अनुपम मिश्र से मुलाकात की कोशिश थी, लेकिन नहीं हुई

निशा शर्मा।

जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन लगाने वाले अनुपम मिश्र का सोमवार को दिल्ली के एम्स में निधन हो गया। वह 68 बरस के थे। मिश्र का अंतिम संस्कार आज दोपहर दिल्ली के निगम बोध घाट पर किया गया।

तीन दिसंबर का दिन था। मैं डंपड वेस्ट को लेकर एक खबर लिखने जा रही थी। सोचा पर्यावरणविद् से बात करने के आधार पर खबर को लिखूंगी ताकि चीजों को अच्छे से समझा सकूं। अनुपम मिश्र का नंबर तलाशा और फोन कर दिया। उनके नंबर पर किए फोन को उनकी जगह किसी और ने उठाया। मैंने सोचा में अनुपम जी से बात कर रही हूं। लेकिन पता चला वह ऑफिस नहीं आए हैं। मैंने पूछा वह कब तक आ जाएंगे तो पता चला उनकी तबियत खराब हैं। वह करीब छह महीनों से ऑफिस नहीं आ रहे हैं।

मैंने सोचा ऐसी क्या तबियत खराब हो गई कि वह ऑफिस छह महीने से नहीं आ रहे हैं। इसी विचार से फोन उठाने वाले से पूछ लिया तो उसने बताया कि उन्हें कैंसर है। वह ऑफिस नहीं आते हैं। घर से ही चीजें देखते हैं। यह सुनकर मुझे एकाएक अजीब लगा कि एक ऐसा जाना-माना नाम और शख्सियत जो इस तकलीफ़ से गुजर रहा है उसके बारे में कोई सुगबुगाहट नहीं है।

उनका नंबर मांगा तो पता चला कि वह तो मोबाईल फोन इस्तेमाल ही नहीं करते थे। साथ ही उस शख्स ने बताया था कि वह अब किसी से बात नहीं कर पा रहे हैं। घर का लैंडलाईन नंबर तो मुझे मिल गया था। लेकिन कैंसर की बीमारी और उनकी बात ना करने की स्थिति ने मुझे उनके पास फोन करने से रोक लिया। हालांकि उस दिन मुझे यह जरुर लगता रहा कि मैं उन पर कुछ लिखूं, पर नहीं लिख पाई। अपने काम में मशगूल होने के बाद मैंने अपनी खबर के लिए पर्यावरणविद् राजेन्द्र सिंह से बातचीत की और खबर पूरी कर दी।

आज अनुपम मिश्र खुद एक निराश करने वाली खबर के रुप में मेरे सामने हैं। और उसी निराशाजनक खबर को मैं लिख रही हूं। हिंदी के दिग्गज कवि और लेखक भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम भी उन्हीं की तरह संवेदनशील रहे। जिन्होंन पर्यावरण के मायनों को समझा और देश को पर्यावरण के महत्व से अवगत करवाया। ‘आज भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ जैसी उनकी लिखी किताबें जल संरक्षण की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं।

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