सियासत अक्सर आंखों पर पर्दा डाल देती है और फिर यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि सही क्या है और गलत क्या. अनुच्छेद 35-ए को लेकर यही स्थिति है. 1954 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने इसके जरिये जम्मू-कश्मीर में जो प्रयोग किया था, वह आज सब पर भारी पड़ रहा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे में तीन अहम मुद्दे हैं, अयोध्या विवाद, यूनिफॉर्म सिविल कोड और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने से जुड़ा अनुच्छेद 370. अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील लंबित है, जिस पर जल्द ही सुनवाई होने वाली है. उम्मीद है, फैसला भी जल्द ही आ जाएगा. यूनिफॉर्म सिविल कोड मामले में मोदी सरकार खुद तो कुछ नहीं कर पाई, लेकिन उसे इस दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि जरूर हासिल हुई. इसी सरकार के कार्यकाल में तीन तलाक का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. अदालत ने तीन तलाक की परंपरा को असंवैधानिक ठहराया और मोदी सरकार ने कानून बनाकर तीन तलाक को आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया. अब बचा तीसरा बहु-विवादित मुद्दा अनुच्छेद 370 का, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके खिलाफ है. अनुच्छेद 35-ए के बहाने यह मुद्दा भी सुप्रीम कोर्ट में है और अदालत इसकी समीक्षा करने वाली है. यह ऐसा मुद्दा है, जो अकेले दम पर देश की सियासत और भूगोल, दोनों बदल सकता है.
संविधान का अनुच्छेद 35-ए अनुच्छेद 370 का आधार है. इसके अनुसार, जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के अलावा अन्य भारतीय नागरिक राज्य में अचल संपत्ति नहीं खरीद सकते और न मताधिकार हासिल कर सकते हैं. केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद 2014 में दिल्ली के एक गैर सरकारी संगठन ‘वी द सिटिजन’ ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर अनुच्छेद 35-ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी. याचिका में कहा गया कि अनुच्छेद 35-ए और अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा हासिल है, लेकिन यह प्रावधान उन लोगों के साथ भेदभाव पूर्ण है, जो दूसरे राज्यों से आकर यहां बसे हैं. याचिका में कहा गया कि राष्ट्रपति को आदेश के जरिये संविधान में फेरबदल करने का अधिकार नहीं है. 1954 में राष्ट्रपति का आदेश एक अस्थाई व्यवस्था के तौर पर सामने आया था. दरअसल, 1954 में राष्ट्रपति के आदेश के तहत संविधान में अनुच्छेद 35-ए को जोड़ा गया गया था. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि यह मामला संवेदनशील है और संवैधानिक महत्व का है, इसलिए इस पर बड़ी बहस की जरूरत है. सरकार मामले में कोई हलफनामा नहीं दाखिल करना चाहती. अटॉर्नी जनरल ने मामले को बड़ी बेंच यानी संविधान पीठ के पास भेजने की जरूरत बताई थी. पिछले चार सालों से यह मामला अदालत में लंबित है. जब भी सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई की तारीख आती है, राज्य में बंद का आह्वान और हिंसक प्रदर्शन होने लगता है. पिछले साल 31 अगस्त को मामले की सुनवाई होनी थी, लेकिन तब स्थानीय चुनाव में शांति व्यवस्था की दुहाई देकर राज्य सरकार और केंद्र ने सुनवाई जनवरी तक टालने की मांग कर दी और सुनवाई टल गई थी. सुप्रीम कोर्ट अब कभी भी इस मामले की सुनवाई कर सकता है.
राज्य सरकार का पक्ष
जम्मू-कश्मीर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 35-ए के तहत राज्य के नागरिकों को विशेष अधिकार और सुविधाएं हासिल हैं. इस प्रावधान को अब तक चुनौती नहीं दी गई, यह संविधान का स्थायी लक्षण है. राज्य सरकार को अपने नागरिकों के लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार है. राज्य सरकार का कहना है कि यह व्यवस्था सालों से चली आ रही है. राष्ट्रपति के आदेश को 60 सालों के बाद चुनौती दी गई है, जिसका कोई मतलब नहीं है.
क्या है अनुच्छेद 35-ए
बहुत से लोग मानते हैं कि अनुच्छेद 370 खत्म कर देने जम्मू-कश्मीर की लगभग सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, लेकिन यह अधूरा सत्य है. व्यवहार में अनुच्छेद 370 उतना घातक नहीं, जितना 35-ए. अनुच्छेद 370 के चलते हो रही अधिकतर विसंगतियों की जड़ अनुच्छेद 35-ए ही बना. अनुच्छेद 370 को सशक्त बनाने के उद्देश्य से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 14 मई 1954 को बिना किसी संसदीय कार्यवाही के एक संवैधानिक आदेश निकाला, जिसमें उन्होंने एक नया अनुच्छेद 35-ए भारत के संविधान में जोड़ दिया. यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके और उनकी पहचान कर उन्हें विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके. यानी अनुच्छेद
35-ए पर्दे के पीछे से जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को लाखों लोगों को शरणार्थी मानकर उन पर गैर कानूनी होने का ठप्पा लगा देने का अधिकार भी दे देता है. खास बात यह है कि संविधान में कहीं भी आपको अनुच्छेद 35-ए दिखाई नहीं देगा. अनुच्छेद 35-ए अवश्य पढऩे को मिलेगा, लेकिन उसके लिए संविधान की एपेंडिक्स पर नजर डालनी होगी. इसी अनुच्छेद की वजह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 एवं 21 में भारतीय नागरिकों को समानता और कहीं भी बसने के जो अधिकार दिए, वे प्रतिबंधित कर दिए गए.
कौन चुका रहा है कीमत
1947 में बंटवारे के समय हजारों हिंदू परिवार पाकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे, जिनमें लगभग 85 फीसद दलित हैं. अनुच्छेद 35-ए की वजह से उन्हें न तो चुनाव में वोट देने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न सरकारी कॉलेजों में दाखिले का. वे अपने ही देश में शरणार्थी की तरह जीने को मजबूर हैं. सबसे ज्यादा खराब हालत बाल्मीकि समुदाय के लोगों की है, जो पचास के दशक में यहां आकर बस गए थे. उन्हें सरकार ने सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए पंजाब से बुलाया था, क्योंकि उस वक्त जम्मू में सफाई कर्मचारी नहीं मिलते थे. लेकिन उन्हें बदले में क्या मिला? बीते छह दशकों से वे यहां साफ-सफाई का काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता, जिसकी एक ही वजह है अनुच्छेद 35-ए.
विवाद क्या है
अनुच्छेद 368 के मुताबिक, संविधान में संशोधन के लिए संसद की मंजूरी की जरूरत होती है. लेकिन, 14 मई 1954 को राष्ट्रपति ने बिना किसी संसदीय कार्यवाही के एक संवैधानिक आदेश के तहत नया अनुच्छेद
35-ए देश के संविधान में जोड़ दिया. अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख है. संशोधन की तीन विधियां हैं- साधारण विधि द्वारा, संसद के विशेष बहुमत द्वारा और तीसरी संसद के विशेष बहुमत एवं राज्य के विधान मंडलों की स्वीकृति से संशोधन. इन तीनों ही स्थितियों में संसद की मुहर हर हाल में अनिवार्य है. अनुच्छेद 35-ए को लेकर यही विवाद है कि इसके लिए संसद की स्वीकृति नहीं ली गई. इसी आधार पर अदालत से मांग की गई है कि अनुच्छेद
35-ए को असंवैधानिक घोषित किया जाए. अगर सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 35-ए को असंवैधानिक करार देता है, तो जम्मू-कश्मीर में अन्य राज्यों के लोगों को जमीन खरीदने और बसने का अधिकार मिल जाएगा. इससे न केवल राज्य का भूगोल बदलेगा, बल्कि कश्मीर समस्या के समाधान का रास्ता आसान हो जाएगा. साथ ही संघ का तीसरा एजेंडा भी पूरा हो जाएगा. संघ के तीनों प्रमुख एजेंडों को लेकर मोदी सरकार की रणनीति कुछ यही है कि ज्यादा विवाद न हो और मामला निपट भी जाए.