क्या हिन्दी में कुछ भी सकारात्मक नहीं हो रहा और दुनिया की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है?

सकारात्मक काम भी निश्चित रूप से हो रहा है। अगर मुझ जैसे अकिंचन कवि को गूगल हेडक्वार्टर्स बुलाकर भाषण कराता है, स्टेनफोर्ड बुलाना चाहता है। या अभी मैं विक्टोरिया यूनिवर्सिटी तथा और भी विदेशी संस्थानों में गया तो उनमें हिन्दी के बारे में जानने की बड़ी उत्कट उत्सुकता थी कि इसका शब्द संसार क्या है, साहित्य संसार क्या है?

ये फेसबुक जैसे अत्याधुनिक परिवार की बात करें तो विश्व के किसी भी कवि के मुकाबले सबसे बड़ा परिवार मेरा है तीस लाख लोगों का। न्यूजीलैंड की तो आबादी ही इतनी है। ट्विटर पर एक लाख से ज्यादा लोग मेरे साथ कवि होने के नाते ही हैं। यूट्यूब पर भी लाखों-करोड़ों देखते हैं।

हिन्दी का कारवां बढ़ रहा है और नए लोग भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं। मुख्यधारा की कविता डिजिटलाइज हो रही है। कविताकोश जैसे साइटें देखी जा रही हैं। यह सब काफी सकारात्मक प्रभाव है।

लेकिन मैं फिर आपसे कह दूं कि हिन्दी जब तक आमोद-विनोद-मनोरंजन की भाषा रहेगी तब तक अंग्रेजी या दुनिया की बाकी भाषाओं जितनी तरक्की नहीं कर पाएगी। यह दुनिया में तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। पहले पर अंग्रेजी और दूसरे पर चीनी हैं।

संस्कृत में वांग्मय अच्छा लिखा जाता था। कविता, कहानी चलती थी संस्कृत में, लेकिन वह ज्ञान की भाषा से अलग हो गई। ज्ञान क्या था उस समय! मिसाइल तो बन नहीं रही थी। उस समय ज्ञान था धर्म-अध्यात्म। पाली और प्राकृत का उपयोग करके महात्मा बुद्ध ने वह मिथक तोड़ दिया। और संस्कृत छिटककर खड़ी हो गई।

अगर संस्कृत ने पाली और प्राकृत की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए खुद को तत्पर किया होता तो आज वह वहां नहीं होती, जहां है। हिन्दी को भी खुद को समृद्ध करके आज की चुनौतियों को स्वीकार करना होगा।

 

क्या हिन्दी को संवारने में सरकारें भी कुछ कर सकती हैं? वैसे करती तो रही हैं कुछ न कुछ?

-सरकारों के भरोसे मत रहिए। उन्होंने कभी कुछ नहीं किया। हिन्दी को खुद ही बड़े बेटे-बेटियां पैदा करने पड़ेंगे अन्यथा सरकारें और सत्ता सदा ही आपकी बौद्धिक चेतना के बधियाकर्म की चेष्टा करेंगे। 1977 के बाद से यह भारत की प्रवृत्ति बन गई है।

श्रीमती इंदिरा गांधी हारीं… और फिर लौटकर सत्ता में आर्इं तो उनको यह समझ में आ गया कि उनकी हार के पीछे तटस्थ, निष्पक्ष, मौलिक, प्रतिभावान, स्वतंत्र और उद्दाम चेतना वाले कवि, लेखक, मंचीय लोग, कलाकारों की हिस्सेदारी थी। उनकी हार के पीछे धर्मवीर भारती थे, दुष्यंत थे। नागार्जुन थे- ‘इन्दु जी, इन्दु जी क्या हुआ आपको/ सत्ता की मस्ती में भूल गर्इं बाप को/ …अब तो बंद करो हे देवि, यह चुनाव का भीषर प्रहसन…।’ उनकी हार के पीछे रामनाथ गोयनका थे। तो इंदिरा जी ने सोचा कि इनको सबसे पहले कैसे खत्म किया जाए।

उन्हें बताया गया कि चीजें दो तरीकों से काबू में आ जाएंगी। एक दंड और दूसरा पुरस्कार। दंड की व्यवस्था रखो। प्रच्छन्न नीचे दंड दे दो। लाइट काट दो, कागज का कोटा काट दो… परेशान करो, दरवाजे तक लाओ। और दूसरा पुरस्कार दो। पदमश्री बांटो, अकादमी अवार्ड बांटो, एक विश्वविद्यालय बनाकर उसमें बैठा दो। जेएनयू में बहुत से लोग लाकर प्रतिष्ठित किए गए। हालांकि प्रतिभासम्पन्न लोग थे, पर कांग्रेस के पास बेपढ़ों की जमात थी। कांग्रेस में लिखने-पढ़ने की परंपरा लालबहादुर शास्त्री के बाद समाप्त हो गई। तब तक तो उसमें बढ़िया पढ़ने-लिखने वाले लोग, बुद्धिजीवी लोग थे।

श्रीमती इंदिरा गांधी के आने के बाद व्यक्तिवाद और वंशवाद आ गया। संजय गांधी तक को सहन किया। सबने देखा बड़े-बड़े मुख्यमंत्रियों को उनकी जूतियां लेकर भागते। पार्टी के भीतर उनकी अराजक युवता को किसी ने चुनौती नहीं दी। जिन्होंने दी, वे नष्ट कर दिए गए। फिर यही चीजें सारी पार्टियों ने स्वीकार कर लीं कि जब-जब सत्ता में आओ संस्कृति, कला और साहित्य के केंद्रों पर अपने लोगों को कब्जा करवा दो। अब कांग्रेस के पास तो अपने थे नहीं, तो उन्होंने वामपंथियों से कब्जा कराया। उन्हें  वामपंथी चाहिए थे दक्षिणपंथ से लड़ने के लिए। भाजपा से, आरएसएस से लड़ने के लिए। उनमें बहुत सारे लोग कुपढ़ थे जिन्होंने चीजें खराब तरीके से पढ़ी थीं। जिन्हें वेद में और कुछ समझ में नहीं आया था, सिवा दो-चार फालतू बातों के।

जब-जब भाजपा आई तो उसके पास अनपढ़ों की फौज थी। वह उन्हें प्रमोट करने लगी। इसीलिए वह खाली रह जाती है। (अब आता हूं विश्व हिन्दी सम्मेलन पर जिसकी बात शुरू में करनी थी) आज अगर इसमें नामवर जी, अशोक वाजपेयी और बाकी कुछ लोग नहीं हैं, तो यह कैसा विश्व हिन्दी सम्मेलन है। आप कहते कुछ भी रहिए! आप एक लाख बार असहमत रहिए अशोक वाजपेयी से, नामवर सिंह से, पर क्या नामवर जैसे लेख, समीक्षाएं कभी किसी से लिख दीं।