मीडिया ने पांच फीसदी हिस्से को ही मान लिया जम्मू-कश्मीर

जम्मू कश्मीर में सबसे बड़ा क्षेत्र लेह लद्दाख है, उससे छोटा जम्मू और सबसे छोटा कश्मीर। और मीडिया सबसे ज्यादा चर्चा कश्मीर घाटी की करता है। जम्मू और लद्दाख का क्षेत्र 85 फीसदी है और कश्मीर क्षेत्र (घाटी क्षेत्र नहीं) केवल पंद्रह फीसदी है। कश्मीर क्षेत्र में भी तीन घाटियां हैं- श्रीनगर, लोलाब और गुरेद। कश्मीर क्षेत्र की तीन घाटियों में से एक घाटी को हम कश्मीर घाटी के नाम से जानते हैं जो कि श्रीनगर घाटी है। यूं समझें कि पंद्रह फीसदी का भी एक तिहाई हिस्सा है जिसे कश्मीर घाटी कहा जाता है, जहां की सारी स्टोरीज होती हैं- अलगाववादियों की कहानियां, पत्थरबाजी आदि। जम्मू कश्मीर का 90 से 95 फीसदी क्षेत्र सामान्य है। वह समस्याग्रस्त नहीं है। वहां राष्टÑवादी लोग रहते हैं। उन्होंने एक सरकार को चुना और इस अपेक्षा से चुना कि वह उनके मुद्दे हल करेगी। गवर्नंेस, शांति, ऐसा माहौल जिसमें वे समा सकें और ठीकठाक जीवन व्यतीत कर सकें, कमाई के साधन हों, उनके बच्चे आगे बढ़ें इसके लिए पढ़ाई और आगे काम करने के अवसर हों- दूसरे राज्यों की तरह जम्मू कश्मीर के लोग भी यही चाहते हैं और बहुत हद तक उनको अभी तक यह नहीं मिल पाया है। ये अवसर कैसे मिलेंगे क्योंकि जो कानून लागू हैं जम्मू कश्मीर में उनके अनुसार वहां इंडस्ट्री नहीं लगाई जा सकती। रोजगार, पढ़ाई के अवसर न मिलने पर वहां के बच्चों को पढ़ाई और रोजगार के लिए बाहर निकलना पड़ता है। कश्मीर घाटी में एक बड़ा वर्ग है जो अपने बच्चों, खासकर लड़कों को, पढ़ाई के लिए दूसरे राज्यों में भेजता है ताकि वे गलत लोगों के हत्थे न चढ़ जाएं।
दुर्भाग्य से मीडिया राज्य के लोगों की बात ही नहीं करती। मीडिया ज्यादातर वहां के अलगाववादियों की बात करती है जो संख्या में बहुत कम हैं लेकिन न्यूसेंस फैक्टर उन्होंने बहुत अच्छे से मैनेज कर रखा है। हल्ला-शोर, पत्थरबाजी से उन्होंने मीडिया का सारा ध्यान अपने पर केंद्रित किया हुआ है। हाल तक जो सरकार वहां रही उसमें दोनों ही दलों पीडीपी और भाजपा ने अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों को देखा और बाद में लगा कि साथ रहते हुए तो हम उनके लिए काम नहीं कर पा रहे हैं। फिर अलग होना स्वाभाविक था। आगे वहां ऐसी सरकार आनी चाहिए जिसे काम करने के लिए पूरा जनादेश प्राप्त हो।
जम्मू कश्मीर में सबसे पहले तो पंचायत चुनाव होने चाहिए। वे लंबे समय से लंबित हैं। पंचायत चुनावों से जमीनी स्तर पर नेतृत्व विकसित होता है। और आतंकवादियों को यह मंजूर नहीं है। उन्होंने पहले भी कई पंच और सरपंच को निशाना बनाया। पंचायतीराज मजबूत होगा और स्थानीय निकाय के चुनाव होंगे तो वे अपनी चीजों को खुद ही देख-संभाल सकेंगे। अभी आप कश्मीर, लद्दाख, जम्मू किसी भी क्षेत्र में जाएं तो गवर्नंेस वहां शून्य के बराबर है। सड़क, बिजली, पानी की सुविधाएं बहुत कम हैं और दूरदराज के इलाकों में तो पहुंची ही नहीं हैं। जम्मू के ऊपरी क्षेत्र में, लद्दाख में ऐसे कई इलाके हैं जो कश्मीर के नजारों को मात देते हैं। उन्हें पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर कैसे होगा? वहां कश्मीर केंद्रित सरकार ही रही है। सीटों का परिसीमन होना जरूरी है जो हुआ ही नहीं। इसी कारण जो सबसे छोटा क्षेत्र है वहां सबसे ज्यादा सीटें हैं। यानी कश्मीर के उस छोटे से क्षेत्र के लोग ही पूरे राज्य पर राज करते रहेंगे। पर्यटन पूरे राज्य का आर्थिक मेरुदंड है लेकिन उसका कोई पुरसाहाल नहीं है।
पिछले साल अक्टूबर नवंबर में मैं कश्मीर में थी और हवाला लेनदेन को लेकर हुर्रियत नेताओं और उनसे जुड़े नेताओं के घरों पर एनआईए ने छापे मारे थे। कुछ गिरफ्तारियां भी हुई थीं। कश्मीरी जनता इससे बहुत खुश थी और उनके शब्द थे, ‘इन लोगों को बेनकाब होना ही चाहिए। इन लोगों ने कश्मीर को बर्बाद कर दिया। पर अब सरकार ढिलाई न करे और कड़ी कार्रवाई करे। ये सब इसी काबिल लोग हैं।’ इससे लगता है कि आम जनता का हुर्रियत से भरोसा पूरी तरह से उठ चुका है।
कश्मीर में फिर चुनाव होंगे। लोग 2014, 2015 और पहले भी हर बार बड़ी उम्मीद से सरकार चुनते हैं कि ये सरकार उनकी सुनेगी। हर बार निराश होते हैं, थकते हैं, लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ते।

—अजय विद्युत से बातचीत पर आधारित

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