अरविंद शुक्ला
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने मुरझाए और पस्त पड़े विपक्ष को अगले लोकसभा चुनाव के लिए संजीवनी दे दी है। सपा-बसपा के कथित बेमेल गठबंधन ने भाजपा को करारी शिकस्त देकर विपक्ष को यह उम्मीद बंधा दी कि अगर एकजुट होकर लड़ा जाए तो मोदी लहर से पार पाया जा सकता है। किसी उपचुनाव और उसके नतीजों को लेकर इतनी गहमागहमी और चर्चा हाल के दशकों में शायद ही हुई हो। चर्चा इसलिए कि इन दोनों सीटों पर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री और एक डिप्टी सीएम का कब्जा था। न सिर्फ उन दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी बल्कि पार्टी और सरकार की साख भी उन सीटों से जुड़ी हुई थी। खासकर गोरखपुर सदर संसदीय सीट पर भाजपा की हार ने न सिर्फ सबको चौंकाया बल्कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि को धूमिल कर दिया क्योंकि यह सीट पिछले 29 साल से गोरक्षपीठ का गढ़ मानी जाती रही है। खुद योगी आदित्यनाथ इस सीट से पांच बार सांसद बने हैं। हार के बाद योगी आदित्यनाथ स्वीकार चुके हैं कि अति आत्मविश्वास भाजपा को ले डूबा।
इस उपचुनाव ने आम लोगों और राजनीतिक पंडितों का ध्यान इसलिए भी आकर्षित किया कि इसके लिए दो ऐसे दलों (सपा-बसपा) ने गठबंधन किया जो करीब 25 साल से एक दूसरे के सियासी दुश्मन माने जाते रहे हैं। यही नहीं, इसके नतीजे आने से ग्यारह दिन पहले ही प्रदेश और केंद्र की सत्ता पर भारी बहुमत से काबिज भाजपा ने त्रिपुरा की 29 साल पुरानी वाम सरकार को उखाड़ फेंका था। इसके अलावा अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के नजरिये से भी इन नतीजों को अहम माना जा रहा है।
गोरखपुर सदर सीट पर बड़ा उलटफेर करते हुए सपा ने 29 साल बाद भगवा किला ढहा दिया। यह सीट योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई थी। यह सीट 1989 से ही गोरक्षपीठ और भाजपा के पास थी। सपा उम्मीदवार प्रवीण कुमार निषाद ने भाजपा प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ला को 21,881 वोटों से हरा कर योगी आदित्यनाथ को बड़ा झटका दिया है। बसपा, पीस पार्टी, निषाद पार्टी, रालोद और वामपंथी दलों के समर्थन से चुनाव मैदान में उतरी सपा की साइकिल तेज गति से दौड़ी और शहरी इलाकों के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में भी खूब वोट बटोरे। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. सुरहीता करीम की जमानत जब्त हो गई है। उन्हें महज 18,844 वोट मिले।
पिछले करीब तीन दशक से गोरखपुर की राजनीति को गोरक्षपीठ से इतर नहीं देखा जाता था। इस उपचुनाव में जब भाजपा ने उम्मीदवार के चयन में योगी की अनदेखी कर उपेंद्र दत्त शुक्ला को प्रत्याशी बनाया तभी यह बात साफ हो गई थी कि इस बार सांसद की कुर्सी गोरक्षपीठ के बाहर रहेगी। गोरक्षपीठ के ही किसी व्यक्ति को प्रत्याशी बनाया जाता तो नतीजे कुछ और होते। इसकी वजह यह है किपीठ का प्रत्याशी होने पर लोगों की आस्था बरकरार रहती जिसके दम पर पूर्व के चुनावों में गोरक्षपीठ अपराजेय रही। जातीय समीकरणों से पहले भी गोरखपुर में भाजपा को चुनौती मिलती रही है लेकिन चुनाव में सीधे गोरक्षपीठ की प्रतिष्ठा जुड़ जाने से इन समीकरणों पर आस्था भारी पड़ती थी। मनमाफिक प्रत्याशी न होने के बावजूद इस सीट की प्रतिष्ठा योगी आदित्यनाथ से ही जुड़ी थी। चुनौती से पार पाने को उन्होंने करीब डेढ़ दर्जन चुनावी सभाएं भी की लेकिन पीठ से जुड़े व्यक्ति के सीधे चुनाव में न होने से भीड़ परंपरागत आस्थावान वोटर के रूप में तब्दील नहीं हो पाई।
मतदान के दिन ही परिणाम की तस्वीर कुछ हद तक साफ होने लगी थी क्योंकि इस संसदीय क्षेत्र की सभी पांच विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा होने के बावजूद मतदान प्रतिशत में गिरावट आई। भाजपा कार्यकर्ताओं ने वोटरों को बूथ तक पहुंचाने में कोई मशक्कत नहीं की। उधर, सपा के साथ आई बसपा ने भी इस भगवा किले को ढहाने में अपना पूरा दम झोंक दिया। सपा अपने यादव-मुस्लिम वोट बैंक को सहेजने में जुटी रही तो निषाद पार्टी ने निषादों को पूरी तरह जोड़े रखा। गोरखपुर लोकसभा सीट और गोरखनाथ मंदिर का राजनीतिक इतिहास किसी से छिपा नहीं है। गोरखनाथ मंदिर के महंत अवैद्यनाथ और उनके उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ ने इस सीट पर 29 साल तक अजेय बढ़त बनाए रखी। मगर मंदिर से अलग हुई सीट को बचाने में भाजपा नाकाम रही। साइकिल पर हाथी की सवारी 29 साल की इस हुकूमत पर भारी पड़ी।
जहां तक फूलपुर की बात है तो यह सीट कभी भी परंपरागत रूप से भाजपा की नहीं रही। मगर 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में यह सीट पहली बार भाजपा के खाते में आ गई। भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने करीब तीन लाख वोटों से यह सीट जीती थी। उनके डिप्टी सीएम बनने के बाद यह सीट खाली हुई थी। यहां सपा के नागेंद्र पटेल ने भाजपा के कौशलेंद्र सिंह पटेल को करीब 60 हजार वोटों से हराया। यहां भी भाजपा की हार से सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि पिछले चुनाव में इतने बड़े अंतर से जीत दर्ज करने के बावजूद इस बार इतनी बड़ी हार कैसे हो गई, वो भी तब जब निर्दलीय उम्मीदवार अतीक अहमद को करीब 50 हजार वोट मिले जिनके बारे में माना जा रहा था कि वे सपा-बसपा के वोट में ही सेंध लगाएंगे और इसका फायदा भाजपा को मिलेगा। हालांकि यहां भी भाजपा को उम्मीदवार चयन में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। जातीय समीकरण साधने के चक्कर में जब पार्टी को यहां कोई योग्य उम्मीदवार नजर नहीं आया तो बनारस के कौशलेंद्र पटेल को मैदान में उतार दिया गया।