द्वितीय ब्रह्मचारिणी : सृष्टि की निर्मात्री 

पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र

आदि भवानी मां दुर्गा की नव शक्तियों में दूसरा स्थान माता ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्मांड को जन्म देने के कारण देवी का यह दूसरा स्वरूप देवी की आद्य शक्ति भी माना जाता है। ब्रह्म से यहां तात्पर्य तपस्या है। इन्हें तप का आचरण करने वाली माना जाता है। ब्रह्मा जी की शक्ति इन्हीं में निहित है और शक्ति की शक्ति को ही ब्रह्मा कहा जाता है। देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। दाहिने हाथ में जप करने हेतु रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंडल लिए हुए मां अपने भक्तों को तप के माध्यम से अपनी इच्छा पूरी करने का निर्देश देती हैं।

हिमालय के घर में जन्म लेने के बाद देवऋषि नारद ने इन्हें भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए तप करने का उपदेश दिया। इन्होंने हजार वर्ष तक केवल फल खाकर ही तपस्या की। फिर सौ वर्ष तक केवल शाक खाया। खुले आसमान के नीचे और धूप के भयानक कष्ट सहे। फिर तीन हजार वर्षों तक जमीन पर गिरे विल्व पत्र-बेलपत्रों को खाकर भगवान शंकर की आराधना करती रहीं।

इससे इनका एक नाम अपर्णा भी पड़ गया। एक समय ऐसा आया कि इन्होंने बेल पत्र भी खाना छोड़ दिया और निराहार निर्जल तपस्या करती रहीं। इस भीषण तपस्या से ब्रह्मचारिणी माता के पूर्व जन्म का शरीर क्षीण हो गया। माता मैना यह देखकर तड़प उठीं। उन्हें कठिन तपस्या छोड़ने के लिए कहा- उ…मा…बस अब और नहीं। इससे माता का नाम उमा ही हो गया। तपस्या की अग्नि से तीनों लोकों में मौजूद लोग हाहाकार करने लगे।

देवता, ऋषि, मुनि, सिद्ध आदि सभी माता की इस तपस्या से प्रसन्न हो उनकी प्रशंसा करने लगे। पितामह ब्रह्मा ने तब आकाशवाणी द्वारा उन्हें इस अद्भुत तपस्या के नाते इच्छा पूर्ण होने का आशीर्वाद दिया। इसके तुरंत बाद पिता हिमालय इन्हें लेने आ पहुंचे। फिर शिवजी से इनका विवाह हुआ। माता के दूसरे रूप की पूजा के दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है।

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