूर है, लेकिन विपक्षी पार्टियों में फिलहाल उतनी क्षमता नहीं है कि वह एक बड़ी ताकत बन कर उभरें। पंजाब सूबे में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का जनाधार उतना मजबूत नहीं है। सिंध प्रांत में उसका राजनीतिक आधार है, लेकिन यहां अल्ताफ हुसैन की मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट उसे कड़ी टक्कर देती है। जैसा कि आप जानते हैं अल्ताफ हुसैन कई वर्षों से लंदन में रहकर अपनी पार्टी चला रहे हैं। यह पाकिस्तान में भी संभव है कि बगैर नेता के कोई राजनीतिक दल चुनावों में उतरता है और कमोबेश कामयाबी हासिल करता है। लेकिन अब पाकिस्तान की जनता की सोच बदल रही है। वह अपने नेताओं को जमीन पर देखना चाहती है। इस मामले में पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) की स्थिति वहां के बाकी दलों से बेहतर कही जा सकती है। बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के प्रमुख बिलावल भुट्टो से एक उम्मीद बंधी थी लेकिन वह भी पूरी तरह इस कसौटी पर खरा नहीं उतर सके। बात अगर तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष इमरान खान की करें तो उनकी राजनीतिक शक्ति सेना और आईएसआई पर टिकी है। आईएसआई के चीफ रहे हामिद गुल उनकी पार्टी के संस्थापक रहे हैं। इमरान खान को पाकिस्तान की सियासत में लाने के पीछे आईएसआई ही है। इमरान खान आईएसआई और सेना के एजेंडे पर ही काम कर रहे हैं। अगले साल पाकिस्तान के नेशनल असेंबली के चुनाव में इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी को उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में ही फायदा मिल सकता है, क्योंकि पाकिस्तान के इसी इलाके में उनका प्रभाव अधिक है। पंजाब, सिंध और बलूचिस्तान में उनकी पार्टी को कोई खास चुनावी फायदा मिलने की उम्मीद नहीं है।

भारत को लेकर लेकर इमरान खान और उनकी पार्टी का रुख कैसा है?
पाकिस्तान में मुझे एक जिम्मेदार व्यक्ति ने बताया कि साल 1982 में सुनील गावस्कर की कप्तानी में भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान में सीरीज खेलने गई थी। इमरान खान पाकिस्तानी टीम के कप्तान थे। इमरान की बेहतरीन गेंदबाजी और बल्लेबाजी की वजह से भारतीय क्रिकेट टीम की हार हुई। मैच खत्म होने के बाद किसी शख्स ने इमरान खान से पूछा कि आप कई देशों के खिलाफ क्रिकेट मैच खेलते हैं लेकिन भारत के खिलाफ इतने आक्रामक तरीके से क्यों खेलते हैं? इमरान ने जवाब दिया, ‘जब मैं भारत के खिलाफ क्रिकेट खेलता हूं तो मेरे जेहन में कश्मीर की जनता का संघर्ष और उनकी तहरीक-ए-आजादी का ख्याल आ जाता है। भारत कश्मीरी अवाम के अधिकारों और उनके संघर्षों को दबाना चाहता है। इसलिए बतौर पाकिस्तानी मैं भारत के खिलाफ क्रिकेट मैच भी जंग की तरह खेलता हूं।’ भारत के प्रति यह इमरान खान की सोच है। यह अच्छी बात है कि उन्होंने ईमानदारी पूर्वक अपने मन की बातें बता दीं। अब वह पाकिस्तान में मुख्यधारा की राजनीति कर रहे हैं। जैसा कि मैंने पहले बताया कि उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी को आईएसआई और सेना से खाद-पानी मिलता है तो भारत के प्रति उनकी कैसी सोच होगी। इसे आसानी से समझा जा सकता है।
वैश्विक आतंकवादी हाफिज सईद ने भी पाकिस्तान की सियासत में उतरने का फैसला किया है। इस बाबत उन्होंने मिल्ली मुस्लिम लीग नामक पार्टी भी बनाई है। क्या पाकिस्तानी अवाम उस पर भरोसा करेगी? हाफिज सईद का चुनावी राजनीति में उतरना भारत के लिए क्या मायने रखता है?
अच्छी बात है कि हाफिज सईद जैसे दहशतगर्द ने पाकिस्तान की चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया है। जिस हाफिज सईद को अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन के देशों ने आतंकी घोषित कर रखा है। अब वह पाकिस्तान में चुनाव लड़ेगा। कल अगर वह जीत जाता है तो हो सकता है पाकिस्तान की संसद का स्पीकर भी बन जाए। अब विश्व बिरादरी भी देखेंगे कि किस तरह आतंक का पर्याय बन चुका आदमी संसदीय चुनाव लड़ता है। हाफिज सईद के राजनीति में उतरने से दुनिया भर में पाकिस्तान की छवि खराब होगी। अब वहां लोकतंत्र और आतंकवाद साथ-साथ चलेंगे। वैसे कहने को हाफिज सईद इस साल 31 जनवरी से पाकिस्तान में नजरबंद है, लेकिन वह पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जनसभाएं और रैलियां करता है। हाफिज सईद का राजनीति में आना पाकिस्तान का अंदरूनी मसला है। इससे भारत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अब पाकिस्तान की अदालत को तय करना है कि जो व्यक्ति आतंक का पर्याय बन चुका है और जिसका संगठन कई आतंकी हमलों को अंजाम दे चुका है, क्या उस व्यक्ति और संगठन को राजनीतिक मान्यता और चुनाव लड़ने की इजाजत मिलनी चाहिए?