मार्डन इंडियन- आज भी जीवंत क्यों हैं हमारे मिथक

अमीश।

मिथक उत्पन्न होते हैं। और फिर वे समाप्त हो जाते हैं। संसार में हर चीज के लिए यही तरीका है, और ऐसा प्रतीत होता है कि देवता तक इसे नहीं रोक सकते। थॉर को स्कैंडिनेविया से बहिष्कृत कर दिया गया है, रा का सूर्य मिस्र में डूब चुका है और ज्यूस ओलिंपस पर्वत की बर्फ में दफन हो गए हैं। लेकिन भगवान राम के राज्य का मिथक भारत में सशक्त है… भगवान कृष्ण अभी भी मोहते हैं और… भव्य महादेव, भगवान शिव, ने हमारे दिलों में नर्तन करना बंद नहीं किया है। भारतीय घरों में अखंड रामायण पाठ इस व्यस्तता भरे दौर में भी समय की गति को धीमा कर देता है। और भारत भर में लोग महाभारत के पेचीदा पात्रों की चीराफाड़ी करने से कभी थकते नहीं हैं। ऐसा क्यों है? क्यों अधिकांश प्राचीन सभ्यताएं अपनी पौराणिक विरासत का आत्माविहीन खोल बनकर रह गई हैं, जबकि भारत में हम इन हजारों साल पुरानी यादों के जीवंत सत्व से अंतहीन रूप से प्रेरित होते रहते हैं?
कोई सतही सा विश्लेषण भी बता सकता है कि हमारी पौराणिक कथाएं तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं। मगर मैं इस शेखी पर सावधानी बरतूंगा। कोई संदेह नहीं, वे आनंदपूर्ण हैं। मगर वह तो ज्य़्ाूस, और ओलिंपस के उनके साथी की यूनानी कथा भी हैं- और अपने अर्थ में उतनी ही भव्य और गहन भी हैं। हथौड़ाधारी थॉर नॉर्स पौराणिक कथाओं के प्रेरणादायक देवता हैं (कुछ लोगों का मानना है कि ‘थर्स्डे’ का मूल शब्द वास्तव में थॉर’स डे है)। फिर क्यों ये शक्तिशाली देवता गुमनामी में खो गए? वे क्यों व्यावहारिक संदर्भांे में मृत हो गए?
मेरा मानना है ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने अपने लोगों के जीवन में अपनी प्रासंगिकता खो दी थी। क्यों? क्योंकि देवता आधुनिक नहीं हुए और अपने भक्तों के साथ नहीं चल पाए। ओलिंपियन देवताओं की कथाएं प्राचीन युग में प्रासंगिक थीं। मगर ईसा के बाद के युग की पहली सहस्राब्दी में, जब सामी धर्मों का प्रभाव बढ़ा, तब भी ज्यूस और उनके परिवार की कहानियां अपरिवर्तित रहीं, जबकि यूनानी लोग आधुनिक हो गए थे। उनके पुराने देवता अब स्वच्छंद और साहसी नहीं, बल्कि पतित और कामुक लगते थे। विकासशील यूनानी लोग अपने ओलिंपियन देवताओं से प्रेम और उनका सम्मान नहीं कर पाते थे। प्रभावी रूप से इसी ने उन्हें ‘मार डाला’।
भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ? मेरे ख्याल से इसका कारण अपनी पौराणिक कथाओं का आधुनिकीकरण और स्थानिकीकरण करने की हमारी बुद्धिमत्ता थी। अपने तर्क को मैं हमारे सबसे ज्यादा लोकप्रिय महाकाव्य रामायण के माध्यम से स्पष्ट करता हूं। 1980 के दशक में प्रसारित हुए एक टेलीविजन धारावाहिक ने भगवान राम की कहानी का हमारे युग में आधुनिकीकरण किया। यह मुख्य रूप से संत तुलसीदास द्वारा सोलहवीं सदी में लिखी रामचरितमानस पर आधारित था। मगर स्वयं तुलसीदास जी ने मूल वाल्मीकि रामायण में महत्वपूर्ण बदलाव किए थे, और भगवान राम की कहानी का उस युग के अनुरूप आधुनिकीकरण कर दिया था जिसमें वे रहते थे। दक्षिण की कम्ब रामायणम् ने रामायण का बारहवीं सदी के तमिलों की संवेदनशीलता के अनुरूप स्थानिकीकरण कर दिया था। एशिया भर में रामायण के संभवत: सैकड़ों संस्करण हैं जिनमें प्राचीन पाठ के बेहतरीन पहलू को बरकरार रखते हुए मूल विचार तो समान रहे हैं, मगर उनमें नएपन का आकर्षण जोड़ दिया गया है… और इस तरह हमारी पौराणिक कथाओं को प्रासंगिक, हमेशा समकालीन और जीवंत बनाए रखा है। और यह केवल हिंदुओं की विशेषता नहीं है- यह गुण भारत में माने जाने वाले सभी धर्मों द्वारा अपनाया गया है। इस्लाम और ईसाई धर्म का भी स्थानिकीकरण हुआ है, और पारसी और यहूदी धर्म का भी। यह असामान्य नहीं है कि किसी भारतीय चर्च में जाएं और मदर मेरी की मूर्ति को साड़ी में लिपटा पाएं… भारतीय स्त्रियों की तरह। महान सूफी संतों ने इस्लाम का उपदेश देने के लिए स्थानीय भारतीय पौराणिक कथाओं और प्रतीकों का प्रयोग किया था।
कुल मिलाकर, हमारी पौराणिक कथाओं के जीवंत बने रहने की वजह यह है कि दूसरे ज्यादातर देशों के विपरीत, ऐतिहासिक रूप से भारत में धर्म और उदारवाद कभी संघर्षरत नहीं रहे। नतीजतन, विभिन्न धर्मों ने सहअस्तित्व में रहना और कमोबेश खुले दिमाग़्ा का होना सीखा। हम अपने धर्मशास्त्र को प्रासंगिक… और इस तरह जीवंत रखते हुए आधुनिकीकरण और स्थानिकीकरण का आनंद लेते हैं।
अतार्किक रूप से यह मुमकिन है कि उदारवाद और धार्मिकता परस्पर एक-दूसरे को पोषित करें। और हमारा भारत, यह सुंदर देश, हमेशा तर्क के विपरीत रहा है! 

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