ओडिशा- दलबदल ही सहारा

विश्वनाथ देहाती

ओडिशा में अगले साल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने हैं। इसी के मद्देनजर हर दल के नेता अपनी पार्टी को मजबूत और दूसरे की पार्टी को कमजोर साबित करने में लगे हैं। इसी को आज की राजनीति में चुनाव प्रबंधन कहा जाता है। चुनावी लाभ हानि का आकलन कर हर पार्टी में जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की बलि दी जा रही है तो दूसरे दल के नेताओं को टिकट थमा दिया जा रहा है। इससे उत्पन्न असंतोष के कारण हर पार्टी के नेता आया राम गया राम का खेल खेलने लगे हैं। उनका मानना है कि उपेक्षा के कारण दम घुटने लगता है और दल बदल देने से सुकून मिलता है। पुरानी पीढ़ी के नेता तो अपने चेलों को भी दलबदल के जरिये राजनीति में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।

बागी हुए कांग्रेस के साथी
चुनावी राजनीति के इस खेल में चार दशक से कांग्रेस में रहे चंद्रशेखर साहु ने पार्टी छोड़ दी है। उन्होंने आरोप लगाया है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, ओडिशा पीसीसी चीफ प्रसाद हरिचंदन ने जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर पार्टी संगठन को कमजोर करने का काम किया है। सौम्यरंजन पटनायक, विजय महांती, अपराजिता महांती, भगवान गंतायक, पी के दाश और बिक्रम पंडा उपेक्षित किए जाने के ज्वलंत उदाहरण हैं। दरअसल, कांग्रेस के नेता पार्टी के दम पर जब चुनाव जीत जाते हैं तो वे इस जीत को अपनी ताकत समझने लगते हैं। लेकिन उन्हें जो वोट मिलते हैं, वे कांग्रेस पार्टी के नाम पर मिलते हैं। जब यही नेता पार्टी छोड़ देते हैं तो उन्हें अपने असली जनाधार का पता चलता है। ये नेता भले ही दूसरे की सीट जितवाने का दावा करते हों, लेकिन वे अपनी ही सीट पर चुनाव नहीं जीत पाते हैं।
चंद्रशेखर साहु कांग्रेस में बहुत कद्दावर नेता माने जाते थे। पार्टी में उनकी एक हैसियत थी। जब वह कांग्रेस छोड़ बीजेडी यानी बीजू जनता दल में शामिल हुए तो अपना जनाधार साबित नहीं कर सके। ओडिशा के पत्रकार सौम्यरंजन पटनायक पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत जे बी पटनायक के दामाद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता निरंजन पटनायक के भाई हैं। उन्होंने पहले कांग्रेस, भाजपा फिर आम ओडिशा का स्वाद चखा और फिर बीजेडी ज्वाइन कर ली। बीजेडी को शंख थामने का उन्हें यह फायदा हुआ कि वह राज्यसभा सदस्य बन गए। विजय महांती और अपराजिता महांती दो दशक कांग्रेस में रहे और अब बीजेडी का शंख थाम लिया है। लेकिन यहां उन्हें अपनी पुरानी हैसियत हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

बीजेडी के भी साथी हुए बागी
बीजू जनता दल ने अपने पुराने नेता अशोक पाणिग्राही को बीजैपुर उपचुनाव से पहले न केवल पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया बल्कि पूर्व कांग्रेस विधायक दिवंगत सुबल साहु की पत्नी रीता साहु को बीजेडी में शामिल कराकर टिकट दे दिया और जिता भी दिया। अशोक पाणिग्राही भाजपा में शामिल होकर चुनाव लड़ चुके हैं। इन लोगों के लिए पार्टी की विचारधारा की कोई अहमियत नहीं है। वे लोग अब दलबदल के रास्ते बीजेडी और भाजपा में जगह बनाने की कोशिश में लगे हैं।

आने जाने का दौर
ओडिशा में राजनीति बदहवासी के दौर में है। किसी भी पार्टी को यह उम्मीद नहीं है कि वह अपने दम पर 2019 में चुनाव जीत कर सरकार बनाने में कामयाब होगी। ऐसे में पार्टियां तमाम तरह के प्रयोग करने में लगी हैं। नेताओं के एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आने और जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है जो 2019 के चुनाव तक जारी रहेगा।
कहने को बीजेडी नवीन पटनायक की अच्छी छवि के बलबूते पांचवीं बार चुनाव मैदान में उतरना चाहती है पर सच्चाई यह है कि उसे इस बात का डर है कि केवल पटनायक की छवि से काम नहीं चलेगा। इसलिए वह पुराने नेताओं के गठजोड़ को भी साथ लेना चाहती है।
उधर, भाजपा को लगता है कि वह कानून व्यवस्था के मसले पर धर्मेंद्र प्रधान के कड़क इमेज के मुद्दे पर चुनाव जीत जाएगी। ओडिशा में भाजपा ने धर्म के मुद्दे पर दलितों और पिछड़ों को अपने पक्ष में जरूर खड़ा कर लिया है पर उसने बीजेडी और कांग्रेस को कमजोर करने के लिए कई नाराज नेताओं पर भी डोरे डालने शुरू कर दिए हैं। भाजपा ओडिशा में विकास और हिंदुत्व की दोधारी तलवार पर चलकर 2019 का चुनाव जीतना चाहती है। इसके लिए वह कभी नवीन पटनायक को विनाश पुरुष कहकर मुद्दा बनाती है तो कभी पीएम नरेंद्र मोदी की साफ छवि को सामने रखती है। कांग्रेस अभी भी ओडिशा में अपनी साख नहीं बना पाई है। उसकी कोशिश यह है कि कुछ छोटे दलों के तालमेल से चुनाव लड़े और जीते, लेकिन ओडिशा में नेताओं के दलबदल का खेल तो अभी शुरू भर हुआ है, उसमें आगे और भी तेजी आएगी।

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