क्षेत्रीय क्षत्रपों के अंत की शुरुआत

उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव में तीन सीटें जीतने के बाद महागठबंधन (सपा-बसपा-रालोद) का आत्मविश्वास बढऩा लाजिमी था. लेकिन, यह आत्मविश्वास इतनी जल्दी डिग जाएगा, इसका अंदाजा शायद ही मायावती और अखिलेश यादव को रहा होगा. शायद तभी, जब भाजपा नेतृत्व और उनकी टीम अप्रैल-मई की गर्मी में गांव-गलियों की खाक छान रही थी, तब तक महागठबंधन के दो प्रमुख नेताओं मायावती और अखिलेश यादव ने अपना संयुक्त प्रचार अभियान शुरू नहीं कर सके थे, इस भरोसे कि अब हमारा समीकरण है और हम हैं. लेकिन, वे भूल गए कि यह 21वीं शताब्दी है, जहां जेन एक्ससे आगे जेन वाईऔर अब तो जेन जेडका जमाना है, जिसके लिए उन विचारधाराओं का शायद अब कोई उतना महत्व नहीं, जिन्हें भुना-भुनाकर महागठबंधन के नेता आज तक चुनाव जीतते रहे हंै. यह लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम में साफ-साफ देखने को मिल रहा है. अखिलेश यादव की पत्नी, उनके दो अन्य रिश्तेदार चुनाव हार गए. रालोद के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह, उनके बेटे जयंत चौधरी हार गए. खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार गए. जाहिर है, न तो जातीय समीकरण काम आया और न वे मुद्दे, जिनके सहारे उक्त नेता अब तक जीतते आए थे. दो राष्ट्रीय दलों (सपा-बसपा) और एक क्षेत्रीय दल के संयुक्त प्रयासों के बाद भी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने भाजपा और उसके सहयोगी अपना दल को 80 लोकसभा सीटों में से 64 पर जीत दिला दी. दूसरी तरफ, कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी और फतेहपुर सीकरी से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर भी अपनी सीट नहीं बचा सके. कांग्रेस के बड़े नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद, सलमान खुर्शीद जैसे दिग्गज भी अपनी सीट नहीं बचा सके. अमेठी का हाल तो यह रहा कि शुरुआती राउंड से ही राहुल गांधी स्मृति ईरानी से पिछड़ रहे थे. यादव बहुल इलाके से भी सपा के धर्मेंद्र यादव हार गए.

2 thoughts on “क्षेत्रीय क्षत्रपों के अंत की शुरुआत

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