स्टालिनवादी ढांचे में अमेरिकी समृद्धि का सपना

बनवारी

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस के दौरान पार्टी के एक उच्च अधिकारी लियू शियू के एक रहस्योद्घाटन ने सबको चौंका दिया। उन्होंने कहा कि कुछ समय पूर्व एक षड्यंत्र द्वारा राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपदस्थ करने की कोशिश की गई थी। शी जिनपिंग के कुशल नेतृत्व के कारण यह षड्यंत्र विफल कर दिया गया और सरकार व देश दोनों को बचा लिया गया। लियू शियू चीन के प्रतिभूति नियंत्रण आयोग के अध्यक्ष हैं और यह बात उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेताओं की अनुमति के बिना नहीं कही होगी। जिन छह लोगों पर उन्होंने यह षड्यंत्र करने का आरोप लगाया, वे सब पार्टी के उच्च पदों पर रहे हैं। पिछले चार वर्ष में अलग-अलग समय वे अनियमितताओं या भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर अपदस्थ कर दिए गए थे और उनमें से कुछ चीन की जेल में हैं। उनसे अब सत्ताधारियों को कोई खतरा नहीं है। इसलिए इस रहस्योद्घाटन का समय और उद्देश्य दोनों को ही लेकर सवाल उठे। यह माना जा रहा है कि शी जिनपिंग 19वीं कांग्रेस में केंद्रीय समिति, पोलितब्यूरो और स्थायी समिति में केवल अपने समर्थकों को ही चुनवाना चाहते थे। केंद्रीय समिति के 400 सदस्यों में से 70 प्रतिशत 68 वर्ष की आयु पूरी करने के बाद अब रिटायर होने के आसपास हैं। स्थायी समिति के सात सदस्यों में भी इस बार पांच सदस्यों को रिटायर होना था। इन सब नई नियुक्तियों में शी जिनपिंग केवल अपने समर्थकों को देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने ठीक कांग्रेस के समय एक षड्यंत्र का रहस्योद्घाटन करवाया ताकि यह दबाव बनाया जा सके कि शी जिनपिंग विरोधी लोग सत्ता में स्थायित्व के लिए खतरा हो सकते हैं।

पिछले पांच वर्ष चीन में भ्रष्टाचार के सफाये के नाम पर एक सघन अभियान चलाया गया। इस अभियान में अब तक पार्टी और सेना के अनेक उच्च पदस्थ लोगों पर फंदा डाला गया। प्रांतीय स्तर पर भी बड़े पैमाने पर कार्रवाई की गई। कुछ लोगों का अनुमान है कि इस अभियान में अब तक लगभग दस लाख लोगों के खिलाफ कार्रवाई हो चुकी है। जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए, उन्हें अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का कोई मौका नहीं दिया गया। इसलिए इस अभियान के बारे में यह राय बननी स्वाभाविक थी कि वह भ्रष्टाचार के बहाने अपने राजनैतिक विरोधियों को किनारे लगाने का अभियान है। अब अगर इतने व्यापक अभियान के बाद भी शी अपनी स्थिति को इस कदर निरापद बनाना चाहते हैं कि उनसे स्वतंत्र राय रखने वाला कोई व्यक्ति केंद्रीय समिति या स्थायी समिति में न पहुंचे तो यह उनकी मजबूती नहीं कमजोरी का ही लक्षण है।

शी जिनपिंग एक अत्यंत महत्वाकांक्षी नेता हैं। जो नेता जितना अधिक महत्वाकांक्षी होता है, अंदर से वह उतना ही आशंकित रहता है। चीन के मार्क्सवादी नेताओं में सबसे अधिक महत्वाकांक्षी माओत्से तुंग थे। माओ ने एक बड़े सशस्त्र संघर्ष के द्वारा सत्ता प्राप्त की थी। माओ की छवि केवल योद्धा की छवि नहीं थी, एक विचारक की भी छवि थी। पार्टी में माओ को चुनौती देने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर भी चीन को जल्दी से जल्दी एक बड़ी औद्योगिक शक्ति बनाने की सनक में जब उन्होंने पूरे चीन को लोहा गलाकर स्टील बनाने के अभियान में झोंक दिया, खेती की अवहेलना हुई और कई करोड़ चीनी भुखमरी का शिकार हो गए तो अपनी इस असफलता ने माओ को भी अंदर से आशंकित कर दिया था और उन्हें अपनी सत्ता भी खिसकती नजर आने लगी थी। उसी स्थिति से उबरने के लिए माओ की पत्नी के नेतृत्व में एक बर्बर अभियान छेड़ा गया था। सांस्कृतिक क्रांति के नाम से चले इस अभियान में स्वतंत्र मत रखने वाले या पार्टी के सत्तासीन लोगों के राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को बुर्जुआ बताकर नृशंस यातनाएं दी गई थीं।

चीन के हाल के राजनैतिक इतिहास में सांस्कृतिक क्रांति चीनी साम्यवादी नेतृत्व के माथे पर लगा एक बहुत बड़ा कलंक है। सांस्कृतिक क्रांति के कर्ताधर्ताओं ने पार्टी के बाहर बुर्जुआ संस्कृति, स्वभाव, आदतों और विचारों के खिलाफ व्यापक संघर्ष का एक जुनून जैसा पैदा करते हुए लाखों रेड गार्ड खड़े कर दिए। उन्होंने पूरे राजकीय और सामाजिक ढांचे को तहस-नहस करके माओ को एक मनुष्योत्तर दर्जा दे दिया। इस उथल-पुथल में लाखों चीनी अपमानित हुए। बड़े पैमाने पर लोगों को या तो मार दिया गया या मरने पर मजबूर कर दिया गया। शुरू में माओ के नेतृत्व को चुनौती मिलने की आशंका छात्रों, अध्यापकों और शहरी शिक्षित वर्ग से थी। उन्हें अपनी वर्ग चेतना छोड़ने के लिए देहाती क्षेत्रों में जाने के लिए कहा गया। फिर उन्हें वापस आने दिया गया, लेकिन क्रांति के सिपाही के रूप में। इस पूरी प्रक्रिया में सेना का उपयोग हुआ और उसके कारण पार्टी के भीतर भी उसकी भूमिका बढ़ती गई। लगभग दस वर्ष तक यह अभियान चला और उसकी औपचारिक समाप्ति माओ की मृत्यु के बाद ही हो पाई।

पिछले पांच वर्ष में चीन में जो हुआ है, उसने लोगों के मन में सांस्कृतिक क्रांति की याद ताजा कर दी है। उस समय बुर्जुआ विरोधी अभियान के नाम पर राजनैतिक विरोधियों का सफाया हुआ था। इस बार भ्रष्टाचार के नाम पर राजनैतिक विरोधियों का सफाया हुआ है। यह दृष्टव्य है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के लिए जिस तंत्र का उपयोग किया गया, वह सांस्कृतिक क्रांति के दिनों में ही अस्तित्व में आया था। इस अभियान की कमान शी जिनपिंग ने अपने विश्वस्त सहयोगी वांग किशान को सौंपी थी। वांग पार्टी की स्थायी समिति के सदस्य रहे हैं, उन्हें शी के बाद चीन का सबसे ताकतवर नेता माना जाता है। इस अभियान में अब तक दर्जनभर बड़े सैनिक अधिकारी सवा सौ से अधिक पार्टी और सरकार के ऊंचे पदों पर बैठे लोग और एक से दस लाख तक कनिष्ठ अधिकारी प्रताड़ित हुए हैं। इतनी बड़ी संख्या पर इतने सीमित समय में कार्रवाई तभी संभव है, जब वह बिना किसी पारदर्शी प्रक्रिया के, मनमाने आधार पर की गई हो।

इसमें संदेह नहीं कि आर्थिक भ्रष्टाचार चीन की एक बड़ी समस्या बना हुआ है। 1976 में सांस्कृतिक क्रांति के दौर की समाप्ति के बाद देंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में जो आर्थिक सुधार लागू किए गए थे। उन्होंने एक ऐसे नए युग का भ्रम पैदा किया था, जिसमें मार्क्सवादियों का लक्ष्य राजनैतिक की बजाय आर्थिक हो गया और भौतिक सुविधाएं जुटाना अपराध नहीं रहा। आर्थिक सुधार के अंतर्गत चीन का राजनैतिक वर्ग विदेशी कंपनियों के संपर्क में आया और जल्दी ही एक-दूसरे को आर्थिक लाभ पहुंचाने की संस्कृति पनप गई। 2012 में जब 18वीं कांग्रेस के दौरान शी जिनपिंग को सत्ता सौंपी गई थी तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती भ्रष्टाचार का सफाया ही थी। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान अगर केवल पार्टी के अनुशासन को लागू करने का अभियान ही बनकर रह जाए तो उसका क्या परिणाम हो सकता है, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। पार्टी के अनुशासन का भी और संकुचित अर्थ पार्टी के सत्ताधारी नेतृत्व में निष्ठा रखना ही होकर रह जाता है। इसलिए इस अभियान के नाम पर अब तक जिन लोगों के विरुद्ध कार्रवाई हुई है, उनसे शी जिनपिंग और उनकी टोली को राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता की आशंका थी, यही धारणा बनी है। शी ने पिछले पांच वर्ष में अपने हाथ में व्यापक अधिकार लिए हैं। उनका नागरिक प्रशासन पर ही नहीं, सेना पर भी पूरा नियंत्रण है। शी जिनपिंग ने कोई नया विचार भले न दिया हो, लेकिन चीनी शासक वर्ग को समृद्धि के एक नए युग का सपना अवश्य दिया है। शी का मानना है कि अगर चीन उनके दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ता रहा तो चीन में साम्यवादी सत्ता स्थापित होने के सौ वर्ष के भीतर वह संसार की सबसे अग्रणी शक्ति हो जाएगा।

शी जिनपिंग ने चीन को संसार की अग्रणी शक्ति बनाने के लिए जो रणनीति तैयार की है वह मूलरूप से 1900 से 1970 तक बरती गई अमेरिकी रणनीति का ही एक चीनी संस्करण है। दो महायुद्धों के दौरान सैनिक और औद्योगिक समान की आपूर्ति कर अमेरिका ने काफी पूंजीगत साधन जुटा लिए थे। मार्शल प्लान द्वारा महायुद्धों में क्षत-विक्षत यूरोप का कायाकल्प करके उसने अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा बाजार और अपनी कंपनियों को दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां बना लिया और इस तरह वह संसार की अग्रणी सामरिक और आर्थिक शक्ति के रूप में उभर आया। शी वन बेल्ट-वन रोड योजना के अंतर्गत चीन के बाहर एक विशाल औद्योगिक तंत्र विकसित करके समृद्धि का वैसा ही आधार बना लेना चाहते हैं, जैसा अमेरिका ने यूरोप का कायाकल्प करके बना लिया था। मुश्किल यह है कि अमेरिका और यूरोप एक ही जातीय समूह से बने हैं। चीन अपने बाहर जो औद्योगिक तंत्र खड़ा करना चाहता है, वह दूसरी जातियों की आकांक्षाओं और अभिरुचियों से प्रभावित होगा। वह चीन के उप आर्थिक क्षेत्र के रूप में क्यों बने रहना चाहेगा? चीन ने पिछले कुछ दशकों में तकनीकी क्षमता और औद्योगिक कौशल अवश्य बढ़ाया है, लेकिन दुनिया में अभी भी उसकी एक भरोसेमंद औद्योगिक शक्ति के रूप में साख नहीं बनी है। अभी तक उसकी छवि एक सस्ते सामान के निर्यातक की ही है। वह बड़े पैमाने पर संरचनात्मक ढांचे खड़े करने के ठेके ले रहा है। लेकिन उसकी कंपनियां केवल उन क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धी हुई हैं, जो पश्चिमी देशों की रुचि के क्षेत्र नहीं हैं।

शी जिनपिंग का मानना है कि 2035 तक चीन नई वैज्ञानिक तकनीक विकसित करने में संसार की सबसे अग्रणी शक्ति होगा। लेकिन ऐसा केवल अधिक प्रयोगशालाएं खड़ी करके नहीं किया जा सकता। उसके लिए जो खुला माहौल चाहिए वह चीन में मार्क्सवादी शासन रहने तक तो संभव नहीं है। देशभक्ति की भावना पैदा करके उतना ही आगे बढ़ा जा सकता है, जितना रूस बढ़ पाया। लेकिन एक समय उसे भी यह समझ में आ गया कि एक निरंकुश राजनैतिक व्यवस्था में रहते हुए अमेरिका को पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। चीन की अब तक सामरिक और औद्योगिक उपलब्धियां उसे अमेरिका तो क्या रूस के बराबर भी नहीं पहुंचा पार्इं। अगर उसे संसार की दूसरी बड़ी आर्थिक शक्ति का दर्जा हासिल हुआ है तो केवल अपनी विशाल जनसंख्या के बल पर।

आज दुनिया की उन्नति को मापने के मानक केवल आर्थिक हैं। आर्थिक समृद्धि वास्तविक सुख का कारक नहीं होती, यह बात देर-सबेर सिद्ध होगी और तब संसार के देशों की तुलना अन्य सभ्यतागत मानकों पर भी होगी। अब तक चीन अपनी पूरी जनसंख्या को अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं में बैल की तरह जोते रहा है। अगर आपको अपने लोगों की राजनैतिक निष्ठा सुनिश्चित करने के लिए थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद सांस्कृतिक क्रांति जैसा कोई बर्बर अभियान छेड़ना पड़े तो यह अच्छा संकेत नहीं है। चीन को आज शी जिनपिंग आर्थिक समृद्धि का जो सुनहरा सपना दिखा रहे हैं वह एक शक्तिशाली चीन का सपना है। शक्तिशाली चीन में सब शक्तिशाली नहीं हो सकते। केवल शक्तिशाली होने में लगे देशों में शक्ति केवल मुट्ठीभर शासक तंत्र में सिमट कर रह जाती है। लेकिन चीन के लिए वह भी अभी दूर की बात है। अभी तो चीन स्टालिनवादी ढांचे में अमेरिकी समृद्धि का सपना देख रहा है। इसके भीतर का अंतर्विरोध रूस देख चुका है, चीन को अभी देखना है। कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस से निश्चय ही शी जिनपिंग और अधिक मजबूत होकर निकलेंगे, उनकी महत्वाकांक्षा और अधिक बढ़ेगी और अगर वे अपने भिन्न मत रखने वाले सहयोगियों के प्रति असहिष्णु बने रहे तो उनकी यह मजबूती कब उनकी कमजोरी में बदल जाएगी, इसका पता भी नहीं चलेगा।

2 thoughts on “स्टालिनवादी ढांचे में अमेरिकी समृद्धि का सपना

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