बनवारी

पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने देश की राजधानी दिल्ली पर लागू भिक्षावृत्ति निरोधक कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के विरुद्ध बताते हुए उसे निरस्त कर दिया। यह निर्णय उच्च न्यायालय की मान्य न्यायाधीश गीता मित्तल का है। उन्होंने अपने निर्णय में तर्क दिया है कि अगर राज्य सब लोगों के भरण-पोषण की व्यवस्था नहीं कर सकता तो उसे असहाय लोगों के भिक्षा मांगने पर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं है। अगर समाज में ऐसे असमर्थ लोग हैं, जो अपना भरण-पोषण नहीं कर पा रहे तो उनके पास भिक्षा मांगने के अतिरिक्त और क्या उपाय रह जाता है। उन्हें इस अंतिम उपाय से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के प्रतिकूल है। उच्च न्यायालय का यह निर्णय एक उदार दृष्टि से किया गया निर्णय है और वह राज्य के अपने दायित्व स्वीकार न करने और असमर्थ लोगों के अंतिम उपाय के तौर पर भिक्षा मांगने से जबरन रोकने के अनुचित कदम को निरस्त करता है। राज्य द्वारा यह निर्णय 1960 में लिया गया था कि देश की राजधानी में भिक्षावृत्ति अपराध है और उससे संबंधित नियम मुम्बई के इस संबंध में 1959 में बने कानून के आधार पर बनाए गए थे। लेकिन न्यायाधीश ने यह कानून निरस्त करने के लिए जो तर्क दिए हैं वे एक सीमित परिप्रेक्ष्य को ही सामने रखते हैं। यह समस्या काफी जटिल है और राजकीय कानूनों से हल नहीं की जा सकती। उसका संबंध केवल लोगों के अधिकारों से ही नहीं है। समाज की अपनी जीवन दृष्टि, नागरिकों के दायित्व और राज्य के दायित्व ज्यादा हैं। भिक्षावृत्ति पर केवल असमर्थ लोग ही नहीं रहते। असमर्थ बना दिए गए लोग भी रहते हैं और स्वेच्छा से अपरिग्रह व्रत धारण करने वाले साधु-संन्यासी भी रहते हैं।

भिक्षावृत्ति को रोकने के लिए जो कानून बनाए गए थे, उनके पीछे यूरोपीय समाज के पूर्वाग्रह तो थे ही। उनका उल्लेख मुंशी प्रेमचंद ने अपने एक उपन्यास में किया है। उनके उपन्यास का पात्र एक अंधा भिखारी सड़क पर दौड़कर आते-जाते वाहनों से भीख मांगता है। उसे देखते हुए एक ईसाई और एक हिन्दू वातार्लाप में संलग्न हैं। उनका तर्क है कि शरीर से पुष्ट सभी लोगों को काम करना चाहिए। किसी को भीख मांगने की छूट नहीं होनी चाहिए। अंधा भिखारी उनकी बात सुनता है और फिर उत्तर देता है कि वह किसी व्यक्ति से भीख नहीं मांग रहा, वह किसी पर भीख देने के लिए दबाव नहीं डालता। उसके लिए भगवान ने जो वृत्ति तय की है, वह तो उसका पालन भर कर रहा है। वह तो भीख देने वाले के कल्याण की भी कामना करता है और न देने वाले के कल्याण की भी। असल में उस दौर में अंग्रेजी शासक और पढ़े-लिखे लोगों के बीच यह बहस चल रही थी कि भीख पर प्रतिबंध क्यों न लगा दिया जाए। जो लोग अपना भरण-पोषण नहीं कर सकते, उन्हें राज्य के आश्रय में भेज देना चाहिए। यूरोप का यह तर्क काफी पुराने समय से चल रहा था। भारत के पढ़े-लिखे लोगों ने उसी पूर्वग्रह को बिना समझे ग्रहण कर लिया था। मुंशी प्रेमचंद उसी पर टिप्पणी करना चाहते थे। इस यूरोपीय पूर्वाग्रह को ठीक से समझना आवश्यक है। उसी का दूसरा पहलू यह उदार दृष्टिकोण है कि असमर्थ लोगों को भी जीने का अधिकार है। अगर राज्य उनके भरण-पोषण की व्यवस्था नहीं कर सकता तो उसे भिक्षावृत्ति निरोधक कानून बनाने और लागू करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन अगर यूरोप की तर्ज पर भारत में असमर्थ और गरीब लोगों के लिए आश्रय बना दिए जाएं तो भी क्या भिक्षावृत्ति निरोधक कानून बनाना उचित होगा?

यूरोप में इस समस्या की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। उसे समझने के लिए सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि राज्य की यूरोपीय अवधारणा एक सर्वनियंता की अवधारणा है। मध्यकाल में राजा को छोड़कर यूरोप में कोई और पूरी तरह स्वतंत्र नहीं था। अभिजात वर्ग राजा के अधीन था और बाकी सभी लोग अभिजात वर्ग के। यह अभिजात वर्ग कुल आबादी का डेढ़-दो प्रतिशत ही था। लगभग दस प्रतिशत पट्टेदार किसानों को छोड़कर शेष 85 प्रतिशत से अधिक लोग किसी अभिजात वर्ग के व्यक्ति के अधीन होते थे। राज्य की सारी संपत्ति का स्वामी राजा माना जाता था। अभिजात वर्ग उसके लिए टैक्स वसूलने के अधिकार के साथ सभी उपसंपत्तियों का स्वामी था। ऐसी परिस्थिति में न कोई स्वतंत्र था, न हो सकता था। 1350 में यूरोप में प्लेग महामारी फैली। वह इतनी भयानक थी कि यूरोप की आधी आबादी समाप्त हो गई। ब्रिटेन में खेतिहर मजदूरों की कमी पड़ गई, तब वहां के अभिजात भू-स्वामियों ने बाड़ लगाकर खेतों को भेड़ पालन में बदल दिया और वे मुख्य यूरोप को ऊन आदि निर्यात करने लगे। इससे लोग उजड़ गए, उनके पास कोई काम-धंधा नहीं बचा और वे शहर-कस्बों में भीख मांगने को मजबूर हो गए। लेकिन राज्य ऐसे लोगों को जो किसी के नियंत्रण में न हों, खतरनाक मानता था। भीख मांगने पर रोक ही नहीं लगाई गई, ऐसे लोगों के शरीर को पहचान के लिए दाग दिया गया। उसी तरह जिस तरह जानवरों को दागा जाता है। यूरोपीय साहित्य में इसके उल्लेख काफी हैं और वे बहुत हृदयविदारक हैं। ये सब कानून सदियों बने रहे थे।

उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोप में राज्य का विस्तार हो रहा था और उसे कल्याणकारी बताते हुए उसकी एक छवि चित्रित की जा रही थी, गरीबों को आश्रय देने के लिए भी कानून बनाए गए और उनके भरण-पोषण की व्यवस्था भी सोची गई। ब्रिटेन में 1834 में एक पुअर लॉ बना। उसके आधार पर पुअर हाउसेस बनाए गए। जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ होते थे, उन्हें जबरन इन पुअर हाउसेज में भेज दिया जाता था। वहां सबसे पहले परिवार के सब सदस्यों को अलग-अलग कर दिया जाता था। उन्हें अलग-अलग बाड़ों में रखा जाता था, जहां वे फिर कभी अपने परिजनों से नहीं मिल सकते थे। यह बात सुनने में अविश्वसनीय लगती है। लेकिन अभी पिछले दिनों अमेरिका में शरणार्थियों को रोकने के लिए जो तंत्र खड़ा किया गया, वह सीमापार से अनधिकृत रूप से घुसने वाले लोगों को सबसे पहले स्त्री, पुरुष और बच्चों के हिसाब से छांटकर अलग भेज देता था। उन पर मुकदमा चलाने में काफी समय लगता और फिर सजा की अवधि काटने में। इसके बाद इसकी संभावना नहीं बचती थी कि परिवार के लोग फिर एक-दूसरे से मिल पाएं। इस तथ्य के प्रकाश में आने के बाद अमेरिका में काफी हो-हल्ला मचा और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को परिवारों को अलग करने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी। 1834 के ब्रिटिश कानून को लेकर भी इसी तरह का हो-हल्ला मचा था। शुरू में राज्य अपने कानून पर अड़ा रहा। लेकिन बाद में उसे वह कानून निरस्त करना पड़ा और पुअर हाउसेज बंद करने पड़े। आज भी यूरोप अमेरिका में भिक्षावृत्ति प्रतिबंधित है। अब असमर्थ लोगों के आश्रय कुछ बेहतर कर दिए गए हैं। दुनियाभर को लूटकर और असमर्थ बनाकर ही यूरोप-अमेरिकी ऐसा कर पाए हैं।

भिक्षा संबंधी भारतीय दृष्टि यूरोपीय दृष्टि से बहुत भिन्न है। पहली बात तो यह कि भारत में कभी राजा या राज्य को नियंत्रणकारी संस्था के रूप में नहीं देखा गया। राज्य का मुख्य कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना, अपराधी तत्वों से अगर समाज अपनी रक्षा न कर पा रहा हो तो उन तत्वों से निपटना और विपत्ति के समय सामाजिक संस्थाओं की मदद करना था। भारत में सभी लोग स्वतंत्र रहते हुए एक सामाजिक अनुशासन में बंधे रहे हैं। यह अनुशासन किसी बाहरी कानून पर नहीं, धर्म की, उचित-अनुचित की अवधारणा पर खड़ा हुआ था। भारत में दूसरे के लिए त्याग करना एक धर्म था। यूरोप में विपत्ति में पड़े लोगों की सहायता करना चैरिटी था। भारत में दान संबंधी अवधारणा यूरोप की चैरिटी की अवधारणा से बिल्कुल उलट है। भारत में दान देने वाला उपकृत अनुभव करता है। दान लेने वाला दान देने वाले से बड़ा माना गया है। यूरोप में चैरिटी पर उपकार है। चैरिटी करने वाला समर्थ माना गया और उसके द्वारा पाने वाला असमर्थ। हमारे यहां भिक्षा एक आदर से देखी जानी वाली वृत्ति रही है। क्योंकि भिक्षाटन करने वाले अधिकांश लोग साधु-संन्यासी ही होते थे, जो असमर्थ होने के कारण नहीं, सर्वत्यागी और मोक्षकामी होने के कारण भिक्षा मांगते थे। असमर्थ भी भिक्षा पर निर्भर थे, जो अपंग, कोढ़ी या अन्य किसी विपत्ति का शिकार हो गए हैं। लेकिन उनकी संख्या थोड़ी ही थी। उन्हें भी दान देना पुण्य का काम ही माना जाता था। दान देकर आप उपकृत अनुभव करते थे।

भारत में यह पहले परिवार और समाज का दायित्व माना जाता था कि शरीर से असमर्थ या अक्षम लोगों का भरण-पोषण हो। फिर भी कोढ़ हो जाने पर या विपत्ति से घिर असमर्थ हो जाने वाले बहुत से लोग भिक्षावृत्ति पर जीने के लिए विवश हो जाते थे। ऐसे लोग आमतौर पर तीर्थों में चले जाते थे। तीर्थयात्रियों के लिए यों भी अन्न और वस्त्र दान करना अत्यंत पुण्य का काम माना जाता था। इसलिए तीर्थों में किसी को अन्न और वस्त्र की कमी नहीं होती थी। लेकिन इसे भी केवल तीर्थयात्रियों के भरोसे नहीं छोड़ दिया गया था। सभी तीर्थों में अन्न क्षेत्र चलते थे, जहां सभी को भोजन उपलब्ध था। अन्न क्षेत्रों की हमारे यहां व्यापक परंपरा रही है। हर गृहस्थ का यह अनिवार्य कर्तव्य बना दिया गया कि वह अपने भाग में से अतिथि, साधु-संन्यासी और जीव-जंतुओं के लिए अन्न निकालें। दरवाजे पर आए भिक्षु को चाहे वह कोई भी हो, खाली हाथ या भूखे पेट लौटाना पाप समझा जाता था। यह सब समाज की नैतिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत था। गांव के एक किनारे पर साधु-संन्यासी या पथिकों के रात में विश्राम और भोजन की व्यवस्था करते हुए एक कोठरी बना दी जाती थी। मंदिरों में आश्रय सदा रहता था। हर शहर में सेठ उदारतापूर्वक अन्न क्षेत्र चलाते थे, जहां भोजन करवाना सामाजिक प्रतिष्ठा और पुण्य का काम माना जाता था। हर शुभ अवसर पर दूसरों के लिए निकालना हमारी वृत्ति में सम्मिलित था। ऐसी व्यापक नैतिक व्यवस्था के रहते असहायता और असमर्थता के वैसे दृश्य भारत में नहीं रहे, जैसे उन्नीसवीं सदी तक यूरोप में आम थे।

सांस्थानिक स्तर पर इस व्यवस्था को विशेषकर ब्रिटिश शासनकाल में रोक दिया गया। ब्रिटिश शासकों को लगता था कि दान में खर्च हुआ पैसा राज्य की टैक्स की संभावना घटाता है। जब भारतीय राजाओं के अन्न क्षेत्र आदि चलाने पर पाबंदी लगा दी गई तो त्रावणकोर के राजा ने जो धर्म राज के रूप में प्रसिद्ध थे और अपने आपको पद्मनाभ स्वामी का दास समझते थे, ब्रिटिश एजेंट को एक मार्मिक चिट्ठी लिखी। उसमें कहा गया था कि उनका राजा होना इन्हीं सब कार्यों से सार्थक होता है। अगर वे अपनी प्रजा के हित साधन के लिए अन्न क्षेत्र आदि नहीं चला सकते तो उनके राजा होने का अर्थ ही क्या रहेगा। लेकिन ब्रिटिश शासन को भारत से अधिकाधिक टैक्स वसूल करना था। उसे यह सब काम राजकोष की बर्बादी लगते थे। इसलिए ये सब व्यवस्थाएं क्षीण होती चली गर्इं। समाज कर्तव्य के आधार पर बनता है। भारतीय समाज सबके कर्तव्य की पीठिका पर ही खड़ा हुआ है। यूरोप की तर्ज पर हमने समाज की लगातार क्षति होने दी और राज्य को मजबूत किया। राज्य नियंत्रण के लिए है और वह सीमा रेखा न लांघे, इसीलिए अधिकारों की बात उठती है। कानून द्वारा राज्य की शक्ति और नागरिकों के अधिकार दोनों की व्याख्या की जाने लगी। लेकिन कानून अंधा होता है, वह देशकाल और परिस्थिति का विचार नहीं करता। इसलिए उसमें सभी परिस्थितियों का समावेश नहीं किया जा सकता।

भारत में भिक्षा निरोधक कानून बनाने की आवश्यकता इसलिए भी महसूस की गई कि मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में ऐसे आपराधिक गिरोह उभर आए, जो लोगों का अपहरण करके उन्हें अपंग बना देते थे और उनसे भीख मंगवाकर उसका बड़ा हिस्सा अपने पास रखते थे। लेकिन ऐसे गिरोहों तक पहुंचता पुलिस और प्रशासन के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए था। इन सब आपराधिक गिरोहों के बारे में जब अखबारों में काफी छपा, सामाजिक संगठनों ने उनके खिलाफ रोष जताया तो उन गिरोहों को ढूंढ़कर दंडित करने के बजाय भिक्षावृत्ति निरोधक कानून बना दिया गया। आज दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में साधु-संन्यासी भी नहीं फटक सकते। हम अपने शहर इस तरह बना रहे हैं कि उनमें किसी तरह की सामाजिकता नहीं बचने वाली। समाज जितनी तेजी से बिखरेगा, उसकी जगह भीड़ तंत्र पनपेगा। पिछले दिनों कई राज्यों में भीड़ द्वारा अनजान लोगों को पीट-पीटकर मार देने की बर्बर घटनाएं सामने आर्इं, क्योंकि भीड़ को आशंका थी कि वह अनजान व्यक्ति बच्चों के अपहरण से संबंधित किसी गिरोह का हिस्सा है। अब भारत सरकार इस तरह के अपराध के लिए एक कानून बनाने जा रही है। लेकिन क्या यह समस्या भीड़ के क्रूर व्यवहार तक सीमित है? किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि बच्चों के अपहरण की घटनाओं में इधर क्या काफी वृद्धि हुई है, जिसने सामान्य लोगों को आतंकित कर दिया है? अगर कानून बनाना ही हर समस्या का उपाय हो तो शायद एक दिन सबको जेल भेजना पड़े। हम अपने समाज की नैतिक व्यवस्था को नष्ट करके उस पर अंधा कानून लागू कर रहे हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली में भिक्षा का अधिकार बहाल करके अधूरा काम किया है। उससे भिक्षा का धर्म पुन: प्रतिष्ठित नहीं हो जाएगा। भिक्षा का धर्म भिक्षा के अधिकार से बड़ा है।