उत्तराखंड में फिर भी आसान नहीं सीएम की राह

18 मार्च को दोपहर बाद देहरादून के परेड ग्राउंड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने उत्तराखंड के नौवें मुख्यमंत्री के तौर पर अपने मंत्रिमंडल के नौ सदस्यों के साथ शपथ ली। भावी मुख्यमंत्री के तौर पर बहुप्रचारित सतपाल महाराज से मुख्यमंत्री की कुर्सी ले उड़े त्रिवेंद्र के मंत्रिमंडल को देख कुछ आश्चर्य हुआ तो कुछ अंदाजे के अनुरूप भी रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में भाजपाई कवच में कांग्रेस नजर आई। नौ में से पांच मंत्री कांग्रेस से भाजपा में चुनाव पूर्व शामिल होने वाले नेता थे। कांग्रेस के इन कद्दावर चेहरों को मंत्री बनाने के पीछे भाजपा की ‘मजबूत’ होने की मंशा हो अथवा ‘मजबूर’ होने की मनोदशा, दोनों ही स्थितियों में नए नवेले मुख्यमंत्री के लिए आसान राह तो नहीं बनती दिखती। इनका इतिहास देखें तो सियासत के इन दबंग धुरंधरों को काबू में रखना आसान नहीं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद त्रिवेंद्र रावत के समक्ष खुद को बेहतरीन साबित करने की चुनौती अलग से पैदा हो चुकी है।

कई को मात दे बढ़े त्रिवेंद्र
उत्तराखंड के इतिहास में ‘पैराशूट’ परंपरा के उलट लोकतांत्रिक तरीके से विधानमंडल दल के नेता चुने जाने वाले पहले मुख्यमंत्री बने हैं त्रिवेंद्र। राज्य गठन के इन 16 सालों में मुख्यमंत्री हमेशा विधायकों के बजाय किसी अन्य नेता को बनाया जाता रहा। वह बाद में विधायक दल का सदस्य बना। यह परिपाटी कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही अपनाए रखी। इस बार भी ऐसी ही नौबत आते-आते बची, जब पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक और विजय बहुगुणा के अलावा राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी और प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट भी इस रेस में कूद पड़े। इनके अलावा भी कई योग्य उम्मीदवारों की लंबी फेहरिस्त थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि त्रिवेंद्र कभी भी प्रदेश भाजपा की प्रथम पंक्ति का चेहरा नहीं थे। सतपाल महाराज और प्रकाश पंत की प्रबल दावेदारी के बावजूद भाजपा हाईकमान ने त्रिवेंद्र पर भरोसा जताया। भले ही पार्टी के भीतर और बाहर बहुत से लोगों को त्रिवेंद्र की ताजपोशी गले न उतर रही हो, लेकिन सच यही है कि मौजूदा परिवेश में पार्टी के प्रति विश्वसनीयता, निष्ठा और समर्पण के मानकों पर वह पूरी तरह फिट बैठे हैं। निश्चित तौर पर संघ की पृष्ठभूमि, पार्टी के लिए दिन-रात की मेहनत, वरिष्ठ नेताओं के प्रति सम्मान और मौजूदा नेतृत्व से उनकी नजदीकियों ने उन्हें राज्य का नेतृत्व करने का अवसर दिया है।

भाजपाई मुलम्मे में कांग्रेसी मंत्रिमंडल
त्रिवेंद्र को सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुनकर जनता में एक मजबूत मुख्यमंत्री देने का जो संदेश भाजपा ने देने की कोशिश की, उसमें वह पहले ही कदम पर लड़खड़ाती नजर आई। इस मजबूती में मजबूरी साफ झलकने लगी है। उनकी कैबिनेट में शामिल चेहरे यह ‘हकीकत’ बयान करने के लिए काफी हैं। भाजपा के पास आठवीं बार तक निर्बाध जीत हासिल करने वाले विधायकों के साथ ही युवा, निष्ठावान और साफ छवि के विधायकों की कमी नहीं थी। इसके बावजूद 10 सदस्यीय मंत्रिमंडल में आधे लोग पूर्व कांग्रेसी थे। कैबिनेट मंत्रियों का शपथ ग्रहण भी कांग्रेस से भाजपा में आए सतपाल महाराज से शुरू हुआ तो राज्यमंत्रियों में पहली शपथ कांग्रेस से भाजपा में आई रेखा आर्य ने ली। इनके बीच डॉ. हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य, सुबोध उनियाल ने मंत्री पद की शपथ ली। शपथ ग्रहण कार्यक्रम में मौजूद करीब-करीब सभी लोगों की जबान पर इस मंत्रिमंडल की खूब चर्चा रही। लोगों ने यहां तक कहा कि अरे! यह तो भाजपा के चोले में कांग्रेस की सरकार आ गई।

वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट ने सवाल उठाया कि प्रचंड बहुमत से बनने वाली सरकार, एक साफ सुथरी कैबिनेट तैयार करने में न जाने क्या संतुलन साधने के फेर में पड़ गई? आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि भारी बहुमत होने के बावजूद भाजपा नेतृत्व बागियों और दागियों से किनारा नहीं कर पाया? जहां तक बागियों की बात है तो उनसे बगावत भाजपा ने नहीं करवाई, बल्कि वे अपने तत्कालीन नेतृत्व यानी हरीश रावत की कार्यशैली और रीति-नीति से परेशान थे। यह बात खुद बागियों ने ही स्वीकारी थी कि वे हरीश रावत की मनमानी से परेशान हैं। इसके बाद उनका भाजपा का दामन थामना और उस पर उन्हें मंत्री बनाया जाना, वह भी तब जबकि बहुमत जैसी कोई मजबूरी न हो, बेहद आश्चर्यजनक है। सवाल यह उठता है कि यदि इन्हें मंत्री न बनाया जाता तो सरकार को कौन सा खतरा होना था? दूसरा सवाल यह कि बिना मंत्री बने केवल विधायक रहते हुए क्या ये बागी प्रदेश के विकास में योगदान नहीं दे पाते? ये वो सवाल हैं जो न केवल भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के बल्कि प्रदेश की आम जनता के जेहन में भी हैं।

शांत त्रिवेंद्र की फितरती कैबिनेट
नवगठित मंत्रिमंडल पर सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के सामने ऐसी क्या विवशता थी कि उन्हें अपनी सरकार के सहयोगी चुनते हुए मजबूर होना पड़ा। वह भी तब जबकि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देहरादून में हुई चुनावी रैली में ऐलान किया हो कि प्रदेश में भाजपा की नई सरकार उनकी निगरानी में काम करेगी। साथ ही त्रिवेंद्र भलीभांति जानते थे कि उनकी सरकार में जो मंत्री बनाए गए हैं, उनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जिनकी फितरत ही यह है कि वे किसी की भी निगरानी में काम नहीं करते। खुद से भारी और किसी के दबाब में न आने वाले इन सहयोगियों से त्रिवेंद्र किस तरह काम ले पाएंगे, यह भी किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं।
पत्रकार योगेश भट्ट ने कहा कि त्रिवेंद्र जब विधायक दल के नेता चुने गए तो उनका पहला बयान यही था कि उनकी सरकार पारदर्शी, भ्रष्टाचारमुक्त और गरीबोन्मुखी होगी। इससे पहले चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा का दावा था कि वह सत्ता में आने पर जातिवाद और क्षेत्रवाद जैसी बुराइयों से ऊपर उठकर काम करेगी। सरकार में सबको प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। लेकिन जीत मिली तो कुछ और ही देखने को मिला। लोगों के जेहन में सवाल तैर रहा है कि क्या इस कैबिनेट से यह उम्मीद की जा सकती है। कैबिनेट में शामिल किए गए हरक सिंह रावत और यशपाल आर्य तो ऐसे चेहरे हैं, जो कांग्रेस शासन में भी मंत्री रहते हुए विवादों में रहे हैं। छवि के लिहाज से देखें तो वह साफ सुथरी नहीं ठहराई जा सकती। दूसरी ओर, पहली बार मंत्री बनाए गए अरविंद पांडे की बात करें तो कथित आपराधिक छवि होने के बावजूद उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी गई है। इससे साफ होता है कि मंत्री बनने के लिए छवि कोई पैमाना नहीं है।
इसके अलावा भाजपा से जो चेहरे मंत्रिमंडल में शामिल किए भी गए हैं उनमें मदन कौशिक को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है जो जनता में भरोसा पैदा करने की क्षमता रखता हो।

सबकुछ अनुकूल
वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल ने कहा कि भले ही त्रिवेंद्र की कैबिनेट के सदस्य मनमर्जी के मालिक और आसानी से दबाव में न आने वाले हों, लेकिन त्रिवेंद्र के लिए अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों की अपेक्षा सबकुछ अनुकूल ही है। संघ के पैमाने पर खरे उतरे त्रिवेंद्र के समक्ष अब जनता के समक्ष खरा उतरने के लिए वह सबकुछ है, जिसकी किसी भी सूबे के मुखिया को चाह होगी। भाग्यवश त्रिवेंद्र को सबकुछ सहजता से प्राप्त है। पांच साल से सूबे की सियासत में हाशिये पर डाल दिए गए त्रिवेंद्र की यहां से एक नई राजनीतिक पारी की शुरुआत भी होती है। यह उनके लिए एक नई पहचान बनाने का मौका है। राज्य को सही ढर्रे पर लाने का एक बहुत बड़ा अवसर और चुनौती है। एक राजनेता के तौर पर वे प्रदेश की जरूरतों से बखूबी वाकिफ हैं। उनके लिए कुछ भी नया नहीं है, क्योंकि भाजपा सरकार में वे कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। पार्टी संगठन का लंबा अनुभव उनके पास है। एक मुख्यमंत्री के लिए बेहद जरूरी, मजबूत बहुमत और केंद्र का साथ भी उनके पक्ष में है। उनके सामने न उपचुनाव की चुनौती है और न ही बगावत का डर। न गठबंधन सरकार की मजबूरियां। साथ ही साथियों को साधने के लिए हाईकमान का वरदहस्त। प्रदेश के इतिहास में वे पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें सरकार चलने के लिए इतनी अनुकूल स्थितियां मिली हैं। इस लिहाज से देखें तो त्रिवेंद्र बेहद ‘भाग्यशाली’ सीएम हैं।
वेद विलास उनियाल ने कहा कि त्रिवेंद्र ने यदि अपने मंत्रिमंडल के सतपाल महाराज, डॉ. हरक सिंह रावत और सुबोध उनियाल जैसे नेताओं को साध लिया तो इनके अंदर मौजूद गुणों का फायदा भी ले सकते हैं। बाखुद काम कराने की क्षमता और ब्यूरोक्रेसी के आगे न झुकने वाले इन मंत्रियों के साथ होने से मुख्यमंत्री को जनहित के निर्णय लेने और उन्हें क्रियान्वयन कराने में भी दिक्कत नहीं आएगी। इसका फायदा राज्य को मिलेगा।

योगी बनाम त्रिवेंद्र की कसौटी
खराब आर्थिक हालात के साथ ही पेयजल, परिवहन, ऊर्जा सहित कई सेक्टरों में बदहाल हो चुके राज्य के खेवनहार बने त्रिवेंद्र की तुलना सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश के फायर ब्रांड मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से होनी तय है। संघ की पृष्ठभूमि वाले दोनों नेता पहली बार किसी राज्य की कमान एक साथ ही संभाल रहे हैं। दोनों को मोदी-अमित शाह की जोड़ी की पसंद पर मुख्यमंत्री चुना गया है। इसके अलावा उत्तराखंड की बहुत सी व्यवस्थाएं, नियम-कायदे उत्तर प्रदेश के हिसाब से ही संचालित हैं। इसमें एक और बात भी जुड़ जाती है कि आदित्यनाथ योगी भले ही यूपी पूर्वांचल के नेता हों, लेकिन मूल रूप से वे उत्तराखंड के पौड़ी जिले के हैं। दूसरी अहम बात यह है कि दोनों मुख्यमंत्री भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। उसमें भी उत्तराखंड के हालात उत्तर प्रदेश की अपेक्षा बहुत आसान हैं। ऐसे में त्रिवेंद्र के कार्यों को योगी के सापेक्ष रखकर परखा जाने लगे तो अचरज नहीं होगा।

त्रिवेंद्र से मुद्दे सुलझाने की उम्मीद
पूर्ण बहुमत वाली यूपी-उत्तराखंड की सहोदर सरकारों से प्रदेश की जनता उम्मीद कर रही है कि अब तमाम अनसुलझे मुद्दे सुलझ जाएंगे। दोनों राज्यों के बीच जो सवाल खड़े हैं उन्हें हल मिल जाएगा। राज्य गठन के सोलह साल बीतने के बाद भी दोनों राज्यों के बीच परिसंपत्तियों के बंटवारे समेत तमाम मुद्दे अनसुलझे पड़े हैं। जमीन से लेकर नहरों, झीलों, सरकारी एवं रिहायशी भवनों तथा कई विभागों की हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्तियां हैं, जो उत्तराखंड में होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के नियंत्रण में हैं। अकेले सिंचाई विभाग की ही बात करें तो लगभग 13000 हेक्टेयर जमीन को लेकर दोनों प्रदेश आमने-सामने हैं। इसके अलावा 3 बड़े बैराज, 40 के करीब नहरें, 14 हजार के करीब भवन तथा परिवहन विभाग से जुड़ी करोड़ों रुपये मूल्य की परिसंपत्तियों को लेकर भी दोनों के बीच विवाद है। और तो और कार्मिकों के बंटवारे और पेंशन का मसला भी अभी तक अनसुलझा ही है। इतने सालों तक भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड इन मसलों का हल नहीं तलाश पाए हैं, तो इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति न होना सबसे बड़ा कारण रहा है। दरअसल इन वर्षों में एक बार भी ऐसी परिस्थिति नहीं बनी कि दोनों राज्यों में एक ही दल की सरकार रही हो। लेकिन राज्य गठन के बाद यह पहला मौका है जब दोनों राज्यों में न केवल एक ही दल की सरकार है बल्कि दोनों के मुख्यमंत्री, योगी और त्रिवेंद्र एक ही राज्य में पैदा हुए और पले-बढ़े हैं। इससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने प्रदेश की जनता को अपने पक्ष में वोट देने के लिए जो नारा, ‘अटल जी ने बनाया, मोदी संवारेंगे’ दिया था, उसे फलीभूत करने के लिए भी इससे मुफीद स्थिति कोई और नहीं हो सकती है। परिसंपत्तियों के बंटवारे संबंधी कई विवाद केंद्र सरकार तक पहुंचे हुए भी हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र इन्हें सुलझाने में सक्रियता दिखाएगा। हालांकि परिसंपत्तियों के बंटवारे से लेकर कुछ दूसरे मसलों पर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के बीच विवाद जरूर हैं, लेकिन इसके बाद भी दोनों के बीच बड़े और छोटे भाई का रिश्ता है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को बहुत से मामलों में एक साथ जोड़ कर ही देखा जाता है। सियासी तौर पर भी दोनों के मिजाज में कई समानताएं हैं। मसलन, दोनों प्रदेशों में चुनाव साथ-साथ ही होते हैं। बहरहाल दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार बन जाने के बाद सभी को यह उम्मीद है कि ‘त्रिवेंद्र राज’ और ‘योगी युग’ में सभी मसलों का समाधान निकल जाएगा।

पहली कोशिश में जनहित का दिया संदेश
उत्तराखंड के कोटद्वार से रामनगर की दूरी महज 100 किलोमीटर के आसपास है, लेकिन फिलहाल लोगों को इससे दोगुने से भी अधिक का रास्ता तय करना पड़ता है। फारेस्ट लैंड होने के कारण गढ़वाल मंडल से कुमाऊ मंडल के लोगों को इन शहरों में जाने के लिए यूपी से होकर जाना होता है। इससे न केवल समय और सड़क व्यय अधिक लगता है, बल्कि वाहनों को अतिरिक्त टैक्स भी भरना पड़ता है। कोटद्वार-रामनगर के बीच स्थायी कंडी रोड है, जिसे स्थायी तौर पर खुलवाने के लिए पूर्ववर्ती भाजपा और कांग्रेस सरकारों ने खूब राजनीति भी की। खंडूरी सरकार ने इस मार्ग के लिए 374 करोड़ रुपये का बजट भी स्वीकृत किया था। लेकिन काम आगे नहीं बढ़ सका। अब त्रिवेंद्र सरकार ने आते ही सबसे पहले इसी मुद्दे पर काम शुरू किया है, जिसके जरिये त्रिवेंद्र सिंह रावत जनहित में कार्य करने के एजेंडे पर कार्य करने का संदेश देने में कामयाब रहे।

निष्ठा और समर्पण
चुनावों में जनता ने भाग्य विधाता बनकर त्रिवेंद्र को अगले पांच सालों के लिए अपना भाग्यविधाता बनने का आदेश दिया है। जिस निष्ठा और समर्पण ने त्रिवेंद्र को इस शिखर पर पहुंचाया है, अब उनसे उसी निष्ठा और समर्पण की दरकार प्रदेश को है। देखना यह है कि मजबूत मुख्यमंत्री बन कर वे प्रदेश की नब्ज पकड़ पाते हैं या नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस वक्त प्रदेश की जनता ने जो जनादेश दिया है, वो परिवर्तन के लिए दिया है, नई शुरुआत के लिए दिया है, नई इबारत लिखने के लिए दिया है। जनता ने उन वादों और दावों पर भरोसा करके भाजपा को इतना बड़ा बहुमत दिया है, जिन्हें अक्सर चुनाव के बाद जुमला कह कर खारिज कर दिया जाता है। जनता ने उन नारों पर यकीन करके भाजपा को बहुमत दिया है जिनमें प्रदेश की तकदीर बदलने का जिक्र होता है। अब देखना यह है कि ये ‘भाग्यशाली’ मुख्यमंत्री, उत्तराखंड का भाग्य बदल पाते हैं या नहीं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *