शिष्य संयोग से ही पाता है गुरु को -ओशो

शिष्य गुरु को केवल संयोग से ही पाता है। वह चलता है, गिरता है, फिर-फिर उठ कर खड़ा होता है। धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी जागरूकता उसमें आती जाती है। जहां तक गुरु का संबंध है, वह कुछ विशेष लोगों की होशपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा होता है। वह उन लोगों तक पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न भी करता है, लेकिन कठिनाई यह है कि वे सभी बेहोश हैं।

गुरु की खोज जितनी सरल और सहज हम समझते है, उतनी आसान नहीं है। कोई नहीं कह सकता, ‘वहां जाओ और तुम्हें तुम्हारा सद्गुरु मिल जाएगा।’ तुम्हें खोजना होगा, खोजने के दौरान जिन मुश्किलों का सामना करोगे, उनके द्वारा ही तुम उसे पहचानने के योग्य हो पाओगे। तुम्हारी आंखें स्वच्छ हो जाएंगी। आंखों के आगे आए बादल छंट जाएंगे और बोध होगा कि यह सद्गुरु है।

मिस्र के रहस्यवादी कहते हैं, जब शिष्य तैयार हो जाता है, तब गुरु प्रकट हो जाता है। गुरु के लिए तो यह पूरी तरह से एक होशपूर्ण बात है।

मैं नहीं कहता कि गुरु पर श्रद्धा करो। केवल इतना कहता हूं कि ऐसा व्यक्ति खोजो, जहां श्रद्धा घटित होती है। वही व्यक्ति तुम्हारा गुरु है। तुम्हें घूमना होगा, क्योंकि खोजना आवश्यक है। खोज तुम्हें तैयार करती है। ऐसा नहीं है कि खोज तुम्हें तुम्हारे गुरु तक ले जाए। खोजना तुम्हें तैयार करता है, ताकि तुम उसे देख सको। हो सकता है वह तुम्हारे बिल्कुल नजदीक हो।

गुरु-शिष्य संबंध संयोग मात्र भी है और एक होशपूर्ण चुनाव भी। यह दोनों है। जहां तक गुरु का सवाल है, यह पूर्णत: होशपूर्ण (जागरूकतापूर्ण) चुनाव है। जहां तक शिष्य का प्रश्न है, यह संयोग ही हो सकता है, क्योंकि अभी होश उसके पास है ही नहीं।

गुरु अस्तित्व देता है, ज्ञान नहीं। वह तुम्हारे अस्तित्व को, तुम्हारे जीवन को अधिक विस्तृत करता है, लेकिन ज्ञान को नहीं। वह तुम्हें एक बीज देता है और तुम भूमि बन कर उस बीज को अंकुरित होने, पनपने व खिलने दे सकते हो।

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