मजबूत विपक्ष मजबूत लोकतंत्र की एक आवश्यक शर्त है. सिर्फ इसलिए नहीं कि सत्ता पर अंकुश बनाए रखना जरूरी है. इसलिए भी कि सत्ता से सवाल करते रहने का काम भी विपक्ष का ही है. लेकिन, भारतीय लोकतंत्र में आम तौर पर विपक्ष की भूमिका सत्ता पक्ष को सत्ता से हटाने भर तक सीमित हो गया है. शायद इसलिए भी लोकतंत्र में ‘लीडर अपोजिशन’ को ‘पीएम-इन-वेटिंग’ कहा जाता है. तो क्या इस अकेले मकसद के लिए भी भारतीय लोकतंत्र का विपक्ष तैयार है? देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस हो या फिर एक सांसद वाली ओवैसी की पार्टी, क्या विपक्ष 2019 के महासमर में सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनौती देने के लिए तैयार है?

साल 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही देश का विपक्ष लगातार एकजुट होने की कोशिशें करता रहा है. फिर चाहे मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता परिवार को एकजुट करने की कवायद हो या महागठबंधन बनाने की बात हो या फिर तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश. इन सारी कवायदों का शुरुआती मकसद तो यही था कि किसी तरह 2019 के चुनाव में मोदी को हराया जाए, लेकिन चुनाव का समय आते-आते विपक्ष अपनी नीति और नीयत की वजह से मानो बिखर सा गया है. कभी दिल्ली में शरद यादव सांझी विरासत बचाओनाम से सम्मेलन करके विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश करते हैं, तो कभी कर्नाटक में नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में विपक्षी एकता की उम्मीदें दिखती हैं. लेकिन, अंत में वही कि अपनी डफली-अपना राग.

बिछड़ गए यूपी के लड़के

शुरुआत कांग्रेस से ही करते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के बाद राहुल गांधी ने भले ही तीन राज्यों में जीत दर्ज कर ली हो, लेकिन विपक्ष के लिए अभी तक वह सर्वमान्य नेता नहीं बन सके हैं. विपक्षी एकता के प्रति वह कितने गंभीर हैं, इसकी मिसाल इस बात से देखने को मिलती है कि एक तरफ तो वह सपा-बसपा से समर्थन लेकर मध्य प्रदेश-राजस्थान में सरकार बना लेते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में जब गठबंधन बनाने की बारी आती है, तो किनारा कर लेते हैं. जाहिर तौर पर भले यह दिखता हो कि सीटों में तालमेल न होने की वजह से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बने विपक्षी गठबंधन (सपा-बसपा-रालोद) में शामिल नहीं हुई. लेकिन कारण बस इतना भर ही नहीं है. उत्तर प्रदेश में मायावती फिलहाल राहुल गांधी को विपक्ष का सर्वमान्य नेता मानने को तैयार नहीं हैं. दूसरी तरफ राहुल गांधी यूपी में टीम बी या टीम सी की हैसियत में आना नहीं चाहते. इसलिए प्रियंका गांधी का भी सक्रिय राजनीति में पदार्पण कराया जाता है और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया जाता है. अब इस सबसे किसे फायदा, किसे नुकसान होगा, वह तो चुनाव परिणामों से ही पता चलेगा, लेकिन अभी यह तय हो गया है कि राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से इतर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है. न जनता, न जनता के सवाल.

बिहार की रार

कहने को राजद-कांग्रेस-हम-रालोसपा-वीआईपी का महागठबंधन बन गया है, लेकिन वहां सीट बंटवारे को लेकर गठबंधन के बीच जो रार मची, उससे यह साफ हो गया कि यह कहने को महागठबंधन है, लेकिन इसमें सिर्फ और सिर्फ गांठें ही हैं. बेगूसराय सीट को लेकर जो विवाद हुआ, वह अलग. कन्हैया कुमार को उम्मीद थी कि राजद और महागठबंधन से उन्हें समर्थन मिल जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वहां से राजद ने अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया और तब जाकर सीपीआई ने कन्हैया कुमार को भी बेगूसराय से अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया. बिहार में भाकपा (माले) की राजनीतिक हैसियत हम या वीआईपी पार्टी से कहीं ज्यादा है, लेकिन महागठबंधन में उसे न तो पूर्ण रूपेण शामिल किया गया और न वह सम्मान मिला, जिसकी भाकपा (माले) हकदार थी. महागठबंधन बनाने की प्रक्रिया के तहत सीट बंटवारे को लेकर भी कांग्रेस और राजद के बीच इतनी उलझनें देखने को मिलीं, जिससे लगा कि यह कम से कम नेचुरल गठबंधन तो नहीं है. इसके अलावा पप्पू यादव यह चाहते हैं कि कांग्रेस से उन्हें मधेपुरा सीट मिल जाए, लेकिन महागठबंधन के सीनियर लीडर शरद यादव भी चाहते हैं कि वह मधेपुरा से ही चुनाव लड़ें. ऐसे में इस सीट को लेकर भी महागठबंधन (अगर पप्पू यादव कांग्रेस में शामिल होते हैं) के बीच रार हो सकती है. अब ऐसी स्थिति में महागठबंधन की तरफ से एनडीए को कितनी चुनौती मिल पाती है, यह देखने वाली बात होगी.

दीदी का दांव

तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने इस चुनाव से पहले ही एक नया कोण बनाने की कवायद शुरू कर दी थी, जब उन्होंने कोलकाता में विपक्ष के तकरीबन सभी बड़े नेताओं को निमंत्रित कर एक मंच पर ला खड़ा किया था. उस रैली के जरिये यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि ममता बनर्जी मोदी को हटाना चाहती हैं और इसके लिए विपक्ष उनके साथ है. उस रैली के जरिये ममता बनर्जी ने स्पष्ट तौर पर यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वह राहुल गांधी को अपना नेता कभी नहीं मानेंगी और बदली परिस्थितियों में प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी ही दावेदारी रहेगी. ममता बनर्जी चाहती हैं कि वह पश्चिम बंगाल से अधिक से अधिक सीटें जीतकर दिल्ली पहुंचें, ताकि अप्रत्याशित हालात में उनकी दावेदारी सबसे मजबूत बनी रहे. यही वजह है कि मोदी विरोध में भाषा की मर्यादा भूलने और संयम तक खो देने वाली ममता बनर्जी वहां बिना किसी से मिले हुए अकेले चुनाव लड़ रही हैं. कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी आपसी तालमेल की संभावनाओं को खारिज करते हुए अकेले ही मैदान में उतरने का फैसला किया. अब ऐसी स्थिति में अगर पंचायत चुनाव में तृणमूल और कम्युनिस्ट पार्टियों को जोरदार टक्कर दे चुकी भाजपा फायदे में आती है, तो इसके लिए सिर्फ और सिर्फ विपक्ष के नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही जिम्मेदार होगी.

केसीआर का अपना राग

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव कर्नाटक चुनाव परिणाम आते ही यह साफ कर चुके थे और देवेगौड़ा से मिलकर बता चुके थे कि वह राहुल गांधी के नेतृत्व में बनने वाले विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहते. दरअसल, केसीआर राजस्थान और मध्य प्रदेश के साथ ही तेलंगाना का विधानसभा चुनाव भी चाहते थे. इस वजह से वह अपना पत्ता तब तक नहीं खोलना चाहते थे. इस मकसद में वह सफल भी रहे. लेकिन चुनाव में भारी जीत के बाद उन्होंने तीसरे मोर्चे की बात करनी शुरू कर दी. शायद यही वजह है कि वह ममता बनर्जी की रैली में भी नहीं पहुंचे. तेलंगाना में वह ओवैसी की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं और माना जा रहा है कि वह कांग्रेस-भाजपा के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं. केसीआर जानते हैं कि वहां उनका असल मुकाबला कांग्रेस से है, न कि भाजपा से. ऐसे में चुनाव के बाद अगर केसीआर एनडीए का हिस्सा बनते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

त्रिकोण में फंसी कांग्रेस

दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और ओडिशा में कांग्रेस त्रिकोणीय मुकाबला बनाती दिख रही है. इस वजह से इन दोनों राज्यों में भाजपा को भारी फायदा होता दिख रहा है. वैसे तो दिल्ली में अंतिम समय तक कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच समझौते की कोशिशें की गईं. खबर लिखे जाने तक अभी इस पर कोई निर्णय नहीं हो सका था. उधर आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस हरियाणा और पंजाब में गठबंधन करती है या नहीं, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है कि विपक्ष भाजपा को टक्कर दे पाता है या नहीं. इसी तरह ओडिशा में नवीन पटनायक के बीजद, कांग्रेस और भाजपा की वजह से मुकाबला त्रिकोणीय बन गया है और अभी तक के हालात को देखते हुए माना जा रहा है कि भाजपा को वहां अप्रत्याशित फायदा पहुंच सकता है.

एमपी बनें न बनें, पीएम पहले बनेंगे

विपक्षी एकता इतनी कमजोर क्यों है, इसका सीधा सा जवाब यह है कि देश में प्रधानमंत्री का एक ही पद है, लेकिन उसके दावेदार दर्जनों हैं. राहुल गांधी जहां पीएम पद का खुद को स्वाभाविक दावेदार मानते हैं, वहीं दीगर विपक्षी दलों की मंशा कुछ और ही है. चाहे मायावती होंया ममता बनर्जी, सबके अपने-अपने सपने हैं, जिन्हें वे किसी भी कीमत पर तोडऩा नहीं चाहतीं. इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस से इतर विपक्ष के सभी दल राहुल गांधी के नाम पर अपनी सहमति न दें और ऐसा हो भी रहा है. नतीजा, विपक्षी एकता का राग तो अलापा जा रहा है, लेकिन सुर इतने मद्धिम हैं, ताकि भाजपा की राह में अड़चनें न आएं.