कुछ वर्ष पूर्व विश्व धर्म संसद ने मुझे एक आयोजन में बोलने का आमंत्रण भेजा था। मुझे दिया गया विषय था: ‘अंतरधार्मिक संवाद में युवाओं की भूमिका।’ मैंने मन में सोचा- क्यों न युवाओं से ही पूछा जाए कि मुझे क्या बोलना चाहिए? आखिरकार, मुझ चालीस वर्षीय की तुलना में वे बेहतर जानते होंगे कि उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए।
तो मैं कुछ छात्रों से मिला। और यह, मुझे मानना होगा, बहुत दिलचस्प बातचीत रही। कुछ युवाओं ने लापरवाही से टिप्पणी की, ‘अंतरधार्मिक संवाद अच्छा आइडिया है… आप बड़े लोग अच्छा काम करते रहिए और हम अपनी जिंदगी जी रहे हैं।’ एक और नौजवान ने ढीला-ढाला सा जवाब दिया और कहा, ‘उपाय एक-दूसरे को दोस्तों की तरह देखना है, न कि हिंद,ू मुसलमान, ईसाई या सिख की तरह…’
मेरा मानना है कि आपमें से कुछ लोग जो विचारशील हैं, इन प्रतिक्रियाओं को बहुत सीधा-सादा मानेंगे। मगर सच यह है कि बहुत से लोग धर्म को सीधे-सादे रूप में ही लेते हैं (हालांकि दूसरे विषयों की ओर उनका नजरिया कहीं ज्य़्ाादा विचारपूर्ण होता है)। ज्य़्ाादातर लोग वास्तव में अपने खुद के धर्मग्रंथों को नहीं पढ़ते हैं (दूसरे धर्मांे की तो बात ही छोड़ें)। उन्हें बस कुछेक अनुष्ठान पता होते हैं जो उनके धार्मिक जीवन को परिभाषित करते हैं। इस वास्तविकता को देखते हुए ये सीधे-सादे सुझाव कारगर हो सकते हैं। मगर एक नौजवान की टिप्पणी ने मुझे सोच में डाल दिया। उसने कहा कि हमें इस शर्त पर अतंरधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि पति या पत्नी में से कोई भी दूसरे के धर्म में परिवर्तित नहीं होगा। उसका मानना था कि इस तरह से बहुत से लोग अपने धर्म के अलावा किसी दूसरे धर्म को जान सकेंगे… शायद कुछ समानताएं और इसी प्रकार कुछ विभिन्नताएं भी देख सकें। और कि यह सही भी है कि कुछ असमानताएं हों, क्योंकि विभिन्न धर्मों के लिए एकदम एक जैसा होना तो नामुमकिन ही है। लेकिन दंपती, एक गहन भाव से, विभिन्नताओं के साथ जीना सीखेंगे। उसने कहा कि एक ही धर्म के अंदर भी, उनके समेत भी जो एक सत्य का दावा करते हैं, विभिन्न संप्रदाय और व्याख्याएं होती हैं। इस बात ने मुझे सोच में डाल दिया… उस नौजवान की विचार प्रक्रिया में कहीं कोई गहरा दार्शनिक विचार गुंथा हो सकता है।
मेरा सुझाव है कि शादी की बात का तो अलग रख दें, जो कि आदर्श रूप से प्रेम पर आधारित होनी चाहिए, धार्मिक समानताओं या असमानताओं पर नहीं। लेकिन अहम विचार यह है- धर्म ‘असमान’ होते हैं, और यह चिंता की बात नहीं होनी चाहिए।
तो फिर, अगर सभी धर्मों के बीच छलावा सी समानताएं नहीं तलाशनी हैं तो अतंरधार्मिक संवाद का तुक ही क्या है? ऐसा करें ही क्यों? मेरे ख्याल से आपको उस मानवीय गुण को संतुष्ट करने के लिए ऐसा करना चाहिए जो कि हमारे अनूठेपन के मूल में स्थित है- बौद्धिक उत्सुकता। जिस तरह हम दूसरे जीवनों और जीव रूपों के विषय में जानने की कोशिश करते हैं उसी तरह हमें ईश्वर की ओर जाने वाले विभिन्न मार्गों को जानने की भी कोशिश करनी चाहिए।
ज्ञान का कोई भी सूत्र व्यर्थ नहीं है। इस महायात्रा में यह एक भूमिका निभाता है जिस पर हमारी आत्माएं निकली हैं। इस जीवन में या आने वाले जीवनों में।