राजीव थपलियाल

डोकलाम में तनाव के बीच बड़ाहोती की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित इस इलाके में युद्ध की स्थिति कभी नहीं आई लेकिन चीन इस इलाके को विवादास्पद बनाने के लिए अपनी हरकतों से बाज नहीं आता है।

डोकलाम में भारत-चीन तनाव के बीच उत्तराखंड के बड़ाहोती में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबर ने सुरक्षा एजेंसियों के कान खड़े कर दिए हैं। उत्तराखंड की अंतरराष्ट्रीय सीमा चीन-तिब्बत और नेपाल से मिलती है। चीन-तिब्बत सीमा पर जहां आजकल अघोषित तनाव है वहीं नेपाल सीमा पर माओवादियों की घुसपैठ के कारण अशांति की आशंका बीच-बीच में उठती रहती है। प्रदेश के चमोली जिले का बड़ाहोती सर्वाधिक संवदेनशील है जहां चीनी सैनिकों की घुसपैठ अकसर देखी-सुनी गई हैं। यह क्षेत्र ऊपरी हिमालय के अति दुर्गम इलाके में घास का मैदान है जिसे बुग्याल कहते हैं। यहां भारतीय चरवाहों को चीनी सैनिकों द्वारा धमकाने की खबरें बीच-बीच में मिलती रहती हैं। हालांकि प्रशासन ऐसे मसलों पर स्पष्ट जानकारी कभी नहीं देता। बड़ाहोती के अलावा नेलांग और दोजांग भी महत्वपूर्ण भारतीय पोस्ट हैं जहां से चीन घुसपैठ कर सकता है।

बताया जा रहा है कि पिछले महीने 26 जुलाई को बड़ाहोती में लगभग 100-200 चीनी सैनिक आए और करीब दो घंटे रहने के बाद लौट गए। हालांकि पुलिस-प्रशासन ने इस मसले पर कोई भी जानकारी साझा करने से परहेज किया लेकिन डोकलाम विवाद के दौरान बड़ाहोती में चीनी सैनिकों के घुसने की खबर से हड़कंप स्वाभाविक था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले साल जिला प्रशासन के अधिकारियों का भी सामना बड़ाहोती में चीनी सैनिकों से हुआ था। तब भी घुसपैठ के इस खुलासे के बाद खलबली मची थी। बाद में इस पर पर्दादारी की कोशिश के बाद मामला शांत कर दिया गया।

दरअसल, बड़ाहोती सामरिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। तिब्बत को कब्जाने के बाद चीन इस बुग्याल पर दखल की कोशिश करता रहा है। हालांकि सीमा पर मुस्तैद भारतीय जवान चीन का मुंहतोड़ जबाब देते हैं। लेकिन मौजूदा हालात में जिस तरीके से डोकलाम में तनातनी बढ़ी है उसके बाद बड़ाहोती को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यहां भारतीय चरवाहों को चीनी सैनिकों ने कई बार रोकने का प्रयास किया है। चीन के लिए यह सॉफ्ट टारगेट है। भारतीय सीमा की रक्षा में आईटीबीपी के जवान दिन-रात डटे हैं। बावजूद इसके चीन अपनी हरकतों से बाज नहीं आता। हाल ही में दो चीनी हेलिकॉप्टरों के भी बड़ाहोती में भारत की सीमा तक आने की खबर आई थी। इससे पहले भी चीनी सैनिक इस प्रकार की हरकतें करते रहे हैं। लेकिन जिस प्रकार से डोकलाम विवाद लगातार बढ़ रहा है और चीनी सैनिकों के बड़ाहोती में घुस आने की सूचना मिल रही है वह चिंता तो पैदा करता ही है।

1950 से बड़ाहोती पर है नजर
उत्तराखंड के चमोली जनपद में जोशीमठ के रास्ते मलारी से आगे 51 वर्ग किलोमीटर का एक घास का मैदान है जिसे बड़ाहोती के नाम से जाना जाता है। बरसात के दिनों में इस हिमालयी मैदान में पौष्टिक घास उग आती है। यहां सीमांत इलाके के चरवाहे अपनी भेड़-बकरियों को चराने लाते हंै। 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो उसने इस बड़ाहोती को भी अपना मानना शुरू कर दिया। 1962 में चीन ने नेफा (अरुणाचल प्रदेश) में युद्ध छेड़ा। भारत-चीन की सीमा पर पूर्वोत्तर में भारी जंग के बावजूद उत्तराखंड की सीमा अपेक्षाकृत शांत रही। तब बड़ाहोती में दोनों देश के सैनिक आमने सामने जरूर आए पर गोलियां नहीं चली। चीन की सीमा चौकी दापा और आसपास के गांवों में है। जबकि भारत में आईटीबीपी की चौकियां हैं। उत्तराखंड की 356 किमी से अधिक लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा की रक्षा भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के जिम्मे है। चीन के सैनिक घोड़ों पर सवार होकर बड़ाहोती के ऊपर गश्त लगाते भी देखे जाते हैं। बड़ाहोती में होती नामक नदी भी बहती है। चीनी सैनिक बड़ाहोती में गड़बड़ी फैलाने के मकसद से अपने देश के कागज व अन्य सामग्री फेंक कर लौट जाते हैं। चीन तिब्बती लोगों को बड़ाहोती में याक-भेड़ चराने के लिए भी भेजता है ताकि इस भूभाग को विवादास्पद बनाने की मंशा में सफल हो सके।

नेलांग के पार दिख रहे चीन के निर्माण
भारत-तिब्बत बॉर्डर पर नेलांग घाटी है जो उत्तरकाशी जनपद मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर दूर है। यहां से लगभग 50 किलोमीटर आगे भारत-चीन की सीमा गुजरती है। नेलांग के साथ ही कोपांग, जुरांग आदि घाटियां हैं जहां से चीनी सीमा के पार की गतिविधियां साफ नजर आती हैं। पत्रकार रवीश काला ने बताया कि चीन ने यहां तक अपनी पहुंच के लिए सड़क निर्माण कर लिया है। उसके सड़क बनाने वाले बुलडोजर आदि भारतीय इलाके से साफ दिखाई देते हैं। वहीं राजनीति से जुड़े प्रदीप भट्ट का कहना है कि इस इलाके के गांव खाली होने का खामियाजा भारत को उठाना पड़ सकता है। मानवविहीन होते इन इलाकों में दुश्मन की पैठ का पता लगाने में सेना को ग्रामीणों से मदद मिलती थी जो अब मिलनी मुश्किल है। पहले 1962 की लड़ाई के दौरान गांव वालों को सैन्य कारणों से हटाया गया। बाद में पहाड़ से लोग खुद पलायन करने लगे।
सीमांत इलाकों से पलायन देश के
लिए खतरा
तिब्बत और नेपाल की सीमा से लगे उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों का गठन 24 फरवरी, 1960 को सामरिक दृष्टिकोण से किया गया था। भारत की इस सूझबूझ का परिचय तब मिला जब 1962 में चीन ने उत्तर पूर्व में युद्ध छेड़ दिया और उत्तराखंड की सीमा सुरक्षित रही। सीमांत क्षेत्रों से पलायन न हो, सीमाओं पर सड़क और अन्य संसाधन कैसे मजबूत हों इस पर मजबूत और ठोस कार्य करने की जरूरत है। बावजूद इसके पहाड़ों से हो रहे पलायन पर न प्रशासन गंभीर दिखता है और न ही सरकारें। जिस तरह गांव जनविहीन हो रहे हैं उससे तो लगता है कि खतरा और भी बढ़ गया है।
हर्षिल के रास्ते चीन तक जासूसी करने के कई किस्से उत्तराखंड के सीमांत जनपदों के बुजुर्गों के मुंह से आज भी सुनने को मिल जाते हैं। किंग आॅफ हर्षिल नामक पुस्तक में एक अंग्रेज लेखक ने तो यहां तक दावा किया है कि राजशाही के दौरान 18वीं शताब्दी में विल्सन नामक अंग्रेज टिहरी के राजा से जंगलों का कटान का ठेका लेकर हर्षिल तक गया। उसे स्थानीय ग्रामीणों से यह सूचना मिली थी कि रूस से कुछ जासूस हर्षिल के बाद पड़ने वाले दर्रे से होते हुए चीन की तरफ गए हैं। विल्सन ने गांव वालों को साथ में लिया और उन जासूसों को रास्ते में ही मार गिराया। विल्सन की इस उपलब्धि पर फिरंगी बहुत खुश हुए थे।

मुआवजे के लिए भटक रहे गांव देने वाले
सीमांत गांवों के आबाद रहने का महत्व विल्सन की घटना से साबित होता है। लेकिन गांव वालों का भरोसा जीतना सरकार के लिए अब आसान नहीं है। 1962 की जंग के दौरान सीमांत गांवों नेलांग, नाटूंग आदि को खाली कराया गया था। यहां के अनुसूचित जनजाति के लोगों को तब सरकार की ओर से इस विस्थापन का मुआवजा दिए जाने की बात कही गई थी जो आज तक नहीं मिला। बेचारे ग्रामीण अनुसूचित जनजाति आयोग के चक्कर काट रहे हैं। यह मामला मोदी सरकार के तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के सामने भी उठा था लेकिन उन्होंने भी कुछ नहीं किया। राजनीतिक कार्यकर्ता प्रदीप भट्ट का कहना है कि इससे समझा जा सकता है कि सरकार का ग्रामीणों से यह छलावा उन्हें किस ओर मोड़ेगा। बेहतर होता कि सैन्य बलों के जवान ग्रामीणों से तालमेल कर पलायन रोकने जैसे कदम उठाते।

सीमा दौरा अचानक स्थगित
सामरिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील बड़ाहोती पर भारत और चीन दोनों अपना-अपना अधिकार मानते हैं पर भारत का दावा हमेशा मजबूत रहा है। इसी मजबूती की प्रमाणिकता के लिए भारतीय अधिकारियों की टीम बीच-बीच में बड़ाहोती जाती रहती है। मगर इस वर्ष तयशुदा दौरा अचानक टाल दिया गया। चमोली जिले के वरिष्ठ पत्रकार क्रांति भट्ट ने बताया कि प्रशासन ने बड़ाहोती निरीक्षण के लिए जा रही अधिकारियों की टीम के दौरे स्थगित होने की वजह मलारी के पास सड़क पर भारी मलबा आने को बताया। साथ ही यह भी सफाई दी कि मौसम के विपरीत रहने की चेतावनी के कारण भी दौरा स्थगित करना पड़ा। यदि सड़क पर मलबा होने की वजह से निरीक्षण का दौरा स्थगित करना पड़ सकता है तो हमें अपनी जमीनी स्थिति पर आत्मविश्लेषण करना जरूरी है। चीन सीमा पार ज्ञानिमा तक रेल मार्ग बिछा चुका है। दूसरी ओर हम हैं कि सीमा से कहीं पीछे सड़क पर मलबा आने से निरीक्षण स्थगित करने को मजबूर हैं। चीन से दो-दो हाथ करने की बात करने से पहले इस हकीकत का भी आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है कि हमारे संसाधन अभी कहां अटके पड़े हैं। हमारे सैनिक तमाम विपरीत स्थितियों में भी सीमा पर मुस्तैदी से डटे हैं मगर उन तक संसाधनों को पहुंचाने की भी हमारी जिम्मेदारी है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सड़क और संसाधन के क्षेत्र में कुछ भी नहीं हुआ है लेकिन जो तेजी होनी चाहिए उसमें कमी है। 