अजय विद्युत

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार के दौरान बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती को यह सफाई देने के लिए मजबूर होना पड़ा है कि उनकी पार्टी चुनाव के बाद न तो भारतीय जनता पार्टी के साथ कोई गठबंधन करेंगी, न सपा-कांग्रेस के साथ। अगर बहुमत नहीं भी आता है तो पार्टी गठबंधन कर सरकार बनाने की बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी।

पहले दौर के मतदान के बाद मायावती का कानपुर रैली में यह बयान उनकी राजनीतिक विवशता और अपने दरकते जनाधार को एकजुट करने की कोशिश को दर्शाता है। सीधा सा गणित यह है कि मायावती की पूरी चुनावी रणनीति दलित-मुसलिम वोटरों पर आधारित है। उन्होंने मुसलिम वोटरों पर डोरे डालने के लिए सबसे ज्यादा 97 मुसलिम उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा है। लेकिन अपनी रणनीति के कारगर होने में उन्हें कुछ कठिनाइयां साफ नजर आ रही हैं।

सोमवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि दो चरणों में भाजपा का मुकाबला बसपा से है जिसमें भाजपा को 90 सीटें मिलने वाली हैं। आगे के चरणों में भाजपा का मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन से है। यह बयान मुसलिम वोटरों को लेकर बसपा का खेल बिगाड़ने के लिए जानबूझकर दिया गया माना जा रहा है जिस पर मायावती को अपनी प्रतिक्रिया देनी ही थी। शाह मतदाताओं तक यह संदेश पहुंचाना चाह रहे थे कि चूंकि अंतिम पांच चरणों में बसपा कहीं भाजपा की टक्कर में नहीं है इसलिए उसे मिले मुसलिम वोट जाया ही होंगे। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि उत्तर प्रदेश में मुसलिमों का एक बड़ा तबका टैक्टिकल वोटिंग करता है।

दूसरी तरफ सपा से गठबंधन के बावजूद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मायावती की तारीफ करते रहे हैं और यहां तक कह चुके हैं कि अगर बसपा भी साथ आ जाए तो केंद्र में मोदी को चुनौती दी जा सकती है। अखिलेश ने भी राहुल के इस बयान पर कोई आपत्ति नहीं जताई थी। जिससे यह संदेश गया कि अगर चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए ऐसी परिस्थिति बनती है कि गठबंधन बहुमत से दूर रह जाता है तो राहुल मायावती से सहयोग की बात कर सकते हैं।

चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि इस सबसे मायावती को नुकसान पहुंच रहा था। खासकर मुसलमान वोटरों को लेकर। रतन मणि लाल यूपी के चुनावी सूरतेहाल पर ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में बता चुके हैं, ‘अभी ऐसा माहौल बन गया है कि मुसलिम बसपा के साथ हैं। उनका एक बहुत छोटा हिस्सा सपा के साथ है और वह बना रहेगा। वह कांग्रेस के साथ भी नहीं जाएगा।’

वहीं चुनाव विश्लेषक दिलीप अवस्थी का साफ मानना था कि मुसलमानों को मायावती के साथ समस्या यह है कि जरा भी मौका मिलने पर वह भाजपा से मिल जाएंगी। उन्होंने कहा, ‘ऐसा तीन बार हो चुका है इसलिए चौथी बार भी हो सकता है। दिल्ली के बाद अब यूपी में मुसलिम भाजपा को सत्ता में देखना नहीं चाहते। वे अपना वोट जाया भी नहीं होने देंगे। उसी को देंगे जो भाजपा से टक्कर ले सके। मुसलिमों को यह भरोसा दिलाना कि बसपा आगे सत्ता के लिए भाजपा से नहीं मिलेगी, मायावती को लिए बहुत कठिन है।’

मायावती का मंगलवार को मतदाताओं से यह कहना कि स्पष्ट बहुमत न मिलने पर वह भाजपा या सपा-कांग्रेस की मदद से सरकार नहीं बनाएंगी, मुसलिम वोटरों को बसपा के साथ जोड़े रखने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है। ओपिनियन पोस्ट के प्रधान संपादक प्रदीप सिंह ने पत्रिका के फरवरी द्वितीय अंक के संपादकीय में साफ कहा है कि ‘बहुजन समाज पार्टी और मायावती के लिए एक और हार विपत्ति के पहाड़ की तरह होगी। 2007 में बहुमत से सत्ता में आने के बाद से बसपा निरंतर नीचे ही जा रही है।’