अभिषेक रंजन सिंह, नई दिल्ली।
छोटी-छोटी बातें किस प्रकार सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लेती हैं, उसके उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहते हैं। देखते ही देखते पूरा इलाका कितनी जल्दी हिंसा की गिरफ्त में आ जाता है, उसका न तो सरकार व प्रशासन को अंदाजा होता है और न ही आम जनता को। समय भारी नुकसान पहुंचा कर आगे निकल जाता है और हम अपनी गलतियों की समीक्षा करते रह जाते हैं। बात चाहे उत्तर प्रदेश की हो या गुजरात की अथवा अन्य राज्यों की। उनमें सामाजिक नासमझी की वजह से आम आदमी को काफी नुकसान उठाना पड़ता है।
लेकिन पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिला अंतर्गत बशीरहाट सब डिवीजन में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट साझा करने मात्र से दो गुटों के बीच मजहबी तनाव पैदा हो जाना वाकई चिंता का विषय है। सोशल मीडिया का विस्तार और उसकी पहुंच के खतरे कितने भयावह हो सकते हैं कि पथराव और आगजनी के बाद हिंसाग्रस्त बशीरहाट और बडुरिया में अर्द्ध सैनिक बलों की चार टुकड़ियों को तैनात करना पड़ा है। ताज्जुब की बात यह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ऐसी घटनाओं को नियंत्रित करने के बजाय राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी से वाक्युद्ध में व्यस्त हैं।
पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा की यह पहली घटना नहीं है। पिछले साल भी चौबीस परगना जिले में दुर्गापूजा और मुहर्रम के मौके पर दो गुटों के बीच हिंसक झपड़ें हुई थी। कुछ महीनों के अंतराल पर हावड़ा जिले के धुलागढ़ में भी धार्मिक जूलुस निकालने पर दो गुट आपस में उलझ पड़े। जबकि, मालदा, पश्चिम मिदनापुर,उत्तरी दिनाजपुर और नादिया जिलों में तो कई बार ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा अपने सियासी फायदे के लिए इसे सांप्रदायिक रंग दे रही है। जबकि भाजपा इसे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मुस्लिम तुष्टिकरण की परिणति बताते हैं। वहीं वामदल इसे तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की सोची-समझी राजनीति का हिस्सा बता रहे हैं। उनका आरोप है कि दोनों पार्टियां पश्चिम बंगाल को सांप्रदायिक धुव्रीकरण की प्रयोगशाला बनाना चाहती हैं।
निःसंदेह पश्चिम बंगाल में जिस तरह सांप्रदायिक हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं वह अच्छे संकेत नहीं हैं। सीपीएम सरकार के समय पश्चिम बंगाल बांग्लादेशी घुसपैठियों की शरणस्थली बन गई थी। वामदलों ने अपने सियासी फायदे के लिए इससे निपटने के लिए कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं किए। इसके बरक्स पश्चिम बंगाल में अवैध रूप से रहने वाले बांग्लादेशी नागरिकों को वोट बैंक की खातिर वैधता भी प्रदान कर दी गई।
पश्चिम बंगाल में कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, मालदा, दक्षिण दिनाजपुर और उत्तरी चौबीस परगना समेत दस ऐसे जिले हैं, जिसकी सीमाएं बांग्लादेश से सटी हैं। घुसपैठ की समस्याएं सबसे अधिक इन्हीं जिलों में हैं। इनमें कई जिलों की जनसांख्यिकी बांग्लादेशी घुसपैठ की वजह से बदल गई हैं। वाममोर्चे की सरकार के पतन के बाद भाजपा सूबे में अपना सियासी जनाधार बढ़ाने में जुटी है। पिछले साल विधानसभा चुनाव में उसे कोई विशेष फायदा तो नहीं मिला, लेकिन करीब तीन दर्जन सीटों पर उसके उम्मीदवार क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। कूचबिहार लोकसभा उपचुनाव में भी भाजपा उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रही। इन चुनावी परिणामों से भाजपा खासी उत्साहित है। जिस तरह फॉरवर्ड ब्लॉक और सीपीएम से जुड़े नेता आए दिन भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उससे भी तृणमूल खेमे में बैचेनी बढ़ती जा रही है। वाममोर्चा के अध्यक्ष विमान बोस का यह बयान भी भाजपा के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं था, जिसमें उन्होंने कहा कि तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए उनके कार्यकर्ता भाजपा को भी वोट कर सकते हैं!
बंगाल में भाजपा-आरएसएस के बढ़ते असर का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सीपीएम सरकार के वक्त राज्य में संघ की 350 शाखाएं लगती थीं, जिनकी संख्या अब बढ़कर 1700 हो गई हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केवल मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों का सामना नहीं कर रही हैं। बल्कि बांग्लादेश में युद्ध अपराध में दोषी पाए गए जमात-ए-इस्लामी के नेताओं के प्रति हमदर्दी रखने का भी आरोप है। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल में जारी सांप्रदायिक तनाव जहां तृणमूल कांग्रेस के लिए मुसीबत का सबब है। वहीं भाजपा ऐसी घटनाओं को अपने लिए मुफीद मान रही है। भाजपा एक तरफ कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर तृणमूल सरकार पर हमलावर है। वहीं मुस्लिम तुष्टिकरण के सवाल पर भी ममता बनर्जी पर निशाना साध रही है। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल की राजनीति में यह परिवर्तन के संकेत है और आगामी लोकसभा चुनाव इसका असर जरूर दिखाई देगा।