पिछले दिनों अमेरिकी विशेषज्ञों ने ‘आफ्टर मिडनाइट’ जर्नल में लिखे अपने आलेख ‘इंडियन न्यूक्लियर फोर्सेज 2017’ में लिखा कि भारत के पास इतना प्लूटोनियम जमा हो गया है कि वह कई परमाणु बम बना सकता है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि परंपरागत रूप से पाकिस्तान के मद्देनजर न्यूक्लियर पॉलिसी बनाने वाले भारत की नजर चीन पर अधिक है। इन दिनों सिक्किम की सीमा पर भूटान स्थित डोकलाम क्षेत्र को लेकर भारत और चीन के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं। चीन की तरफ से भारत को युद्ध की धमकियां मिल रही हैं, वहीं भारत ने भी चीन को आगाह किया है कि वह हमारी सैन्य ताकत को कमतर न समझे क्योंकि हालात 1962 जैसे नहीं हैं। अमेरिकी एक्सपर्ट के दावों और भारत-चीन के बीच जारी तनाव समेत रक्षा संबंधी मुद्दों पर अभिषेक रंजन सिंह  की रक्षा विशेषज्ञ मेजर जनरल (रिटायर्ड) पीके सहगल  से बातचीत के अंश :

अमेरिका के दो शीर्ष वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि भारत अपने परमाणु जखीरे को लगातार आधुनिक बना रहा है। भारत अब पाकिस्तान नहीं बल्कि चीन को ध्यान में रख कर मिसाइल तकनीक को अपग्रेड कर रहा है। उनके दावे में कितनी सच्चाई है?
इसमें पूरी सच्चाई है। भारत आज इतनी सामरिक क्षमता हासिल कर चुका है कि अपने मिसाइल से चीन के हर हिस्से को टारगेट कर सकता है। यह क्षमता तो भारत ने तभी हासिल कर ली थी जब अग्नि तीन मिसाइल आई थी। इसकी रेंज 3,000 से 3,500 किलोमीटर है। लेकिन अब तो अग्नि चार और अग्नि पांच मिसाइल भी भारत के पास है। इसकी मारक क्षमता 5,000 से 5,800 किलोमीटर है। लेकिन चीन का कहना है कि भारत अपनी मिसाइलों के रेंज छुपा रहा है। उसके मुताबिक अग्नि चार और पांच मिसाइल की असल रेंज 5,000 से 8,000 किलोमीटर है। अगर हम इसे चेन्नई और केरल में भी लगाएं तो इसकी जद में बीजिंग समेत चीन के कई शहर आ सकते हैं। चेन्नई से बीजिंग की दूरी 3,615 किलोमीटर है। अमेरिकी जर्नल या वहां के थिंक टैंक ने भारत की मिसाइल तकनीक पर जो टिप्पणी की है वह बिल्कुल सही है। पाकिस्तान को पूरी तरह टारगेट करने वाली मिसाइलों का निर्माण तो पहले ही हो चुका है। इसलिए भारत अब चीन के मद्देनजर अपनी मिसाइल तकनीक पर काम कर रहा है। अगले दो-तीन साल में अग्नि छह मिसाइल भी हमारे बेड़े में शामिल हो जाएंगी जिसकी रेंज 6,000 से 10,000 किलोमीटर होगी। इसकी जद में पूरा यूरोप और एशिया होगा।

बकौल अमेरिकी एक्सपर्ट भारत इतना सक्षम हो गया है कि अगर चाहे तो करीब 200 परमाणु बम बना सकता है, उनके इस दावे के क्या मायने हैं?
यह बात काफी पुरानी हो गई है जब भारत पाकिस्तान के मद्देनजर अपनी परमाणु तैयारियों में लगा था। पाकिस्तान हमारे सामने किसी भी स्थिति में खड़ा नहीं हो पाएगा। हमारे लिए चीन एक बड़ी चुनौती है और हमारे परमाणु कार्यक्रम उसी को ध्यान में रख कर बनाए जा रहे हैं। भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए यह जरूरी है। इसलिए अमेरिकी थिंक टैंक का कथन बिल्कुल सही है। वैसे कई देश भारत की इस क्षमता को समझते हैं। यहां तक कि चीन भी भारत की मौजूदा क्षमता से परिचित है। अन्य देशों से भारत अलग इसलिए है क्योंकि भारत अपनी आंतरिक सुरक्षा के लिए परमाणु नीतियां बनाता है। भारत कभी भी परमाणु हथियारों की होड़ में शामिल नहीं होना चाहता। आज हमारे पास इतनी क्षमता है कि हम कई परमाणु बम बना सकते हैं। बेशक, हम बना भी रहे हैं लेकिन उसका एक ही मकसद है अपने देश और सीमाओं की रक्षा करना।

रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने चीन को चेताया कि भारत की स्थिति साल 1962 जैसी नहीं है। आज भारत सामरिक रूप से चीन के मुकाबले कितना मजबूत है?
रक्षा मंत्री की बातें अपनी जगह दुरुस्त हैं। सवाल जहां तक 1962 की लड़ाई का है तो उसमें राजनीतिक मूर्खता की वजह से भारत की शर्मनाक हार हुई। लड़ाई के लिए हमारी फौज तैयार नहीं थी। हमारे पास सही हथियार नहीं थे। गोला-बारूद की कमी थी, न ही उतने टैंक और फाइटर प्लेन थे। यहां तक कि हमारी सेना के पास पर्याप्त राशन और सर्दियों में पहनने वाले कपड़े और जूते तक नहीं थे। फौज के अधिकारियों ने सरकार को चेताया था कि हमारी सेना लड़ाई के लिए तैयार नहीं है लेकिन तत्कालीन सरकार ने उस चीफ को हटा दिया और ऐसा चीफ ले आई जो उसकी हां में हां मिलाता था। अमूमन लड़ाइयों के वक्त फौज के अधिकारियों के तबादले नहीं होते लेकिन 1962 की लड़ाई में वह सब कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था। इसलिए चीन के हाथों हमें पराजय का मुंह देखना पड़ा। आज हमारी स्थिति 1962 जैसी नहीं है। हमारी सेना पूरी तरह तैयार है। जवान और सैन्य अधिकारियों का तालमेल अच्छा है। सबसे अच्छी बात है कि मौजूदा लीडरशिप काफी मजबूत है। बीते पचपन सालों में हमारी सेना काफी मजबूत हुई है। चीन भी कह रहा है कि हम भी 1962 से अधिक मजबूत हैं। उसका कहना भी सही है लेकिन भारत 1947 से लगातार तैयारी में है। रोज हमारी सेनाओं को मुठभेड़ का सामना करना पड़ता है। आजादी के बाद हमारी सेना ने चार लड़ाईयों का सामना किया। जबकि चीन ने 1962 के बाद सिर्फ कोरियन कैंपेन में हिस्सा लिया और उसके बाद उसने कोई प्रत्यक्ष लड़ाई नहीं लड़ी। थ्योरी मास्टर लड़ाईयां नहीं जीतते, लड़ाई वही जीतते हैं जो पूरी तरह से तैयार रहते हैं। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं। वियतनाम एक छोटा देश है जबकि अमेरिका एक बड़ा और ताकतवर देश फिर भी 1954 में वियतनाम ने अमेरिका को हराया। यहां तक कि फ्रांस को भी हराया। इसलिए चीन की यह भूल है कि वह भारत को कमतर मानता है। भारत एक बड़ा देश है और हमारी फौज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी फौज है।

डोकलाम में चीन की गतिविधियां बढ़ने से भारत चिंतित है और यही वजह है कि वहां सेना तैनात कर दी है जिस पर चीन को आपत्ति है। उसका कहना है कि भारत वहां से अपनी सेना हटाए वरना युद्ध जैसे हालात बनेंगे? भारत का यह रुख कितना सही है?
डोकलाम के मुद्दे पर भारत का रुख सौ फीसद सही है। जिस इलाके का आप जिक्र कर रहे हैं वहां मैं आठ साल तैनात रहा। साल 1966 से चीन डोकलाम पठार को कब्जाने की कोशिश में है। दरअसल, चीन की सेना वहां खुद को असुरक्षित महसूस कर रही है। वहां हमारी फौज ऊंचाई पर है और चीन की सेना नीचे। भौगोलिक स्थिति हमारे पक्ष में होने की वजह से चीनी सेना को हम काफी नुकसान पहुंचा सकते हैं। चीन से हमारी लड़ाई 1962 में हुई। 1967 में चीन ने चोलम, याटला और नाथूला पर हमला किया। उस वक्त हमारे 70-80 जवान शहीद हुए जबकि चीन के 400 सैनिक मारे गए। अंतत: चीन को भागना पड़ा और दोबारा उस इलाके में नहीं आया। डोकलाम काफी पहले से हमारे पास रहा है और हमारी सेना वहां तैनात रही है। अब चीन कह रहा है कि यह इलाका उसका है। वह पुरानी संधियों का जिक्र कर रहा है। उसके मुताबिक यह जमीन भूटान की नहीं है जबकि भारत और भूटान के बीच इस क्षेत्र में सैन्य संधि है। वहां हमारे कई स्थायी पोस्ट और ब्रिगेड हैं। हमारी सेना भूटान की आर्मी को ट्रेनिंग भी देती है। पिछले चालीस वर्षों से वहां हमारी बटालियन हैं। साल 1988 में चीन और भूटान के बीच एक संधि हुई थी डोकलाम में यथास्थिति बनाए रखने की लेकिन आज चीन को इसकी भी कोई परवाह नहीं है। अगर चीन यहां सड़क बना लेता है तो उसकी सैन्य कमजोरी खत्म हो जाएगी। भविष्य में वह भारत को पूर्वोत्तर से अलग-थलग कर सकता है। इसलिए डोकलाम को लेकर भारत की चिंताएं वाजिब हैं और भारत सरकार का रुख भी इसे लेकर स्पष्ट है। आखिर कौन देश चाहेगा कि कोई दूसरा देश उसकी आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करे।

डोकलाम में चीन की गतिविधियां रोकने के लिए भारत हर मुमकिन कोशिश कर रहा है जबकि इस मामले में भूटान का उग्र विरोध नहीं दिखता। इसकी क्या वजह है?
ऐसा नहीं है कि भूटान ने इसका विरोध नहीं किया है। यह सच है कि वह भारत के जरिये अपनी आपत्ति दर्ज करा रहा है। इस मुद्दे पर अगर भूटान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जाता है तो चीन वहां वीटो का इस्तेमाल करेगा यह तय है। वैसे भी भूटान और चीन के बीच राजनयिक संबंध नहीं हैं। चीन एक विस्तारवादी देश है इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए। साल 1954 में माओत्से तुंग ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था, ‘तिब्बत हमारी हथेली है और उसकी पांच अंगुलियां हैं अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, भूटान, नेपाल और लद्दाख। अगर इसे हासिल करने में चीन को सौ बरस भी लगेंगे तो हम तैयार हैं।’ चीन 1990 तक अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत कहता रहा है। अब तो वह सिक्किम की आजादी पर भी सवाल खड़े कर रहा है। चीन सिक्किम की आजादी की पुनर्समीक्षा की बात कह रहा है। अगर चीन डोकलाम पठार के ऊपर आ जाता है तो वह थिंपु पर बैठ जाएगा। इस तरह वह आने वाले समय में भूटान को निगल जाएगा। भारत को घेरने में चीन कई वर्षों से जुटा है। नेपाल में वह आधारभूत ढांचा तैयार कर रहा है। हिमालय क्षेत्र में वह 300 किलोमीटर लंबाई का रेलवे टनल बनाने का प्लान कर रहा है। चीन छोटे देशों को दबाना चाहता है। आज सभी छोटे देश उम्मीद भरी निगाहों से भारत की तरफ देख रहे हैं। चीन किसी तरह भारत को दबाना चाहता है लेकिन भारत को किसी दवाब में आने की जरूरत नहीं है। अगर आज हम चीन के आगे झुक गए तो हमारी छवि गिर जाएगी।

भारत और चीन के मौजूदा तनाव को लेकर पाकिस्तान को छोड़कर सार्क के अन्य देशों की क्या सोच है क्योंकि चीन की दखल इन देशों में भी बढ़ रही है?
चीन अपनी आर्थिक शक्ति से सार्क देशों को दबाना चाहता है। चीन जानता है कि भारत भी एक महाशक्ति बनने की तरफ बढ़ रहा है। वह भारत से लगातार नॉन हेल्दी कॉम्पिटिशन में लगा रहता है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ढाका गए और उन्होंने बांग्लादेश को दो अरब डॉलर देने की घोषणा की। कुछ समय बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ढाका पहुंचे और उन्होंने बांग्लादेश को 24 अरब डॉलर का कर्ज दे दिया। यह बांग्लादेश को अब तक का सबसे बड़ा विदेशी कर्ज है। इसी तरह चीन ने श्रीलंका को भारत से अधिक आर्थिक सहायता की घोषणा की। श्रीलंका पर चीन का आठ अरब डॉलर का कर्ज है लेकिन चीन ने कर्ज वापसी के बदले श्रीलंकाई क्षेत्र हैमनटोटा को 99 साल की लीज पर ले लिया। सार्क के सभी देश चीन से घबराए हुए हैं। पाकिस्तान को छोड़कर सभी चाहते हैं कि भारत चीन के मुकाबले खड़ा हो क्योंकि ताकतवर देश ही दूसरे ताकतवर देश का सामना कर सकता है। भारत से दुश्मनी के चलते पाकिस्तान को आज अपनी संप्रभुता का भी ख्याल नहीं है। आज चीन का साथ उसे अच्छा लग रहा है लेकिन भविष्य में चीन पाकिस्तान को भी हजम कर जाएगा।

भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि डोकलाम से सेना नहीं हटेगी और चीन को सड़क नहीं बनाने दिया जाएगा। चीनी मीडिया और सरकार इसे लेकर भारत के खिलाफ आग उगल रही है। ऐसे में क्या अब युद्ध ही विकल्प है?
जंग जैसी कोई संभावना नहीं है। चीन की धमकी देने की पुरानी आदत रही है। चीनी सरकार जो कहती है वही बात ग्लोबल टाइम्स भी लिखता है। दरअसल, चीन भारत से कई मुद्दों पर बौखलाया हुआ है। इसके अलावा चीनी राष्ट्रपति की महत्वाकांक्षा है साल 2027 तक सत्ता में बने रहने की। डोकलाम को लेकर भारत से तनाव पैदा करना चीन की सोची-समझी रणनीति है। एक अगस्त को सीपीसी की बैठक होने वाली है। राष्ट्रपति जिनपिंग किसी भी कीमत पर कमजोर दिखना नहीं चाहते हैं। वह माओ त्से तुंग से भी प्रभावशाली और महान बनने का ख्वाब देख रहे हैं। चीन की बौखलाहट की एक दूसरी वजह है भारत की मौजूदा विदेश नीति। आज भारत का अमेरिका, यूरोपियन देशों, पश्चिम एशिया के देशों और अरब लीग के देशों के साथ अच्छे संबंध हैं। इससे चीन परेशान है। जापान, वियतनाम, इंडोनेशिया और आॅस्ट्रेलिया के साथ भी भारत के बेहतर रिश्ते चीन को रास नहीं आ रहे। अभी हाल में बंगाल की खाड़ी में भारत ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान और अमेरिका के साथ मिलकर सबसे बड़ा युद्धाभ्यास किया। चीन को दिख रहा है कि यह सैन्य अभ्यास उसके मद्देनजर ही किया गया। भारत की नौ सेना काफी मजबूत हो चुकी है। हमारे पास कई अत्याधुनिक सब मरीन और पनडुब्बियां हैं। चीन का नब्बे फीसद तेल और गैस पश्चिम एशिया से ही आता है। चीन यह भली प्रकार समझता है कि भारत ने उसे हिंद महासागर में घेर लिया है। इसलिए इन दिनों वह सीपैक बनाना चाह रहा है। पहले वह म्यामांर के जरिये गैस पाइपलाइन और रेल-सड़क नेटवर्क बनाने का प्रयास कर रहा था लेकिन भारत और म्यामांर के रिश्तों में आई बेहतरी से वह घबराया हुआ है। चीन की एक और बड़ी चिंता है तिब्बत को लेकर भारत की हमदर्दी। चीन को डर है कि कहीं भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में तिब्बत को मान्यता न दे दे। यह भारत के लिए ब्रम्हास्त्र है क्योंकि जिस दिन भारत ऐसा करेगा उसी दिन अमेरिका और यूरोपीय यूनियन इसमें भारत की मदद करेंगे। अमेरिका और यूरोपीय संघ चीन को सोवियत संघ की तरह तोड़ना चाहते हैं। बगैर भारत की मदद से यह संभव नहीं है।

अगर भारत और चीन के बीच युद्ध होता है तो भारत के पक्ष में कौन-कौन से देश खड़े होंगे?
मैंने पहले भी कहा है कि जंग की नौबत नहीं आएगी। यह पूरी तरह साइकोलॉजिकल वॉर फेयर है जो चीन में एक अगस्त को होने वाली सीपीसी की मीटिंग के बाद खत्म हो जाएगी। वैसे युद्ध होने पर कोई भी देश अपनी सेना भारत नहीं भेजेगा। वैसे भारत को इसकी जरूरत भी नहीं है। हमारी सेना इतनी सक्षम हो चुकी है कि वह चीन का मुकाबला कर सके। युद्ध के समय हमें फाइटर प्लेन और हथियारों की जरूरत पड़ेगी। इस बाबत अमेरिका और इजराइल जैसे देशों से हमें पर्याप्त हथियारों और डिफेंस इक्वीपमेंट की आपूर्ति होगी। नैतिक रूप से हमें कई देशों का साथ मिलेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति खासकर चीन के मामले में कैसी रही है?
मेरे ख्याल से इससे बेहतर विदेश नीति नहीं हो सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से दुनिया भर में भारत की एक अच्छी छवि विकसित हुई है। पूर्व की सरकारों के समय चीन ने भारत को घेर रखा था लेकिन वर्तमान सरकार की बेहतर नीतियों की वजह से हमने चीन को घेर लिया है। हमने वियतनाम में अपनी पृथ्वी और ब्रम्होस मिसाइलें तैनात कर दी हैं जो आठ से दस मिनट में बीजिंग और शंघाई को ध्वस्त कर सकता है। इंडोनेशिया और जापान के साथ भी हमने डिफेंस डील किया है। हाल में प्रधानमंत्री मंगोलिया की यात्रा पर गए थे। वहां भी कुछ महत्वपूर्ण डिफेंस डील हुई है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है और इतिहास इसका साक्षी रहा है। विदेश नीति का एक मुख्य आधार यह भी है। प्रधानमंत्री मोदी मध्य एशियाई देश भी गए और वहां भी कई अहम समझौते उन्होंने किए। उनकी विदेश नीति से भारत काफी आगे जाएगा। अगर नरेंद्र मोदी दस साल प्रधानमंत्री बने रहते हैं तो यकीन मानिए भारत सुरक्षा परिषद का सदस्य बन जाएगा।