जयललिता के बाद क्या होगा पार्टी का…

बनवारी।
तमिलनाडु पर कई पारियों में 14 वर्ष से अधिक राज्य करने के बाद जयललिता का जीवन शेष हो गया। सामाजिक न्याय का नारा लगाकर अस्तित्व में आई द्रविड़ राजनीति के शिखर पर बैठकर उन्होंने एक महारानी की तरह राज किया। एक अयंगार ब्राह्मण परिवार में पैदा हुई जयललिता ब्राह्मण विरोधी द्रविड़ राजनीति की मुखिया बनीं और लोकप्रियता में वे अब तक के सभी द्रविड़ नेताओं से आगे निकल गर्इं। एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) के 1987 में निधन के बाद उन्हें सत्ता संघर्ष के जरिये अन्नाद्रमुक की विरासत मिली थी। करुणानिधि की सुगठित और अनुशासित द्रविड़ मुनेत्र कषगम के मुकाबले अन्नाद्रमुक एक संगठनविहीन, पहले एमजी रामचंद्रन और फिर जयललिता की लोकप्रिय छवि के सहारे चलने वाला राजनीतिक दल था। संगठन के नाम पर एमजीआर फैन क्लब थे जो बाद में जयललिता फैन क्लब में रूपांतरित हो गए थे। उन्हीं के भरोसे जयललिता ने दिल्ली की सत्ता को ललकार दिया था। जयललिता ने 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरा दी और उसके बाद सोनिया गांधी की सरकार बनने नहीं दी। अपनी पार्टी में वे अकेली सत्ता का केंद्र थीं। जयललिता तमिलनाडु की निरापद नेता नहीं थीं। वे एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन को किनारे कर उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी बनी थीं। इस उत्तराधिकार के लिए उन्होंने जिस तरह संघर्ष किया उससे उनकी जीवट और राजनीतिक कौशल का पता चलता है। वे 1991 का विधानसभा चुनाव जीतीं लेकिन 1996 का चुनाव इस तरह हारीं कि अपनी सीट भी बचा नहीं सकीं। लेकिन अगले चुनाव में वह फिर जीत गर्इं। पार्टी और सरकार में अपने नेतृत्व को निर्द्वंद्व बनाने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी के किसी और नेता को उभरने नहीं दिया। एक व्यक्तिगत सहायक की तरह साये की तरह साथ रहने वाली शशिकला को भी उन्होंने 2012 में बाहर का दरवाजा दिखा दिया। बाद में शशिकला की पार्टी में वापसी हुई लेकिन अपना कुनबा छोड़ने की शर्त पर। जयललिता अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन में बहुत अकेली थीं। यह शायद उनके स्वभाव में ही था। वह कई बार अपमानित हुर्इं, दो बार जेल गर्इं, उन पर कई बार आरोप लगे। अपने साथ हुई ज्यादतियों का बदला उन्होंने उसी कटुता से लिया। करुणानिधि को उन्होंने जेल भेजा। उनकी कटुता का शिकार कांची के आचार्य तक को होना पड़ा जिन्हें भद्दे आरोप लगाकर उन्होंने जेल भिजवा दिया।

अपने समय में जयललिता तमिलनाडु की सबसे लोकप्रिय नेता रहीं लेकिन कोई उनके पास फटक नहीं सकता था। उन्होंने सामाजिक होने या दिखने की कभी कोशिश नहीं की। अपने कुटुंबियों से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी। पार्टी के दूसरे सभी नेता उनके सहयोगी नहीं, अनुयायी थे। उन्होंने पार्टी के नेताओं से अधिक नौकरशाही पर भरोसा किया। लेकिन कोई नौकरशाह उनके विश्वासभाजन होने का दावा नहीं कर सकता था। वह स्वभाव से राजसिक थीं और स्वर्ण आभूषण, साड़ियों और पादुकाओं का उनके पास अंबार था। इस आत्मकेंद्रिता के बावजूद वह हमेशा आम लोगों के जीवन की कठिनाइयों को देखती-समझती रहीं। कन्या पालने से लेकर अम्मा रसोई तक उन्होंने कई लोकप्रिय योजनाएं शुरू की। जनता से संवाद का उनका यही तरीका था। लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे में उन्होंने अपना एक राज सिंहासन गढ़ लिया था। इस राज्य सिंहासन के सामने एक दरबार था जो जनता में विलीन हो जाता था। उनकी आत्म छवि एक रानी की थी और लोक छवि एक अम्मा की।

राजनीति में ऐसे लोग कम ही दिखाई देते हैं जो अपने बूते पूरी राजनीति का चरित्र बदल दें। उन्होंने द्रविड़ आंदोलन की मान्यताओं की अवमानना नहीं की लेकिन उन्हें अपनाया भी नहीं। वह अयंगार ब्राह्मणों के चिन्ह नामम को धारण करने में कोई हिचक नहीं करती थीं। तमिलनाडु में ईसाई और मुस्लिम आबादी छह-छह प्रतिशत ही है। फिर भी वह अल्पसंख्यकों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील रहीं। हालांकि उनकी कार्यशैली एक हिंदू रानी जैसी ही थी। उन्होंने किसी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। न विचार को, न व्यक्ति को। अपने निजी विश्वासों में वह कभी ढुलमुल नहीं रहीं। फिर भी कोई यह नहीं कह सकता था कि किसी परिस्थिति विशेष में वह क्या रुख अपनाएंगी। कोई उनके मन की बात जानने का दावा नहीं कर सकता था।

तमिल एक अत्यंत राजनीतिक समाज है। यहां हर वर्ग से बड़े-बड़े नेता पैदा होते रहे हैं। राजगोपालाचार्य से लेकर कामराज तक और पेरियार से लेकर अन्नादुरई तक बड़े और लोकप्रिय नेताओं की एक लंबी कतार है। उनमें अपनी एक विलक्षण छवि बनाना आसान नहीं था। इन सबके बीच जयललिता ने अपनी एक बिल्कुल अलग छवि बनाई। यह मामूली बात नहीं है। अपने समय में वह चाहे जितने वाद-विवाद में घिरी रही हों लेकिन तमिल राजनीतिक स्मृति में जयललिता की लंबे समय तक एक विशेष जगह रहेगी और उन्हें अपने समय के अन्य नेताओं की तुलना में अधिक समय तक याद किया जाएगा। उन्होंने अपना कोई उत्तराधिकारी सुनिश्चित नहीं किया। उनके साधन-संपत्ति को लेकर भी विवाद होंगे और राजनीतिक विरासत को लेकर भी। हो सकता है जयललिता के नाम के अलावा आगे अधिक कुछ न बचे।

जयललिता के निधन से तमिल राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है जिसे भरने में काफी समय लग जाएगा। पिछले तीन दशक से तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि बारी-बारी से शासन करते रहे हैं। इस वर्ष मई में हुए विधानसभा चुनाव में जयललिता ने सब आशंकाओं, अनुमानों को गलत साबित करते हुए दोबारा चुनाव जीत लिया लेकिन वह 196 दिन ही सत्ता में रह सकीं। अभी इस विधानसभा के साढ़े चार वर्ष बाकी हैं। अगर अन्नाद्रमुक में विभाजन नहीं हुआ तो नए नेतृत्व को उभरने के लिए काफी समय मिल जाएगा। जयललिता के निधन से पैदा हुए शून्य को भरने लायक कोई नेता अभी अन्नाद्रमुक में दिखाई नहीं देता। थेवर और गोंडर विधायकों में प्रतिस्पर्धा रही है। शशिकला और पन्नीरसेल्वम दोनों थेवर हैं। अन्नाद्रमुक के एक तिहाई गोंडर विधायक कब तक उनका नेतृत्व मानते हैं इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा। साल दो साल में पार्टी बिखर भी सकती है। जितनी अनिश्चित स्थिति में अन्नाद्रमुक है, उतनी ही अनिश्चित स्थिति में द्रमुक है। तमिलनाडु पर किस्तों में 18 वर्ष से अधिक शासन कर चुके करुणानिधि अब 92 वर्ष के हो चुके हैं। अब वे चलने-फिरने की स्थिति में भी नहीं हैं। उनका उत्तराधिकार छोटे बेटे स्टालिन को मिला है पर उनकी राहुल गांधी जैसी हालत है। उनके नेतृत्व को लोक समर्थन नहीं है। करुणानिधि अगले चुनाव तक कोई राजनीतिक भूमिका निभाने लायक रह पाएंगे इसकी संभावना कम ही है। ऐसी स्थिति में द्रमुक भी एकजुट नहीं रह पाएगी।

क्या यह द्रविड़ राजनीति का अवसान है? अंग्रेजों ने ब्राह्मण विरोधी भावनाएं भड़का कर जस्टिस पार्टी बनवाई थी। वह न केवल ब्राह्मणों के खिलाफ थीं बल्कि सामाजिक सुधार के नाम पर हिंदू विरोधी अभियान चला रही थीं और नास्तिकता की समर्थक थीं। एक ऐसे राज्य में जहां हर गली-मोहल्ले के मुहाने पर मंदिर हों और भक्ति की विशाल परंपरा रही हो वहां नास्तिकता फैलना असंभव ही था। 1944 में रामास्वामी नायकर पेरियार ने द्रविड़ आंदोलन शुरू किया था और द्रविड़ कषगम गठित की थी। 1949 में उसमें विभाजन हो गया और अन्नादुरई अलग हो गए। उन्होंने द्रविड़ मुनेत्र कषगम बनाई। 1967 में वे पहले द्रविड़ मुख्यमंत्री बने और इसके साथ ही तीस साल तक चला कांग्रेस का शासन समाप्त हो गया। मद्रास स्टेट में 1920 से 1937 तक अधिकांश समय जस्टिस पार्टी की सरकारें थीं। फिर 1937 से 1967 तक कांग्रेस की सरकारें रहीं। 1967 से अब तक द्रमुक और अन्नाद्रमुक की सरकारें रही हैं। मुख्यमंत्री बनने के दो वर्ष बाद ही अन्नादुरई का निधन हो गया। 10 फरवरी, 1969 को करुणानिधि मुख्यमंत्री बने लेकिन पार्टी में विभाजन के बाद 1977 में सत्ता एमजी रामचंद्रन के हाथ में चली गई और 1987 में अपनी मृत्यु तक वे शासन में रहे। उसके बाद का दौर करुणानिधि और जयललिता का दौर है।
अन्नादुरई ने द्रविड़ आंदोलन की कई बातों को छोड़ दिया था। वे खुद को नास्तिक नहीं मानते थे लेकिन आस्तिक होने के बावजूद वे किसी धर्म-संप्रदाय से खुद को जोड़ने से बचते रहे। एमजी रामचंद्रन तो मुकम्बिका देवी के भक्त ही हो गए थे। जयललिता आस्तिक थीं और कभी-कभी अयंगार ब्राह्मणों का नामम चिन्ह धारण करती थीं। करुणानिधि कुछ ढीले अवश्य पड़ गए हैं लेकिन अब भी वे द्रविड़ आंदोलन की अधिकांश बातों से बंधे हुए हैं। उनके बाद द्रमुक उन आस्थाओं-अनास्थाओं से बंधी रहेगी इस बारे में अभी कहना मुश्किल है। हो सकता है यह द्रविड़ आंदोलन का अवसान काल ही हो जाए।

दक्षिणी राज्यों में अब तक तमिल अपनी विशिष्टता के प्रति सबसे अधिक आग्रही रहे हैं। इसीलिए जिस कांग्रेस की जड़ें स्वाधीनता आंदोलन के माध्यम से सभी तमिल क्षेत्रों में फैली थीं वे द्रविड़ आंदोलन के बाद सूख गर्इं। आज राज्य में कांग्रेस की कोई स्थिति नहीं है। उसका न संगठन बचा है न कोई समर्थ नेता। क्या नई परिस्थितियों में कांग्रेस फिर से उभर सकती है? इसकी आशा कम ही है क्योंकि जो कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अवनति की ओर है वह तमिलनाडु में पुनर्जीवित नहीं हो सकती। जयललिता से पैदा हुए शून्य में भारतीय जनता पार्टी अपना भविष्य देखने की कोशिश कर रही है। अभी अन्नाद्रमुक की सरकार को केंद्रीय सरकार की अनुकूलता चाहिए। इसलिए भाजपा नेताओं की कुछ पूछ परख होगी। पर भाजपा के पास भी न राज्यस्तरीय संगठन है न राज्यस्तरीय नेता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि राज्य में अच्छी है लेकिन केवल उस छवि के सहारे भाजपा अपने पैर नहीं फैला पाएगी। दूसरे दलों और नेताओं की भी कमोबेश यही स्थिति है। वामपंथी दलों का भी राज्य में कोई प्रभाव नहीं बन पाया।

सद में अन्नाद्रमुक के संख्या बल को देखते हुए मोदी सरकार राज्य में अन्नाद्रमुक सरकार के सामने कोई संकट पैदा नहीं करना चाहेगी। उसे राज्यसभा में अन्नाद्रमुक सांसदों का समर्थन चाहिए। अगले वर्ष राष्ट्रपति चुनाव होना है। उसमें भी तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के सहयोग की अपेक्षा होगी। इसलिए केंद्र सरकार तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक सरकार को टिकाए रखने की यथासंभव कोशिश करेगी। जयललिता के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होकर प्रधानमंत्री ने यही संकेत देने की कोशिश की है। लेकिन अन्नाद्रमुक की राजनीति में शशिकला के पूरे कुनबे की वापसी कोई अच्छा संकेत नहीं है। इस कुनबे ने जयललिता के रहते हुए सत्ता का दुरुपयोग करने की कोशिश की थी जिससे व्यथित होकर जयललिता को शशिकला को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा था। पन्नीरसेल्वम भी शशिकला का मोहरा नहीं बने रहना चाहेंगे। अन्य नेताओं की महत्वाकांक्षाएं भी कोई विघटनकारी स्वरूप ले सकती हैं। विधानसभा के साढ़े चार साल पार्टी के भीतर की सभी प्रतिस्पर्धी शक्तियों को जोड़े-बटोरे रहना किसी के लिए भी टेढ़ी खीर है। लेकिन ऐसे ही अनिश्चितता से नया नेतृत्व उभरता है। वह अन्नाद्रमुक के भीतर से नहीं उभरा तो बाहर से उभरेगा। तब तक समझौतों और गठबंधनों का दौर रहेगा। तमिलनाडु में राजनीतिक अनिश्चितता भले हो, उसमें आर्थिक ऊर्जा और सामाजिक गतिशीलता पर्याप्त है। वह नए नेतृत्व को उभारने में सहायक होगी।

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