‘सियासी-झपटमारी’ सदृश्य हुई दलित सियासत

दलितों का दिल जीतने के लिए सियासी दलों में जिस कदर होड़ मची है, उसे देखकर महसूस होता है कि भारतीय राजनीति ‘सियासी-झपटमारी के युग’ में दाखिल हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि राजनीति में यह पहली बार हो रहा है। पहले भी यह तत्व था लेकिन मौजूदा दौर में दलित सियासत अपने शबाब पर है। इसीलिए संतों में भी दलित संतों की नई पहचान होने लगी। उज्जैन में हुए सिंहस्थ कुंभ में दलित संतों के साथ भाजपा के बड़े नेताओं ने छिप्रा नदी में डुबकी लगाई, जिसे समरसता स्नान कहा गया।
दलित राजनीति में कुछ नए चेहरे धूमकेतु की तरह आए। वे खूब चर्चा में भी रहे। ये नए चेहरे ऐसे हैं, जिनके कारण पुराने चेहरों के ऊपर आभाहीन होने का संकट मंडरा रहा है। वे इनके भय से अपने भविष्य को लेकर भयभीत भी है। सहारनपुर के चंद्रशेखर रावण और गुजरात के जिग्नेश मेवाणी ने दलित राजनीति करने वाली परंपरागत पार्टियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। दमघोंटू सियासी माहौल को चीरते हुए ये नए चेहरे पुराने दलित नेताओं को चुनौती तो दे ही रहे हैं, भाजपा भी इनसे कम परेशान नहीं है। जिग्नेश मेवाणी गुजरात से विधायक बन चुके हैं और उत्तर प्रदेश के चंद्रशेखर रावण रासुका में जेल में निरुद्ध हैं- लेकिन इनके समर्थकों की तादाद पहले जैसी ही बनी हुई है। आखिरकार इन चेहरों के पीछे दलित क्यों लामबंद हो रहे हैं? भविष्य में दलित सियासत की नई इबारत लिखने की यह तैयारी तो नहीं है। इन नए दलित नेताओं की आक्रमक भाव भंगिमाओं तथा इनके पीछे दलित युवाओं की बढ़ती संख्या भविष्य में क्या कोई नया राजनीतिक गुल खिला सकती है? इन नए चेहरों से निपटने के लिए भगवाई भी कम सतर्क नहीं हैं। भाजपा इन्हीं सब दबावों के कारण दलितों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही है। यही कारण है कि भगवाई रणनीतिकार डॉ. भीमराव अंबेडकर की विरासत के बहाने दलित वोटों की सियासत को साधने की सधी कोशिशें भरपूर कर रहे हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की सभी 17 सीटों पर भगवा ध्वज लहराया। मौजूदा समय में भगवा दल के पास सबसे अधिक दलित विधायक और सांसद हैं। जमीनी हकीकत यह है कि दलित जो पहले संघ व भाजपा से किन्ही कारणों से कुछ-कुछ बिदका हुआ था, वह भगवा दल के काफी करीब आ गया है। दलितों का भाजपा की ओर झुकाव बढ़ने से बसपा राजनीतिक ढलान की ओर चली गई। बसपा हमेशा से भाजपा पर मनुवादी पार्टी होने का आरोप लगाती रही है। दौर ऐसा बदला कि अब वही मनुवादी पार्टी दलितों को आकर्षित करने लगी है। आखिर इसके पीछे कारणों की तलाश भी जरूरी है। भाजपा पिछले चार साल में वृहत्तर स्तर पर खुद को बदलने की प्रक्रिया में लगी हुई है। उसे पता है कि दलितों और पिछड़ों की बड़ी आबादी को साधने से ही भारतीय राजनीति में सियासी पराक्रम को अधिक स्थायी बनाया जा सकता है। चुनावी जीत और इस जीत को स्थायी और दीर्घकालिक बनाए रखने के लिए भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह कार्यकर्ताओं से कई बार कह भी चुके हैं। भाजपा के लिए डॉ. अंबेडकर राष्ट्रवादी हैं, प्रिय हैं। जबकि छुआछूत के खिलाफ संघर्ष करते हुए उन्हें सफलता नहीं मिली तो अंबेडकर ने नागपुर में ‘बुद्धम शरणं गच्छामि’ को अंगीकार कर लिया। इतिहास बताता है कि डॉ. अंबेडकर, आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठनों को प्रतिक्रयावादी मानते थे लेकिन संघ का भी अपना मजबूत तर्क है कि 1939 में डॉ. अंबेडकर पुणे में आरएसएस के शिविर में गए थे। भाजपा अपने फैलाव के लिए उन महापुरुषों को भी अपने साथ जोड़ने से जरा नहीं हिचकती है, जिनकी कमोबेश वैचारिक साम्यता संघ व जनसंघ से कम रही है।
इसी का नतीजा है कि महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे विचारकों-नेताओं पर भगवा दल का पूरा फोकस है। क्योंकि उसे लगता है कि आखिरी पांत में बैठे लोगों की चिंता इन लोगों ने भी वैसे ही की है, जैसा कि पंडित दीन दयाल ने अंत्योदय विचारधारा में की है। दलितों को अपने साथ बनाए रखने के लिए भाजपा उतनी ही बेचैन है, जितनी कि दलितों के दूर जाने से बसपा आदि दलों को घबराहट है। बसपा की ढलान के पीछे उससे दलितों का बिदकना ही है। भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद का नाम जैसे ही लिया, उसने संकेतों में बता दिया कि उसका अब फोकस कहां है। समूचे देश में दलित वोटों पर जिन स्थानीय राजनीतिक दलों का प्रभाव है, उस प्रभाव को कम करने की दिशा में भाजपा का यह निर्णय महत्वपूर्ण साबित हुआ। भाजपा भले ही दलितों को अपनी ओर खींचने को लालायित है लेकिन उसकी रणनीतियों में भगवा रंग में रंगना भी अनिवार्य शर्त नजर आ रही है। डॉ. अंबेडकर से लेकर व अन्य दलित प्रतीकों का वह बड़े सलीके और शऊर के साथ खूब प्रयोग कर रही है। 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले कुछ बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों के परिणाम का असर निश्चित ही लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। चूंकि भाजपा लगातार अपनी स्थिति मजबूत बनाए हुए है इसलिए उसके लिए इन राज्यों का चुनाव अन्य पार्टियों के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण है। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में जिस ढंग से नरेंद्र मोदी को समर्थन मिला था, जनता के बीच वैसा ही भरोसा बनाए रखना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। उन चुनौतियों से पार पाने के लिए ग्राम स्वराज्य अभियान कार्यक्रम चलाया गया। अभियान निश्चित तौर पर लाभदायक साबित हुआ। यदि ऐसा नहीं होता तो उसे दूसरे चरण में फिर से शुरू करने की चर्चा न होती। कार्यक्रमों के केंद्र में मूलत: दलित व पिछड़े वर्ग के लोग हैं। इनके घरों पर सरकार जा रही है और उनकी समस्याओं के तत्काल निस्तारण करने की दिशा में प्रयासरत है।
कांग्रेस से लेकर बसपा, सपा व अन्य स्थानीय दल भाजपा के बढ़ते हुए दलित प्रेम से घबराए हुए हैं। उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक घबराहट बसपा को है। बसपा के प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर से हुई विस्तृत बातचीत में बसपा का यह डर दिख रहा है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ‘दलितों पर अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं और उसी बीच ये लोग दलितों के घर भोजन करने का नाटक कर रहे हैं।’ वहीं विधान परिषद के सदस्य रहे बसपा नेता डॉ. ओम प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि भाजपा की ही तरह कांग्रेस के नेता भी दलितों को रिझाने के लिए उनके घरों पर भोजन करते थे, रात रुकते थे। आखिर कांग्रेस कहां थी और अब गिर कर कहां पहुंच गई है। नाटक ज्यादा दिन नहीं चलता, अब दलित भी समझदार हो गए हैं। रात्रि प्रवास के दौरान भाजपा नेताओं को जनता के तीखे सवालों से सामना करना पड़ रहा है। हाल यह है कि चौपाल में चिन्हित लोग ही शामिल किए जाते थे, जिससे कार्यक्रम शांतिपूर्ण ढंग से निपट जाए।’ गौरतलब है कि आजादी के बाद दलित कांग्रेस के साथ थे और इधर के तीन दशक में दलित राजनीति का चरित्र बदल गया है। अब कोई जाति व्यवस्था का विरोध नहीं करता बल्कि जातिवादी राजनीति करता है। हद तो यह है कि कांशीराम की बसपा इस कदर बदली कि उसने जातियों के नाम पर भाईचारा कमेटियों का गठन कर दिया। हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ भी दलितों ने मोर्चा बनाया। मायावती की सरकार भी भाजपा के सहयोग से बनी थी। राम विलास पासवान ने भी भाजपा से समझौता कर लिया। उदितराज भी भाजपा से सांसद बन चुके हैं। महाराष्ट्र के रामदास अठावले भी केंद्र सरकार में मंत्री पद पर सुशोभित हैं। दरअसल दलित सियासत में बहुत बड़े पैमाने पर विचलन हुआ है और इस विचलन का फायदा भाजपा को बखूबी मिल रहा है।

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