अभिषेक रंजन सिंह

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की मतदाताओं को लुभाने की कोशिशें अमूमन वही हैं, जो अकसर चुनावों में देखी जाती हैं। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं लेकिन समूचे देश की निगाहें उत्तर प्रदेश के चुनाव और उनके नतीजों पर टिकी हैं। उत्तर प्रदेश का चुनावी परिणाम न सिर्फ सूबे की राजनीति को नई दिशा देगा बल्कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की पटकथा भी लिखेगा। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और दशकों से सियासी हाशिए पर पड़ी कांग्रेस के साथ गठबंधन हो गया है। वहीं सत्ता वापसी को आतुर बहुजन समाज पार्टी अपने दम पर चुनावी मैदान में है। भारतीय जनता पार्टी अपना दल समेत चंद छोटी पार्टियों के साथ चुनावी मैदान में उतरी है। समाजवादी पृष्ठभूमि से जुड़ा राष्ट्रीय लोकदल बगैर किसी गठबंधन के चुनावी मैदान में है तो असद्दुदीन ओवैसी की सदारत वाली आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) भी चुनावी समर में खम ठोंक रही है। उत्तर प्रदेश में अगली सरकार किसकी बनेगी इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ कहना संभव नहीं है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर शेष दलों के टिकट बंटवारे का सामाजिक समीकरण देखें तो पता चलता है कि सबकी निगाहें प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं पर हैं। सूबे की सियासत में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है लेकिन इस मर्तबा मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन और बहुजन समाज पार्टी में होड़ मची हुई है। बसपा ने मुसलमानों को सर्वाधिक टिकट दिया है, वहीं समाजवादी पार्टी और कांग्रेस भी उनसे थोड़ी ही पीछे है। जबकि भारतीय जनता पार्टी ने सूबे की 403 विधानसभा सीटों में एक भी मुसलमान को टिकट न देकर अपने मतदाताओं को यह जता दिया है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति से उसे अब भी परहेज है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब 21 फीसदी है। जाहिर है इनका एकमुश्त वोट चुनावी नतीजे बदलने के लिए काफी है। ढाई दशक पहले तक देश में मुसलमानों का थोक वोट कांग्रेस के खाते में जाता था। लेकिन नब्बे के दशक के बाद बदले सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों के बाद मुसलमानों का वोट क्षेत्रीय पार्टियों में तकसीम होता रहा है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस करीब दो दशकों से हाशिए पर रही है। उसे अपना सियासी वजूद बचाने के लिए बिहार में जेडीयू-आरजेडी के साथ और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ समझौता करने को मजबूर होना पड़ा। कांग्रेसी नेता भले ही दलील दें कि भाजपा को रोकने के लिए इस तरह के गठबंधन किए गए हैं लेकिन देश की जनता कांग्रेस की असहाय स्थिति से भली प्रकार वाकिफ है।

उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे कई मायनों में अहम होंगे और उनका असर दूरगामी होगा। चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन का मूल आधार यही है कि सूबे में मुसलमानों का वोट एकजुट रखा जाए। वहीं बसपा सुप्रीमो मायवाती मुसलमानों को सर्वाधिक टिकट देकर यह जताना चाह रही हैं कि इस कौम की एकमात्र रहबर वही है। लेकिन इसके बरअक्स उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता इस बार गहरे पसोपेश में हैं। मुसलमानों के वोट मिलने का दावा तो समाजवादी पार्टी गठबंधन और बहुजन समाज पार्टी दोनों कर रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि इस बार मुस्लिम मतदाताओं का वोट बंटना तय है। ऐसा कहना है देश के मुस्लिम धर्मगुरूओं और उलेमाओं का।

भ्रम की स्थिति
जमीअत-ए-उलमा-ए-हिंद के मौलाना अरशद मदनी ने बताया, ‘उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में फिलहाल भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि वे किस ओर जाएं। लेकिन आखिरकार मुसलमानों को यह भी सोचना होगा कि उनका वोट ऐसी पार्टी को जाए जो सूबे की तरक्की में एक नई इबारत लिख सके।’ उनके मुताबिक, ‘एक मजहबी रहनुमा होने के नाते मेरा सियासत से सीधा कोई वास्ता नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश की कमान ऐसे शख्स के हाथों में होनी चाहिए जो तरक्कीपसंद हो और उसकी स्वीकार्यता सभी वर्गों में हो।’ मौलाना अरशद मदनी भले ही खुलकर किसी दल विशेष की हिमायत की बात न करें लेकिन उनका इशारा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की तरफ था। उनकी नजरों में वही एक वाहिद शख्स हैं जो उत्तर प्रदेश का सही मायनों में विकास कर सकते हैं।

जमीअत-ए-उलमा-ए-हिंद ( महमूद मदनी) गुट से जुड़े अजीमुल्लाह का कहना है, ‘मौजूदा सपा सरकार में मुसलमानों के साथ बड़े पैमाने पर वादाखिलाफी हुई है। उनके मुताबिक, ‘पिछले चुनाव के समय अखिलेश यादव ने मुसलमानों की बेहतरी के लिए जो वादे किए थे उसका छंटाक भर भी पूरा नहीं हुआ। समाजवादी पार्टी की सरकार एक बड़े बहुमत के साथ बनी थी। मुसलमानों से जुड़े मसले पर बसपा ने भी कभी मुखालफत नहीं की। वहीं भाजपा की इतनी हैसियत नहीं थी कि वह साल 2012 के समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र का विरोध कर सके। बावजूद इसके मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मुसलमानों से किए वादों को पूरा करने में नाकाम रहे। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान इस बार समाजवादी पार्टी के खिलाफ हैं।’ अजीमुल्लाह मानते हैं, ‘ भाजपा का डर दिखाकर मुसलमानों के वोट लेने का वक्त अब खत्म हो चुका है।’

इस बीच मुसलमानों की सर्वोच्च शैक्षणिक संस्था दारूल उलूम देवबंद ने अपने यहां किसी सियासी पार्टी के नेताओं के आने पर पाबंदी लगा दी है। देवबंद का कहना है कि यहां आने वाले नेता इसका गलत चुनावी फायदा उठाते हैं। देवबंद कभी किसी पार्टी के पक्ष में अपील जारी नहीं करती लेकिन यहां आने वाले नेता प्रेस और मीडिया में यह दुष्प्रचार करते हैं कि देवबंद की सरपरस्ती उन्हें हासिल है। देवबंद के फैसले से सियासी दलों में बेचैनी साफ देखी जा सकती है।

उत्तर प्रदेश में शिया मुसलमानों की भी अच्छी संख्या है। सूबे की बीस सीटों पर हार-जीत शियाओं के वोट पर निर्भर है। ओपिनियन पोस्ट से खास बातचीत में शीर्ष शिया धर्मगुरु और सियासी समझ रखने वाले उलेमा मौलाना कल्बे रुशैद रिजवी ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता इस बार समाजवादी पार्टी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की वादाखिलाफी से आहत हैं। लिहाजा मुसलमानों का एक बड़ा तबका बसपा की ओर जाएगा। प्रदेश में मुख्य मुकाबला बसपा और भाजपा में होगा। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दलित मतदाताओं को यह समझाने में कामयाब रहे कि भाजपा के शासन में दलितों के साथ कोई गैर बराबरी नहीं होगी और वे भी समग्र हिंदू समुदाय के अंग हैं, तो काफी हद तक भाजपा को इसका लाभ मिलेगा।’

सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं दिल्ली प्रदेश बसपा के वरिष्ठ नेता शाहिद अली एडवोकेट ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में कहते हैं, ‘यूपी में बीएसपी पूर्ण बहुमत से सरकार बनाएगी। जनता सपा सरकार के कुशासन से ऊब चुकी है। समाज के सभी वर्गांे का समर्थन बसपा सुप्रीमो मायावती को हासिल है।’ पूर्वांचल के बाहुबली मुख्तार अंसारी बंधुओं के बसपा में शामिल करने और उन्हें प्रत्याशी बनाए जाने के सवाल पर शाहिद अली कहते हैं, ‘मुख्तार अंसारी एक प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं। सियासी रंजिश की वजह से उन्हें बेवजह फंसाया गया है। मुहम्मदाबाद से भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्याकांड में मुख्तार अंसारी के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं।’ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मुफ्ती एजाज अरशद कासमी बताते हैं, ‘उत्तर प्रदेश या दीगर सूबों में होने वाले चुनावों में मुसलमान अब किसी भी पार्टी को आंख मूंदकर वोट नहीं करेगा। भाजपा का खौफ दिखाकर तमाम सेकुलर पार्टियों ने मुसलमानों के जज्बातों को ठेस पहुंचाई है। लिहाजा इस बार यूपी का मुसलमान पार्टी से ऊपर उठकर उम्मीदवारों की शख्सियत पर वोट करेगा। मुस्लिम वोट बसपा, सपा, कांग्रेस और एआईएमआईएम को भी मिलेगा। कमोबेश भाजपा भी मुसलमानों का वोट पाने में कामयाब होगी। भले ही उसने मुसलमानों को टिकट नहीं दिया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तमाम दीगर तंजीमों के साथ मीटिंग कर एक अपील प्रदेश के मुसलमानों के नाम जारी करेगा।’

ओवैसी की पार्टी किसका खेल बिगाड़ेगी

आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) उत्तर प्रदेश खासकर सूबे के पश्चिमी इलाकों में पूरे दम-खम से चुनावी मैदान में है। पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी भी उत्तर प्रदेश में कई रैलियां कर रहे हैं। उनकी चुनावी रैलियों में उमड़ी भीड़ किस हद तक वोटों में तब्दील होगी यह चुनावी नतीजे ही बताएंगे। बिहार विधानसभा चुनाव में भी एआईएमआईएम ने सीमांचल की छह सीटों पर चुनाव लड़ा था। कामयाबी तो नहीं मिली लेकिन दो-तीन सीटों पर उसे अच्छा वोट मिला। कोचाधामन के पूर्व विधायक और बिहार प्रदेश आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष अख्तरुल इमान ओपिनियन पोस्ट को बताते हैं,‘उत्तर प्रदेश की जनता खासकर मुसलमान फिरकापरस्त और मौकापरस्त पार्टियों को सबक सिखाएंगे। पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की रैलियों में शामिल लोगों की भीड़ इस बात का संकेत है कि उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन को एक बेहतर विकल्प के रूप में देख रहे हैं। समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी मुसलमानों की स्वयंभू ठेकेदार हैं। जबकि इन तीनों पार्टियों की हुकूमत में मुसलमानों के साथ नाइंसाफी हुई है।’
एआईएमआईएम की दलीलों के बरअक्स इतना जरूर है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में मुसलमानों का एकमुश्त वोट किसी पार्टी या गठबंधन विशेष के पाले में जाता फिलहाल नहीं दिख रहा है। ऐसा भी नहीं है कि एआईएमआईएम यूपी के चुनावी समर में अचानक कूद पड़ी है। पार्टी के अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी काफी पहले इस बात की घोषणा कर चुके थे कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनाव में हिस्सा लेगी। समाजवादी पार्टी, बसपा, कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू की तरफ से उन पर आरोप भी लगते रहे हैं कि उत्तर भारत में उनकी पार्टी के चुनाव लड़ने से सेकुलर मतों का विभाजन होगा और इसका लाभ कहीं न कहीं भाजपा को मिलेगा। हालांकि, बतौर बैरिस्टर एवं सांसद ओवैसी अपने सधे तर्कों से विपक्षी दलों को खामोश करने में भी सक्षम हैं। उनके इस तर्क को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता कि ‘देश के मुसलमानों की रहबरी करने का ठेका कब और किस पार्टी को मिल गया है? भारत एक प्रजातांत्रिक देश है एआईएमआईएम और भाजपा तो बहुत पुरानी पार्टी नहीं हैं। लंबे समय तक इस देश में कांग्रेस पार्टी का एकछत्र शासन रहा फिर भी देश के मुसलमान आज हाशिए पर क्यों हैं?’

सत्तर साल से वहीं खड़ा मुसलमान
सियासी दलों द्वारा मुसलमानों का वोट हासिल करने की कवायद को चांदनी चौक दिल्ली स्थित फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम डॉ. मुफ्ती मुकर्रम अहमद दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहते हैं, ‘मुल्क को आजाद हुए 69 साल हो गए लेकिन मुसलमानों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। जम्हूरियत में सभी लोग बराबर हैं लेकिन चुनावों के समय मुसलमानों को एक अलग चश्मे से देखा जाता है। मुसलमानों को बेहतर तालीम मिले, उन्हें रोजगार के मौके मुहैया हों, इस पर कोई पार्टी संजीदा नहीं है। यही वजह है कि हिंदुस्तान में रहने वाले दूसरे कौम तरक्की कर रहे हैं, जबकि मुसलमान आज भी गुरबत और गैर बराबरी के शिकार हैं। मुसलमानों की भलाई कोई सियासी पार्टी नहीं, बल्कि खुद मुसलमान कर सकता है। बशर्ते वह जज्बातों के जंजीरों से बाहर निकले। देश में होने वाले तमाम चुनाव लोकतंत्र के लिहाज से अहम हैं। इसलिए मुसलमानों को किसी अपील या फतवे पर एतबार नहीं करके अपने दिमाग से वोट करना चाहिए।’

सपा राज में मुसलमान महफूज नहीं
रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव के मुताबिक, ‘समाजवादी पार्टी के शासन में मुसलमान महफूज नहीं हैं। मुजफ्फरनगर के दंगे के बाद कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा था कि आतंकवाद के नाम पर जेलों में बंद बेकसूर मुस्लिम नौजवानों को कानून सम्मत रिहा किया जाएगा।

इसके अलावा मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपियों पर कार्रवाई की जाएगी, मुसलमानों को 18 फीसदी आरक्षण मिलेगा, सभी सरकारी आयोगों में कम से कम एक मुस्लिम सदस्य नियुक्त किया जाएगा, बुनकरों के कर्जे माफ किए जाएंगे मगर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। अगर समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र से डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की तस्वीरों को हटा दिया जाए तो भाजपा और सपा के घोषणापत्र में कोई फर्क नहीं रहेगा। उत्तर प्रदेश के मुसलमान समाजवादी पार्टी की धोखेबाजी से काफी आहत हैं।’