ले डूबा पर्यावरण विनाश से विकास

महेंद्र पांडेय

दार्शनिक फ्रेडरिक एंगेल्स ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले कहा था कि प्रकृति पर मानवीय विजय से हमें आत्मविभोर नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रकृति अपनी हरेक पराजय का हमसे प्रतिशोध लेती है। पिछले तीन दशकों से वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि प्रकृति का हम बहुत दोहन कर चुके हैं और इसके भयंकर परिणाम भुगतने होंगे मगर सरकारें विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण का विनाश करने में जुटी हैं। पर्यावरण को बचाने से अधिक आसान प्राकृतिक आपदा में मारे गए लोगों को मुवावजा देना है, ऐसा सरकारें मानती हैं। केरल की विनाशकारी बाढ़ और इससे हुए नुकसान को भी प्राकृतिक कम और मानव निर्मित कहना ज्यादा उचित है। इस त्रासदी के बीच प्रदेश के मुख्य सचिव ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर राज्य में आई बाढ़ के लिए तमिलनाडु पर आरोप लगाया है। इसमें कहा गया है कि तमिलनाडु के मुल्लापेरियार बांध से अचानक अतिरिक्त मात्रा में पानी छोड़े जाने की वजह से विनाशकारी बाढ़ आई।
तथ्य बता रहे हैं कि केरल में जो बाढ़ आई वैसी बाढ़ इससे पहले वर्ष 1924 में आई थी। इस वर्ष की बाढ़ की विभीषिका का आकलन करने के लिए यह तथ्य ही काफी है कि लगभग 450 लोगों की मृत्यु हो गई और 21 अगस्त तक 10.28 लाख लोग अपना घरबार छोड़कर 3,200 शरणार्थी शिविरों में रह रहे थे। इस प्रलयंकारी बाढ़ में प्रदेश की बड़ी आबादी अपना सबकुछ खो चुकी है और पानी उतरने के साथ महामारी फैलने का खतरा बढ़ गया है। एक आकलन के अनुसार बाढ़ की वजह से 60 हजार से अधिक मकान पूरी तरह से ध्वस्त हो गए हैं। एक लाख किलोमीटर से अधिक सड़कें बर्बाद हो चुकी हैं और लगभग 200 छोटे-बड़े पुल नष्ट हो गए हैं। यही नहीं, 40 हजार हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल में लगी फसलों का नुकसान हो चुका है। इंसानों के साथ करीब 46 हजार मवेशी और 2 लाख से अधिक पोल्ट्री (मुर्गी आदि) का नुकसान हुआ है। केंद्र सरकार ने इस बाढ़ को भयानक आपदा करार दिया है।
अगर इस तबाही की कीमत लगाई जाए तो अब तक राज्य को कुल 19,512 करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ा है। औद्योगिक संगठन एसोचैम के मुताबिक, यह नुकसान 20 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का है। सबसे ज्यादा नुकसान पर्यटन क्षेत्र को हुआ है जो राज्य की अर्थव्यवस्था में 10 फीसदी से ज्यादा योगदान देता है। पहले से ही निपाह वायरस के कारण नुकसान झेल रहे पर्यटन क्षेत्र पर बाढ़ की दोहरी मार पड़ी है। बताया जा रहा है कि करीब 80 फीसदी बुकिंग रद्द की जा चुकी है। साथ ही पर्यटन में काम आने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। जानकारों की मानें तो इसे दोबारा खड़े होने में कई साल लग सकते हैं। पर्यटन के अलावा चाय, कॉफी, इलायची और रबड़ की खेती का भी जीडीपी में करीब 10 फीसदी योगदान है। खेतों को हुए नुकसान से किसानों और राजस्व को बड़ी चोट पहुंची है। भारी बारिश की वजह से हुए भूस्खलन के कारण कृषि क्षेत्र को हुए 600 करोड़ रुपये के नुकसान में से चाय के बगानों को 150 से 200 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। सड़कों के टूटने से करीब 13,000 करोड़ और पुलों के ढहने से 800 करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान है।

मानसून का बदलता मिजाज
मौसम विभाग के अनुसार, केरल में मानसून का मिजाज देश के दूसरे हिस्सों से अलग है। 16 अगस्त तक देश के कुल 640 जिलों में से 283 में सामान्य से कम बारिश हुई मगर केरल के कुल 14 जिलों में से 12 जिलों में सामान्य से कहीं अधिक बारिश दर्ज की गई। केरल में इससे पहले 1924 में भयानक बाढ़ आई थी जिसे प्रदेश के लोग 99 की बाढ़ के नाम से जानते हैं। दरअसल, वर्ष 1924 में मलयाली वर्ष 1099 चल रहा था। तब केरल में 3,368 मिलीमीटर वर्षा हुई थी जबकि सामान्य वर्षा 1606.05 मिलीमीटर है। उस वर्ष तीन सप्ताह तक लगातार तेज बारिश होती रही थी और बाढ़ से 1,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई थी। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि उस बाढ़ में कासिंथिरी मलाई नामक एक पहाड़ी पूरी तरह से बह गई थी। उस समय पेरियार नदी में भयानक बाढ़ आई थी।
मौसम विभाग के अनुसार, केरल में इस वर्ष 1 जून से 15 अगस्त तक कुल 2,087.67 मिलीमीटर बारिश हो चुकी है जो पूरे मानसून के दौरान होने वाली सामान्य बारिश से 30 प्रतिशत अधिक है। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि देश में पिछले 115 वर्षों में मानसून अपेक्षाकृत कमजोर पड़ा है पर केरल में बारिश बढ़ गई है। वर्ष 2013 में केरल में 2,561.2 मिलीमीटर बारिश हुई थी जो पिछले दो दशकों में सबसे अधिक थी। वर्ष 2015 में बहुत कम बारिश हुई और सूखे की नौबत आ गई। वर्ष 2016 में फिर से 1,855.9 मिलीमीटर बारिश हो गई और इस साल की बारिश और बाढ़ तो अंतरराष्ट्रीय खबर बन चुकी है। विश्व प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर को जनता के लिए बंद कर दिया गया है। पम्पा नदी का जलस्तर बढ़ने की वजह से इसे अगले आदेश तक बंद रखने का फैसला किया गया है। मंदिर प्रशासन के अनुसार, बाढ़ के कारण मंदिर को 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। त्रावणकोर देवासम बोर्ड के अध्यक्ष ए. पद्मकुमार ने अनुसार, मंदिर को बंद रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मंदिर में हालांकि पारंपरिक तरीके से पूजा होती रहेगी।
प्रदेश के मुख्य सचिव ने 23 अगस्त को बताया कि इस अभूतपूर्व बाढ़ की वजह से 19,500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। 373 लोगों की मौत हो गई और 32 लापता हैं। 12.5 लाख लोगों को 3,941 शिविरों में रखा गया है। उनके मुताबिक, राज्य के 14 जिलों में पूरी राज्य मशीनरी को आपदा प्रबंधन करने के लिए उतारा गया है। राज्य पुलिस, अग्नि और बचाव के एक बड़े दल और एसडीआरएफ के पूरे दल के अलावा केंद्रीय बल तैनात हैं। प्रदेश के 1,564 गांवों में से 774 गांव बाढ़ से पीड़ित हैं। जबकि कुल आबादी 3.48 करोड़ में से 54 लाख लोग जलप्रलय की चपेट में आए। तटीय गांवों के लगभग 1,400 मछुआरे अपनी 600 नौकाओं के साथ राहत में जुटे हैं। 207 नौकाओं के साथ एनडीआरएफ के 59 बचाव दल, 104 नौकाओं के साथ सेना के 23 कॉलम, एक मेडिकल टीम के साथ नौसेना के 94 बचाव दल, 9 हेलीकॉप्टर, 2 फिक्स्ड विंग एयरक्राफ्ट और 94 नौकाएं, 49 नौकाओं के साथ कोस्ट गार्ड की 36 टीमें, 2 हेलीकॉप्टर, 23 फिक्स्ड विंग हेलीकॉप्टर, 2 फिक्स्ड विंग और 27 किराये वाली नौकाएं तैनात की गई हैं। वायु सेना ने 22 हेलीकॉप्टर और 23 फिक्स्ड 3 विंग एयरक्राफ्ट राहत व बचाव कार्यों के लिए दिए हैं। जबकि बीएसएफ ने एक जलवाहक टीम के साथ 2 कंपनियों और सीआरपीएफ की 10 टीमों को तैनात किया है। 4,100 अग्नि बचाव सेवा कर्मियों को भी इसमें शामिल किया गया है और उन्होंने 69 रबड़ नौकाओं का सहारा लिया है। ओडिशा अग्निशमन ने 244 फायरमैन और 63 रबड़ नौकाएं दी हैं।
चेतावनियों की अनदेखी
केरल में सदी की जो सबसे बड़ी बाढ़ आई है वह सरकारी लापरवाही और तमाम चेतावनियों की अनदेखी का नतीजा है। वर्ष 2011 में ही प्रसिद्ध पर्यावरणविद माधव गाडगिल ने इस तरह की बाढ़ की चेतावनी जारी की थी। इसके बाद इस वर्ष जून के अंत में केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि सभी दक्षिणी राज्यों में जल संसाधनों के प्रबंधन के मामले में केरल की हालत सबसे खराब है। तब इस रिपोर्ट को नकार दिया गया था पर पर्यावरण ने एक महीने के भीतर ही साबित कर दिया कि रिपोर्ट का आकलन सही था। इस वर्ष के शुरू में भी केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के 10 राज्य जहां बाढ़ का प्रकोप कभी भी हो सकता है, उनमें केरल भी एक है। राज्य सरकार ने इनमें से किसी रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया और अब नतीजा सामने है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में पश्चिमी घाट (गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल के तटीय इलाके और तमिलनाडु का कुछ हिस्सा) के पारिस्थितिकी तंत्र के अध्ययन के लिए माधव गाडगिल के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन किया था। कमेटी ने वर्ष 2011 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसमें पूरे पश्चिमी घाट को संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने का सुझाव दिया गया। कमेटी ने कहा था कि इस पूरे क्षेत्र में नए उद्योग, खनन और विकास कार्यों पर प्रतिबंध लगना चाहिए। यदि विकास कार्यों की बहुत आवश्यकता हो तब ऐसे कार्य संबंधित स्थानीय लोगों या ग्राम पंचायतों से सुझाव लेकर ही किए जाएं। जैसी कि उम्मीद थी, कमेटी की रिपोर्ट का सभी छह राज्यों ने पुरजोर विरोध किया। इसे देखते हुए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आनन-फानन में एक दूसरी कमेटी का गठन के. कस्तूरीरंगन के नतृत्व में कर दिया। कस्तूरीरंगन पर्यावरणविद नहीं बल्कि जानेमाने अंतरिक्ष वैज्ञानिक थे। केंद्र के निर्देशों के अनुसार इस कमेटी ने गाडगिल रिपोर्ट को पूरी तरह से उद्योगों और विकास कार्यों के अनुरूप बना दिया। इसमें पश्चिमी घाट के महज एक-तिहाई हिस्से को यानी 57,000 वर्ग किलोमीटर को संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने और इसमें खनन, बड़े निर्माण कार्यों, ताप बिजली घरों और प्रदूषणकारी उद्योगों पर पाबंदियों की बात कही गई। इसके बाद भी राज्य सरकारें रिपोर्ट का विरोध करती रहीं।
केरल सरकार के विरोध के बाद कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में सुझाए गए 13,108 वर्ग किलोमीटर के बदले प्रदेश के 9,993.7 वर्ग किलोमीटर को ही संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया। केरल में कोई बड़ी नदी नहीं है पर छोटी नदियां 44 हैं। इनमें से अधिकतर पश्चिमी घाट से ही शुरू होती हैं और फिर समुद्र में मिल जाती हैं। इन नदियों पर 80 से अधिक बांध बनाए गए हैं जिनसे पन-बिजली संयंत्र चलाए जाते हैं। बांधों से जो पानी छोड़ा जाता है वह निचले इलाकों की आवश्यकताओं के अनुसार नहीं बल्कि पन-बिजली संयंत्रों के हिसाब से छोड़ा जाता है। इस कारण यहां की अधिकतर नदियों में पानी का बहाव लगातार बदलता रहता है। देश के अन्य राज्यों की तरह केरल की नदियों से भी रेत का अवैध खनन बड़े पैमाने पर किया जाता है। इससे नदियों का बहाव प्रभावित होता है और आस-पास की वनस्पतियां नष्ट हो जाती हैं। इसी तरह पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ों से पत्थर का खनन भी बढ़ा है जिससे पहाड़ों के पेड़-पौधों की कटाई भी निर्बाध गति से चल रही है। पहाड़ों पर पेड़-पौधों की कमी की वजह से भी इस बार बाढ़ के दौरान भू-स्खलन और चट्टानों के गिरने की बहुत सारी घटनाएं सामने आर्इं।
सरकारी उपेक्षा का आलम यह था कि जब पूरा केरल बाढ़ से डूब रहा था उसी समय सभी बांध खोल दिए गए। विशेषज्ञों के अनुसार, राज्य के कम से कम 30 बांधों से कम बारिश वाले दौर में पानी छोड़ा जाना चाहिए था पर संबंधित विभाग ऐसा करने के बदले इंतजार करता रहा कि जब जलाशय पूरा भरेगा तब बांध खोले जाएंगे। यह जरूर है कि प्रदेश में बारिश सामान्य से 37 फीसदी अधिक हो गई पर इससे बड़ा सत्य यह भी है कि इतना बड़ा नुकसान सरकारी लापरवाही के कारण ही हुआ है। गाडगिल कमेटी ने 2011 में ही बता दिया था कि प्रदेश के लगभग सभी जलाशय गाद भरने के कारण अपनी क्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट में गाद भरने का कारण भी बताया गया था। इसमें कहा गया था कि ऊपर के क्षेत्रों में अतिक्रमण और जंगलों का कटान इसकी वजह है। प्रदेश के सबसे बड़े बांध इदुक्की बांध का तो पूरा क्षेत्र ही सघन अतिक्रमण की चपेट में है। यानी बाढ़ की भयावहता में सबसे बड़ा योगदान प्रदेश की सरकारों का है जो लगातार चेतावनियों के बाद भी पर्यावरण विनाश की अनदेखी करती रहीं। पर्यावरण के विनाश पर तथाकथित विकास का यही हश्र होता है। यह विकास कभी भूकंप से तबाह होता है तो कभी पानी में बह जाता है। क्या केरल की त्रासदी से दूसरे राज्य कोई सीख लेंगे? 

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