कुमार विश्वास- युवाओं के चहेते कवि, केजरीवाल के भरोसेमंद दोस्त। सितारों जैसी स्टाइल और रईसों जैसे ठाठ के साथ सबसे ज्यादा पारिश्रमिक लेने वाले के तौर पर जाने जाते हैं। गूगल हेडक्वार्टर उनको हिन्दी पर भाषण देने बुलाता है तो फेसबुक पर दुनिया के किसी भी कवि से बड़ा परिवार उनका है, न्यूजीलैंड की आवादी जितना। उनसे अजय विद्युत की बातचीत के प्रमुख अंश

 

अभी विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ। देश-दुनिया में आज हिन्दी भाषा और साहित्य कहां-कितना पहुंचा है?

कुछ समय देंगे तो अच्छे से बता पाऊंगा। हिन्दी इस समय दो-ढाई सौ करोड़ लोगों की जबान है। सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तानी। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका में लोग हिन्दी बोलते हैं। फिर आप्रवासियों की संख्या बहुत बड़ी है। जिस मां की रसोई में ढाई सौ करोड़ बेटे-बेटियां खाते हों, उसे इंतजाम कितना करना है?

इंतजाम हुआ नहीं। उसके बेटे-बेटियों ने सबके लिए खाना बनाया नहीं। तो उसके भूखे बच्चों को क्या पढ़ना पड़ रहा है- चेतन भगत, शोभा डे। उनको हिन्दी में अनुवाद करके छापो तो हमारे यहां जो अश्लील चीजें छपती हैं, उनमें वे जब्त हो जाएं। खुद को ठीकठाक बुद्धिजीवी कहलाने और मानसिक खुराक के लिए उसके बच्चों को क्या पढ़ना पड़ा- खुशवंत सिंह। मैंने उनका सारा साहित्य पढ़ा है। ‘आई शैल नॉट हियर द नाइटिंगेल’के अलावा कोई दूसरी पुस्तक उनकी ला दीजिए जिसमें कोई बहुत बड़ा साहित्य बोध हो।

kumar2aमैंने शोभा जी का भी ‘स्टडी डेज’से लेकर ‘सिस्टर्स’तक पूरा साहित्य पढ़ा है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वहां कोई ऐसी बड़ी उत्कृष्ट बात है जो मेरे प्रेमचंद के पासंग भी बैठती है। जो हमारे उदय प्रकाश के आसपास भी बैठती हो जो हमारे नए लेखकों में शुमार हैं।

यह हिन्दी के बेटे-बेटियों की खुद की कमी है, उनकी क्षमताओं, प्रयासों, मेहनत, तपस्या, प्रेरणा में कमी है कि वे हिन्दी को सही भोजन यानी सही निबन्ध, कविता, लेख, पत्रकारिता नहीं दे पा रहे हैं। यही कारण है कि हिन्दी की जो सबसे ज्यादा बिकनेवाली सामयिक पत्रिका है, वह अंग्रेजी का अनुवाद है।

हिन्दी वालों को शर्म आनी चाहिए कि जिस देश में दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं का स्थान था, वे छोटे-छोटे कस्बों में पाठकों तक पहुंचती थीं और उनके अंक (जैसे होली व अन्य विशेषांक) रखे जाते थे… अगर वे सारे पाठक मारे हैं तो उनकी हत्या हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े उन संस्थानों और लोगों ने की है जो पत्रिका के नाम पर फरेब बेचते रहे। हिन्दी तो पूरा विश्व बोलना चाहता है लेकिन हिन्दी के बेटे-बेटियों की रसोई कम है। यह पहली बात है।

 

…और दूसरी बात क्या है?

दूसरी बात, ज्ञान की भाषा ही सम्मान की भाषा बनती है। जिसमें ज्ञान आता है, उसमें सम्मान है। चीनी क्यों है इतनी फैली, चीनी उससे ज्ञान आ रहा है। इसी तरह जर्मन और फ्रांसीसी अपनी भाषा छोड़ने को तैयार नहीं हैं। आपका बच्चा आपसे सवाल ही नहीं पूछेगा, अगर ज्ञान से पहले उसको भाषा में अटकना पड़े। और यहां, अंग्रेजी के पक्षधर भरे पड़े हैं।

अंग्रेज चले गए, देश आजाद हो गया। तुम्हारी चीजें स्वतंत्र हो गर्इं और तुम अंग्रेजी से ही चिपके रहे, उसमें पढ़ना जारी रखा। विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ा। उसके बाद तुम्हें कभी नोबल मिला? तुमने कोई बड़ा वैज्ञानिक आविष्कार किया? ऐसा नहीं कि भारतीयों ने आविष्कार नहीं किए! डॉ. हरगोविन्द खुराना ने किया… पर कब? अमेरिकी नागरिक बनने के बाद! सत्येन्द्र नाथ बोस ने ‘ओजोन’आर्इंस्टीन के साथ मिलकर किया। आर्इंस्टीन-बोस थ्योरी अलग है… पर कब? आजादी से पहले, क्योंकि बोस ने अपने गुरु से ज्ञान बचपन में बांग्ला में लिया। उन्होंने विज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांत बांग्ला में सम झे इसलिए उनकी आत्मा में बैठ गए और बाद में उन्होंने प्रस्तुत किया।

आज क्या है? आप इंजीनियर पैदा कर रहे हैं वैज्ञानिक नहीं। आप फेसबुक पर हिन्दी के एक लाख कवि पैदा कर रहे हैं, पर एक कवि ऐसा नहीं है जिसके बारे में वियतनाम या स्पेन का कवि सोचे कि इसे पढ़ना चाहिए।