निशा शर्मा।

सिनेमा जगत में दूर से पहचानी जाने वाली खुरदरी शक्ल हमारी आंखों से ओझल हो गई। उनके जाने से सिनेमा की उन गलियों में सन्नाटा पसर गया जो उनकी अदाकारी और आवाज से गुलजार हुआ करती थीं। उनकी अदाकारी के तो दर्शक दीवाने थे ही, उनकी भारी भरकम आवाज ने भी सफलता के नए आयाम गढ़े। उनके इस हुनर को कई डॉक्यूमेंट्री फिल्मों, ऐड फिल्मों, एनिमेशन फिल्मों में बखूबी आजमाया गया।

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ओमपुरी ने उस दौर में फिल्म जगत में कदम रखा जब फिल्मों में गंभीरता कम थी। ऐसे समय में सामाजिक सरोकार पर कम फिल्में बनती थीं और जो बनीं भी वे कला, समानांतर या यथार्थवादी सिनेमा के नाम से जानी गर्इं। ओमपुरी इन फिल्मों का एक उल्लेखनीय चेहरा थे। ओमपुरी की कई फिल्मों के निर्देशक रहे गोविंद निहलानी कहते हैं, ‘जितना मैं उन्हें जानता हूं अभिनय उनकी सांसों में बसता था। वह अभिनय के अलावा कभी किसी चीज के बारे में सोचते ही नहीं थे। लंबे समय तक सिनेमा जगत में रहने के बावजूद उन्होंने कभी प्रोडक्शन, इंस्टीट्यूट, निर्देशन और लेखन के बारे में नहीं सोचा। वह हमेशा फिल्मों और अभिनय पर ही चर्चा करते और सोचते थे।’ शायद इसकी वजह यह भी रही कि अभिनय के जिन घरानों को व्यावसायिक सिनेमा जगत में सफलता की गारंटी माना जाता है उन घरानों से ओमपुरी के अभिनय की परवरिश हुई। यहां तक पहुंचने का उनका सफर आसान नहीं था। बचपन से लेकर जवानी तक उन्होंने मुफलिसी का वो दौर देखा जिसमें बनने की कम टूटने की ज्यादा संभावनाएं होती हैं।

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हरियाणा के अंबाला में जन्मे मगर पंजाब की पृष्ठभूमि से हमेशा जुड़े रहे ओमपुरी ने बचपन से ही विपरीत परिस्थितियों का सामना किया। चाहे वह कम उम्र में पिता के जेल जाने के बाद आर्थिक परिस्थितियां रही हों या अकेलेपन की झल्लाहट। उन्होेंने अपने मुफलिसी के दौर को कभी जेहन से उतरने नहीं दिया। कहा तो यह भी जाता है कि उन्होंने एफटीआईआई, पुणे की कैंटीन में लगाए गए अपने उधार के बिल को फ्रेम करा कर रख लिया था ताकि जब कभी भी सफलता की सीढ़ियां चढ़ें तो अपनी जमीन से जुड़े रहें। एफटीआईआई से निकल कर जब उन्होंने फिल्मी दुनिया में कदम रखा तो चेहरे पर चेचक के दाग के चलते उन्हें कई बार फब्तियों का सामना करना पड़ा। शबाना आजमी जो बाद में ओमपुरी की अच्छी दोस्त बन गर्इं, ने भी एक बार कहा था कि चेचक के दाग वाला यह व्यक्ति न हीरो लगता है और न विलेन। यह सिनेमा जगत में क्या करने आया है।

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यह वास्तविकता थी कि फिल्मी दुनिया में पैर जमाने के लिए ओमपुरी के पास न तो कोई ऐसा रुतबा था और न ही ऐसा चेहरा जो उन्हें विशेष पहचान दे पाता। उनके पास था तो सिर्फ अभिनय जिसकी बदौलत उन्होंने समानांतर फिल्मों से लेकर व्यावसायिक फिल्मों और बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक अपनी धाक जमाई। अपनी साधारण छवि को उन्होंने कमजोरी नहीं बल्कि अपना सबसे धारदार हथियार बनाया। बड़े पर्दे से लेकर छोटे पर्दे तक उन्होंने साधारण व्यक्ति के किरदार को खूब जिया। अभिनय का उनका अपना गुथा हुआ व्याकरण था जिसे वह भावों से व्यक्त करते थे। यही कारण था कि उनकी फिल्मों से ज्यादा उनके द्वारा निभाए किरदार लोगों को प्रभावित करते थे। चाहे वह ‘अर्धसत्य’ का सिस्टम का शिकार सब इंस्पेक्टर अनंत वेलणकर हो जो आखिर में रामा शेट्टी को गला दबाकर मार देता है या ‘आक्रोश’ का आदिवासी लाहण्या जो पूरी फिल्म में चुप रहता है और आखिर में कुल्हाड़ी से अपनी बहन की गरदन काट देता है या फिर सत्यजीत रे की फिल्म ‘सद्गति’ का दुखिया जो भूख की ज्वाला में भस्म हो जाता है। व्यवस्था के शिकार ये किरदार दर्शकों में सिस्टम के प्रति गुस्सा पैदा करते हैं तो उन्हें जीने वाले ओमपुरी सहानुभूति बटोर कर लोगों के जेहन में स्थिर हो जाते हैं।

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ओमपुरी के अभिनय के बारे में आशुतोष राणा फिल्म डर्टी पॉलिटिक्स का एक किस्सा बताते हुए कहते हैं, ‘फिल्म की शूटिंग के दौरान बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछ लिया कि लंबे लंबे डायलॉग याद करने का आपका तरीका क्या है तो उन्होंने बहुत तीव्रता से अपनी पैनी नजर मुझ पर गड़ा दी। फिर गंभीर आवाज में बोले- शब्द क्यों याद रखते हो? भाव याद रखो। भाषा तो भाव का घोड़ा है पंडित जी.. मेरे लिए किन शब्दों में कहा गया ये इम्पोर्टेंट नहीं होता, क्या कहा गया वह इम्पोर्टेंट होता है। इसलिए कैसे कहना है ये अपने आप आ जाता है। दुनिया सिर्फ वार को और सवार को ही याद रखती है। जब किसी ऐक्टर के भाव प्रभावशाली होते हैं, दर्शक के मर्म पर चोट करते हैं तो लोगों को उसकी भाषा भी याद रह जाती है। इसलिए सिर्फ अच्छी भाषा के चक्कर में मत पड़ो, सच्चे भाव को सिद्ध करो। भाषा की तारीफ लोग खुद ब खुद करने लगेंगे।’

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ओमपुरी खुद मानते थे कि संजीदा फिल्में जरूरी हैं क्योंकि ये समाज का आईना होती हैं। ऐसे सिनेमा से दिमाग की मालिश होती है। वह मानते थे कि उन्होंने गंभीर फिल्में की हैं जो उनके जाने के बाद भी सीखने के लिए उपलब्ध होंगी। अर्धसत्य, आक्रोश और तमस के निर्देशक गोविंद निहलानी कहते हैं, ‘मैंने ओम को कुछ नहीं दिया बल्कि उन्होंने मुझे फिल्मों के जरिये बहुत कुछ दिया है। अगर उनकी बेहतरीन अदाकारी नहीं होती तो मेरी फिल्मों को वह मुकाम नहीं मिलता जो मिला है।’ उन्हें पहला असाइनमेंट पैकेजिंग कंपनी के एक विज्ञापन में मिला था जिसे गोविंद निहलानी ने ही बनाया था। इस विज्ञापन से उन्होंने जता दिया था कि वे सिनेमा जगत में मील का पत्थर साबित होंगे। और ऐसा हुआ भी। इस विज्ञापन के बाद उन्होंने कभी पलट कर नहीं देखा।

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गोविंद निहलानी ओमपुरी को याद नहीं करते बल्कि मस्तिष्क पर पड़ने वाली अमिट छाप मानते हैं। वह कहते हैं, ‘याद उसे किया जाता है जिसे भुला दिया गया हो। ओम अपने अभिनय के जरिये आज भी जिंदा हैं। वह जैसे थे फिल्मों में भी वैसे ही थे। एक साधारण इंसान असाधारण प्रतिभा के साथ। वे सच्चे कलाकार थे जिन्होंने गंभीर फिल्मों के साथ कॉमेडी फिल्में भी की।’ कॉमेडी फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ ऐसी फिल्म थी जिसने उनके अभिनय को नया आयाम दिया। इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी थे। नसीरुद्दीन शाह कहते हैं, ‘मेरी और ओम की दोस्ती 1970 में हुई थी। हम दोनों नाटक में एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे। मुझमें उनके लिए अभिनेता के तौर पर जलन भी थी। लेकिन एक दिन जब मैंने एक जापानी नाटक ‘इबारागी’ में उनका अभिनय देखा तो मैं स्तबध रह गया। वह अन्तर्मुखी और चुप रहने वाले इंसान थे लेकिन जैसे ही नाटक के किरदार में घुसे उनकी आवाज चारों ओर गूंजने लगी। यही वह समय था जब मैं उनकी अदाकारी का मुरीद हुआ।’

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फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ के निर्देशक कुंदन शाह कहते हैं, ‘ओम एक महान अदाकार थे जो अपने शानदार अभिनय से फिल्मों को संजोते थे। अपनी अदाकारी से उन्होंने साबित कर दिया था कि ग्रामीण परिवेश से उठ कर हॉलीवुड तक के सफर को कैसे मुमकिन किया जा सकता है।’ जैसे जैसे समानांतर सिनेमा का दौर गुजरा समय की मांग को भांपते हुए उन्होंने अपनी राह बदली और व्यावसायिक सिनेमा में खलनायक, चरित्र अभिनेता से लेकर कॉमेडी तक की। इन फिल्मों में बॉक्स आॅफिस पर जो नहीं भी चलीं उनमें उनकी अदाकारी को सराहा गया। चाची 420, हेराफेरी और माला माल विकली उनकी कॉमेडी फिल्मों में यादगार रहीं। कई फ्लॉप फिल्मों के बाद किसी ने एक बार उनसे पूछा था कि आप ऐसी फिल्में क्यों करते हैं जबकि आप समानांतर सिनेमा के हीरो रहे हैं तो उन्होंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया था कि अभिनय के साथ-साथ पेट भरना भी जरूरी है।

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ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त लंबी है जिनमें ओमपुरी को देश ही नहीं विदेशों में भी ख्याति मिली। चाहे वह रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी हो या ज्वैल इन द क्राउन, सिटी आॅफ जॉय, माई सन द फैनेटिक, ईस्ट इज ईस्ट जैसी हॉलीवुड की फिल्में जिनमें उन्होंने महत्वपूर्ण किरदार निभाया। चौसर की द कैंटरबरी टेल्स के बीबीसी ड्रामा के रूप में प्रदर्शन में भी उनको जगह मिली। हॉलीवुड के प्रख्यात अभिनेता और सिटी आॅफ जॉय में ओमपुरी के सह कलाकार पैट्रिक स्वायज उनके साथ अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहते हैं, ‘वह ऐसे अभिनेता थे जिनमें विभिन्नता के साथ-साथ गहराई भी थी। उनकी आंखें बहुत कुछ कहती थीं। वह जिस भी किरदार में घुसते थे उसके अभिनय की परतें एकाएक खुलने लगती थीं। जो लोग उन्हें जानते हैं वे उनके और करीब हो जाते हैं और जो नहीं जानते वे उन्हें भुला नहीं पाते। सही शब्दों में अदाकारी में वे मेरे सच्चे गुरुहैं।’

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जानी-मानी अभिनेत्री पल्लवी जोशी उन्हें याद करते हुए कहती हैं, ‘वह ऐसी शख्सियत थे जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। श्याम बेनेगल की फिल्म सुसमान में मैंने उनकी बेटी का किरदार निभाया था। तब मेरी उम्र करीब 16 साल थी। वो छोकरी में मैं उनकी नौकरानी थी जिससे उनके संबंध होते हैं। डिस्कवरी आॅफ इंडिया में उन्होंने रावण का तो मैंने सीता का किरदार निभाया था। कई बार जब हम मिलते थे तो मैं कहती थी कि और कौन सा रिश्ता बचा है जिसे आपके साथ परदे पर निभाना बाकी है तो वह निश्छल भाव से कहते कि अबकी बार तू मेरी मां का किरदार निभाना।’

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पल्लवी ने उनकी निजी जिंदगी पर बात करने से मना कर दिया लेकिन यह भी बताया कि उनके मन में औरतों के प्रति आदर भाव हमेशा से था। लोग क्या कहते हैं या उनकी बायोग्राफी में क्या है पल्लवी इससे इत्तेफाक नहीं रखतीं। ओमपुरी जिन विवादों में रहे उनमें एक पन्ना औरत भी रहा जिसकी जानकारी उनकी दूसरी पत्नी पत्रकार नंदिता सी पुरी की लिखी किताब ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी आॅफ ओमपुरी’ में मिलती है। इस असाधारण नायक की जीवनी का एक लंबा खंड ‘वह प्रेम था’ शीर्षक से है जिसकी शुरुआत नंदिता उनकी 14 वर्ष की आयु की उस घटना के साथ करती हैं जब छत पर सो रही अपनी छोटी मामी को उन्होंने छूने की कोशिश की थी। उसके बाद 55 वर्ष की प्रौढ़ा नौकरानी से शारीरिक संबंध से लेकर तलाकशुदा एक बच्चे की मां सीमा से विवाह और नंदिता तक पहुंचने के बीच दर्जन भर प्रेम कथाओं के विवरण उनकी इस जीवनी में हैं। नसीरुद्दीन शाह ओमपुरी की बायोग्राफी में उनके प्रशंसक के तौर पर लिखते हैं कि वे अपना नाम बदलना चाहते थे। वे जब फिल्म जगत में आए तो उस समय अभिनेता ओम शिवपुरी का खूब सिक्का चलता था। बात किसी भी ओम की होती तो लोग उसे ओम शिवपुरी की ही बात समझ लेते थे। कुछ फिल्मों के लिए उन्होंने अपना नाम विलोम पुरी और अजदक पुरी भी सुझाया लेकिन नसीरुद्दीन ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और कहा कि देखना एक दिन तुम्हारा नाम ओम शिवपुरी से भी बड़ा होगा और ऐसा हुआ भी।

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वो उन चंद कलाकारों में से हैं जिन्हें भारत और ब्रिटेन की सरकारों ने अपने उच्च पुरस्कारों से नवाजा। 1990 में उन्हें पद्म श्री मिला तो 2004 में उन्हें ब्रितानी फिल्म उद्योग में योगदान के लिए मानक ओबीई (आॅर्डर आॅफ द ब्रिटिश अंपायर) मिला। वे एकमात्र भारतीय अभिनेता हैं जिन्होंने दो दर्जन अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में अभिनय किया। 1981 में उन्हें फिल्म आरोहण के लिए और 1983 में अर्धसत्य के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसके अलावा भी उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई और पुरस्कारों से नवाजा गया। अपने करियर के दौरान 300 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुके ओमपुरी की अभी जो फिल्में रिलीज होनी हैं उनमें ब्रिटिश फिल्म वायसरॉय हाउस, कबीर खान की ट्यूबलाइट्स, दलित समस्या पर बनी रंभाजान जिंदाबाद और तेलुगू फिल्म गाजी आदि हैं।

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अदाकारी के उनके पूरे करियर में कभी कोई ऐसा दौर नहीं रहा जिसमें वह सितारे की तरह न चमके हों। ऐसे कलाकार कला और कलाकारी के बूते सदियों तक जिंदा रहते हैं।