प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जित करने वाले गैसों के बढ़ते इस्तेमाल के चलते वैश्विक तापमान में हुई बढ़ोतरी का असर अब खतरनाक स्तर पर पहुंचने लगा है। वैश्विक पर्यावरण को हो रहे नुकसान का असर अंटार्कटिका पर साफ देखा जा रहा है। यहां मौजूद अब तक का सबसे बड़ा ग्लेशियर अंटार्कटिका के लार्सन सी से टूट कर अलग हो गया है। वैज्ञानिकों ने इसकी भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी। 2014 से ही इसके टूटने की प्रक्रिया जारी थी। टूटकर अलग हुए इस ग्लेशियर का आकार 5,800 वर्ग किलोमीटर है जो भारत की राजधानी दिल्ली से आकार में चार गुना और अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर से सात गुना बड़ा है। इसके टूटने से अंटार्कटिका महाद्वीप का परिदृश्य हमेशा के लिए बदल गया है।
वैज्ञानिकों ने इस ग्लेशियर के अलग होने के पीछे कार्बन उत्सर्जन को सबसे बड़ी वजह बताया है। उनके मुताबिक कार्बन उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी हो रही है जिससे ग्लेशियर जल्दी पिघलते जा रहे हैं। सालों से पश्चिमी अंटार्कटिका के हिम चट्टानों में बढ़ती दरार को देख रहे शोधकतार्ओं ने कहा कि यह घटना 10 जुलाई से लेकर आज के बीच किसी समय हुई है। इस हिमशैल को ए68 नाम दिये जाने की संभावना है। यह एक खरब टन से ज्यादा वजनी है। यह आकार में एरी झील का दोगुना है। एरी को दुनिया के सबसे बड़ी झीलों में से एक माना जाता है।
क्या होगा असर
इसके टूटने से दुनिया के लिए नया खतरा पैदा हो गया है। इससे न सिर्फ समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा जिससे समुद्री टापुओं और किनारे स्थित शहर डूब क्षेत्र में आ जाएंगे बल्कि यह दक्षिणी ध्रुव के आसपास जहाजों के लिये गंभीर खतरा बन सकता है। वैसे तो अंटार्कटिका से हमेशा ग्लेशियर अलग होते रहते हैं लेकिन यह काफी बड़ा है। वैज्ञानिकों की मानें तो इस हिमखंड के अलग हो जाने से वैश्विक समुद्री स्तर में 10 सेंटीमीटर की वृद्धि हो जाएगी। यह 200 मीटर मोटा ग्लेशियर बहुत दूर तक तैरकर नहीं जाएगा लेकिन इस पर नजर रखने की जरूरत है। मुमकिन है कि हवा और दबाव इसे पूर्वी अंटार्टिका की ओर ढकेल दे। ऐसे में यह जहाजों के लिए काफी नुकसानदायक साबित हो सकता है।
भारत पर असर
समुद्री स्तर में बढ़ोतरी होने से अंडमान और निकोबार के कई टापू और बंगाल की खाड़ी में सुंदरबन के हिस्से डूब सकते हैं। हालांकि, अरब सागर की तरफ इसका असर कम होगा लेकिन यह लंबे समय में दिखेगा। भारत की 7 हजार 500 किलोमीट लंबी तटीय रेखा को इससे खतरा है।
लार्सेन ए और बी पहले ही ढह चुके हैं
वैज्ञानिकों के मुताबिक समुद्र स्तर पर इस हिमखंड के अलग होने से तत्काल असर नहीं आएगा लेकिन यह लार्सेन सी ग्लेशियर के फैलाव को 12 प्रतिशत तक कम कर देगा। लार्सेन ए और लार्सेन बी ग्लेशियर साल 1995 और 2002 में ही ढहकर खत्म हो चुके हैं।
इस ग्लेशियर के टूटकर अलग होने का पता नासा के एक्वा मोडिस सैटेलाइट से मिले डाटा से चला है। इसके टूटने की प्रक्रिया 2014 में ही शुरू हो गई थी। 25 से 31 मई के बीच ही इसमें 17 किमी लंबी दरार आ गई थी। 24 और 27 जून के बीच बर्फ तेजी से अलग होने लगी थी और इसकी दरार रोजाना 10 मीटर बढ़ रही थी। वैज्ञानिको को इस बात का पहले से ही अंदाजा था कि यह ग्लेशियर टूटकर अलग हो सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी अहम वजह है कार्बन उत्सर्जन जिसके चलते ग्लेशियर का तापमान बढ़ा है। आपको बता दें कि कार्बन उत्सर्जन मुख्य रूप से 03 गैस से होता है जिसे एसी और फ्रिज में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा तमाम इंडस्ट्री में भी इस गैस का इस्तेमाल किया जाता है।