अनूप भटनागर
यह विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ पुरजोर अभियान चलाने के तमाम दावों और समाजसेवी अन्ना हजारे के सतत प्रयासों के बावजूद पांच साल बाद भी देश में लोकपाल संस्था की स्थापना नहीं हो सकी है। लोकपाल की नियुक्ति में निरंतर हो रहे विलंब को लेकर उच्चतम न्यायालय की फटकार के बावजूद किसी न किसी वजह से यह मूर्तरूप नहीं ले पा रहा है।
देश के प्रधान न्यायाधीश, पूर्व प्रधान न्यायाधीश या फिर उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ही लोकपाल संस्था के अध्यक्ष बन सकते हैं। संसद या विधान मंडल का कोई भी सदस्य इसका अध्यक्ष नहीं हो सकता है।
यह अलग बात है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को मिले देशव्यापी समर्थन और इसमें युवाओं सहित जनता के सभी वर्गों की भागीदारी से बने माहौल ने जहां इससे जुड़े एक सक्रिय कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचा दिया तो दो अन्य कार्यकर्ताओं में से एक को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल का सदस्य और दूसरे को उपराज्यपाल की कुर्सी पर आसीन करा दिया। इसके बाद भी लोकपाल की नियुक्ति का मामला अधर में ही लटका रहा। देश की शीर्ष अदालत की फटकार के बाद सक्रिय हुई सरकार ने जब इसके लिये चयन समिति की बैठक बुलाई तो लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने विशेष आमंत्रित व्यक्ति के रूप में इसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। कांग्रेस नेता के इस इनकार का मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि येन केन प्रकारेण देश का यह सबसे पुराना राजनीतिक दल भी शायद लोकपाल संस्था की स्थापना को गति देने के पक्ष में नहीं है।
लोकपाल और लोकायुक्त कानून, 2013 के तहत लोकपाल और इसके आठ सदस्यों की नियुक्ति के लिये चयनित नामों की राष्टÑपति से सिफारिश करने वाली चयन समिति के सदस्यों में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, देश के प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति, प्रतिपक्ष के नेता और एक प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल होता है।
लोकपाल एवं लोकायुक्त कानून 2013 के एक प्रावधान को लेकर व्याप्त गतिरोध पर उच्चतम न्यायालय ने जब कड़ा रुख अपनाया और कहा कि प्रस्तावित संशोधन के बगैर भी इस संस्था की स्थापना हो सकती है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में एक मार्च को बैठक बुलाई गई। इसमें प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने हिस्सा लिया। इस बैठक का उद्देश्य चयन समिति में प्रमुख विधिवेत्ता के रिक्त स्थान पर नये विधिवेत्ता का चयन करना था। यह स्थान वरिष्ठ अधिवक्ता पी.पी. राव का पिछले साल सितंबर में निधन हो जाने के कारण रिक्त हो गया था।
बहरहाल, अटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने उच्चतम न्यायालय को सूचित किया है कि प्रमुख विधिवेत्ता के रिक्त स्थान के लिये चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है और इस बारे में यथाशीघ्र निर्णय ले लिया जायेगा।
लोकपाल संस्था के अध्यक्ष और सदस्यों के चयन की समिति : लोकपाल और लोकायुक्त कानून, 2013 की धारा चार के अंतर्गत लोकपाल और इसके आठ सदस्यों की नियुक्ति के लिये चयनित नामों की राष्टÑपति से सिफारिश करने वाली चयन समिति के सदस्यों में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, देश के प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति, प्रतिपक्ष के नेता और एक प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल है। अब चूंकि, इस समय लोकसभा में आंकड़ों की दृष्टि से नेता प्रतिपक्ष नहीं है तो इस वजह से उत्पन्न अवरोध को दूर करने के लिये इस कानून में संशोधन की आवश्यकता है। समिति में रिक्त स्थान चयन में बाधक नहीं : अब यह दीगर बात है कि इस कानून की धारा 4:2: में स्पष्ट प्रावधान है कि चयन समिति में कोई स्थान रिक्त होने की वजह से लोकपाल संस्था के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियां अवैध नहीं होंगी। चयन समिति को गठित करनी है उपयुक्त व्यक्तियों की तलाश के लिये खोज समिति : लोकपाल और लोकायुक्त कानून की धारा 4:3: के अंतर्गत इस चयन समिति को एक खोज समिति गठित करनी है जो लोकपाल संस्था के अध्यक्ष और इसके सदस्यों के नामों की खोज करेगी। यह खोज समिति ऐसे व्यक्तियों की खोज करेगी जिनके पास भ्रष्टाचार निरोधक नीतियों की जानकारी और अनुभव हो।
इस खोज समिति में कम से कम सात सदस्यों का होना जरूरी है। इनमें से भी 50 प्रतिशत से कम सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक और महिला वर्ग में से होने चाहिए।
यह सही है कि चयन समिति ने अपना काम शुरू कर दिया लेकिन लोकपाल संस्था के अध्यक्ष और सदस्यों के पद हेतु उपयुक्त व्यक्तियों की तलाश के लिये गठित होने वाली खोज समिति की स्थिति अभी अस्पष्ट ही है।
2014 में लोकसभा चुनावों के बाद हुए सत्ता परिवर्तन और बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में इसी तकनीकी मुद्दे की वजह से लोकपाल संस्था को मूर्तरूप नहीं दिया जा सका।
उच्चतम न्यायालय ने देश में तत्काल लोकपाल की नियुक्ति के लिये एक गैर सरकारी संगठन कॉमन काज की जनहित याचिका पर 27 अप्रैल, 2017 को अपने फैसले में कहा था कि लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता के मुद्दे सहित प्रस्तावित संशोधन पारित होने तक लोकपाल कानून का अमल निलंबित रखना न्यायोचित नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि संसद द्वारा पारित इस कानून के प्रावधानों को लागू करने में कहीं कोई बाधा नहीं है। सरकार के ढुलमुल रवैये पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने यह भी कहा था कि इस कानून में प्रस्तावित संशोधनों और संसद की स्थाई समिति का दृष्टिकोण इस कानून की कार्यशीलता को सुगम बनाने का प्रयास है और यह इसमें किसी प्रकार की बाधक नहीं है। कानून में संशोधन का प्रयास इसके क्रियान्वयन को नहीं रोक सकता है।
हालांकि, इस व्यवस्था के बावजूद लोकपाल की नियुक्ति की दिशा में ठोस प्रयास नहीं होने के कारण एक बार फिर न्यायालय की अवमानना कार्यवाही के रूप में यह प्रकरण शीर्ष अदालत के समक्ष पहुंचा। इस बार लोकपाल संस्था की स्थापना में विलंब के बारे में केन्द्र सरकार की तमाम दलीलों और तर्कों को दरकिनार करते हुए न्यायालय ने दो टूक शब्दों में कहा कि कानून के मौजूदा प्रावधानों के अंतर्गत चयन समिति में प्रतिपक्ष के नेता के बगैर भी लोकपाल और इसके सदस्यों के चयन की प्रक्रिया पूरी तरह वैध होगी।
न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद उम्मीद की जा रही थी कि केंद्रीय स्तर पर लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया है लेकिन अभी भी इसमें कहीं न कहीं कोई अवरोध बरकरार है। मसलन, सरकार ने लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के नेता को विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में न्योता दिया तो वह नहीं आये। दूसरी ओर, कांग्रेस ने यह लांछन जरूर लगा दिया कि यह सब तो उच्चतम न्यायालय को संतुष्ट करने का एक छलावा मात्र है। इसमें दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार ने हमारी समूची व्यवस्था की जड़ों को इतना खोखला कर दिया है कि अब इससे निजात पाना सरकारों के लिये बहुत बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इसकी एक वजह उच्च पदों पर आसीन राजनीतिक व्यक्तियों और नौकरशाही के एक वर्ग की अनैतिक तरीके से काम करने और कराने वालों के साथ किसी न किसी तरह की सांठगांठ है।
यूं तो देश के आजाद होने के बाद से ही भ्रष्टाचार अपनी जड़ें फैलाने लगा था कि लेकिन पिछले करीब तीन दशकों में इसने व्यवस्था के लगभग सभी हिस्सों को अपनी चपेट में ले लिया। हाल के वर्षों में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन कांड और कोयला खदान आवंटन प्रकरण इसके उदाहरण बने थे। लेकिन इस समय बैंकों से अरबों रुपये का कर्ज लेने के बाद विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे अनेक कारोबारियों और उद्यमियों के देश से भाग जाने की घटनाएं भी सरकार के लिये सिरदर्द बनी हुई हैं और जनता असहाय सी दर्शक बनी है।
सरकार की जांच एजेंसियों ने इन मामलों में हालांकि तेजी से कार्रवाई की है लेकिन अब तक मिले संकेतों के अनुसार मुख्य आरोपी विदेशों में हैं लेकिन उनकी संपत्तियों को जब्त किया जा रहा है। जांच एजेंसियों द्वारा भारत में वित्तीय संस्थाओं के कई वरिष्ठ अधिकारियों तथा इन कारोबारियों के यहां कार्यरत अधिकारियों को ही गिरफतार किया जा सका है।
कौन हो सकते हैं लोकपाल संस्था के अध्यक्ष व सदस्य : इस कानून के प्रावधानों के तहत लोकपाल संस्था का अध्यक्ष देश का प्रधान न्यायाधीश या पूर्व प्रधान न्यायाधीश या फिर उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश अथवा इसके लिये निर्धारित योग्यता को पूरा करने वाला व्यक्ति हो सकता है। लोेकपाल संस्था के अध्यक्ष का कार्यकाल पांच साल या फिर 70 वर्ष की आयु, जो भी पहले हो, का है। लोकपाल संस्था में अध्यक्ष के अलावा आठ सदस्य होंगे। इनमें से 50 फीसदी न्यायिक सदस्य होंगे। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश या फिर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही इनके न्यायिक सदस्य हो सकते हैं। यही नहीं, इन आठ सदस्यों में कम से 50 फीसदी सदस्य अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछडे वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं के वर्ग से होंगे।
लोकपाल संस्था के अध्यक्ष का चयन आसान हो सकता है लेकिन आठ सदस्यों में से अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछडे वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं के वर्ग से चार सदस्यों का चयन करना इस उच्च स्तरीय चयन समिति के लिये चुनौती भरा काम होगा। इस सबसे पहले, केंद्रीय स्तर पर देश की राजधानी में लोकपाल सस्था का कार्यालय स्थापित करना और इसमें अपेक्षित संख्या में अधिकारियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति करनी होगी। यही नहीं, इस संस्था को हर प्रकार की बुनियादी सुविधाएं मुहैया करानी होंगी ताकि लोकपाल संख्या सुचारु ढंग से अपना काम कर सके।
देखना यह है कि देश की शीर्ष अदालत की व्यवस्था के बाद प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधान न्यायाधीश और एक नामचीन व्यक्ति वाली चयन समिति कब लोकपाल संस्था के अध्यक्ष और इसके सदस्यों के चयन को अंतिम रूप देती है और कब इसमें नियुक्तियां होती हैं।
देशवासियों की निगाहें इस पर भी रहेंगी कि उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने की स्थिति में लोकपाल और इसके सदस्य किस तरह की कार्रवाई करते हैं और ऐसे मामलों का कितने समय में निस्तारण करते हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले लोकसभा चुनावों से पहले यह संस्था काम करने लगेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने के राजनीतिक दलों के दावों पर जनता दोबारा शायद विश्वास नहीं करेगी।