वीरेंद्र नाथ भट्ट

किसी प्रदेश में यदि ठेकेदार समुदाय मुख्यमंत्री से नाराज हो तो उस मुख्यमंत्री की सफलता के बारे में और अधिक जानकारी जुटाने की जरूरत नहीं है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कार्यकाल में सरकारी ठेकों की बंदरबांट प्रदेश सरकार की कार्य संस्कृति का हिस्सा बन गया था। लोक निर्माण और सिंचाई जैसे विभाग के मंत्री ताकतवर माने जाते थे। योगी आदित्यनाथ सरकार में इस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिल रहा है। अब मंत्रियों की कृपा से ठेके मिलना इतिहास की बात हो गई है। अब सभी ठेके ई-टेंडरिंग के माध्यम से दिए जाते हैं। इससे टेंडर माफिया पर लगाम तो लगी ही उनकी आर्थिक कमर पर भी चोट लगी है। इससे भ्रष्टाचार के साथ सरकार अपराध पर भी लगाम लगाने में पहले से अधिक सक्षम हुई है।
ठेका माफिया पर चोट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा लघु और वृहद निर्माण कार्यों पर सालाना करीब 70 हजार करोड़ रुपये से अधिक का काम टेंडर के जरिये कराया जाता है। इस राशि में उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन, परिवहन निगम, 630 नगर निकाय (नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायत), 75 जिला पंचायत और 830 विकास खंडों द्वारा हर साल दिए जाने वाले हजारों करोड़ के ठेके शामिल नहीं हैं। इन ठेकों के अलावा विधानसभा के 403 विधायकों, विधान परिषद के सौ सदस्यों के विधायक निधि (प्रत्येक को सालाना 2.5 करोड़ रुपये)का काम भी ठेकों के माध्यम से होता है। साथ ही 80 लोकसभा सांसदों और 30 राज्यसभा सदस्यों के सांसद निधि (प्रत्येक को सालाना पांच करोड़ रुपये) के काम का भी ठेका दिया जाता है। मार्च 2017 तक सरकार ने केवल एक लाख रुपये तक के काम को ई-टेंडर से बाहर रखा था। बाद में इसे बढ़ा कर पांच लाख रुपया और अब दस लाख रुपया कर दिया गया है। अब सभी सरकारी विभाग ठेकेदारों के माध्यम से कुछ भी नहीं खरीद सकते। अब यह काम गवर्नमेंट ई-पोर्टल के माध्यम से होता है। सरकारी विभाग सालाना 3,000 करोड़ रुपये से अधिक का सामान जैसे फर्नीचर, कंप्यूटर, फोटो कॉपी मशीन व अन्य कर्यालयी सामग्री खरीदते हैं।

इंसेफेलाइटिस
गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में पिछले साल अगस्त में 60 से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया था। तब इनमें आधे से ज्यादा मौतों की वजह आॅक्सीजन की कमी को बताया गया था। वर्ष 2005 से 2017 तक पांच हजार से अधिक मासूमों की कब्रगाह बन चुके इस मेडिकल कॉलेज में हो रही मौतें सरकारी भ्रष्टाचार और अक्षमता पर मुहर लगा रही थीं। इस दौरान केंद्र और राज्य सरकार ने केवल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में दिमागी बुखार के मरीजों के इलाज के लिए 2,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च कर दिए लेकिन मरीजों की संख्या घटी नहीं क्योंकि असल बीमारी पकड़ में नहीं आ रही थी। आज एक साल बाद गोरखपुर और निकटवर्ती जिलों में तस्वीर इतनी बदल चुकी है कि लोग जैसे इंसेफेलाइटिस को भूल ही चुके हैं। इस वर्ष 2 अप्रैल को मुख्यमंत्री ने गोरखपुर जिले के पिपराईच में इंसेफेलाइटिस को उखाड़ फेकने के लिए दस्तक अभियान की शरुआत की थी। इस अभियान के तहत पूर्वी उत्तर प्रदेश के 38 जिलों में स्वास्थ्य विभाग की टीम ने घर-घर जाकर दस्तक दी और प्रत्येक परिवार को दिमागी बुखार और इससे जुड़ी अन्य बीमारियां, उनके लक्षण के बारे में बताया। यह अभियान 16 अप्रैल को समाप्त हुआ और इस दौरान 26 लाख परिवारों के 32 लाख से अधिक बच्चों का टीकाकरण किया गया। वैसे अब तक 90 लाख बच्चों का टीकाकरण हो चुका है। यह अभियान राज्य सरकार की दिमागी बुखार को जड़ से खत्म करने की एक व्यापक रणनीति सोशल बिहेवियर चेंज कम्युनिकेशन के तहत चलाया गया। इस अभियान के अंतर्गत स्वास्थ्य विभाग के साथ प्रदेश सरकार की समस्त मशीनरी को लगाया गया। अभियान की सफलता के लिए 27 अप्रैल को यूनीसेफ ने ट्वीट के माध्यम से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बधाई दी थी।

इस अभियान के दौरान टीकाकरण के साथ पीने के साफ पानी और गांव में सफाई पर भी विशेष जोर दिया गया। परिणाम स्वरूप इस वर्ष दिमागी बुखार से पूर्वांचल बचा हुआ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार की समस्या 40 साल से भी अधिक पुरानी है। पिछले चार दशकों में पहली बार प्रदेश के किसी मुख्यमंत्री ने समस्या के समाधान के ठोस प्रयास किए। यह बीमारी हर वर्ष बरसात में फैलती है। सरकार के प्रयास का नतीजा है कि इस साल स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है।

निवेश सम्मेलन और रोजगार
एक मैनेजमेंट गुरु का कहना है कि वास्तविक जीवन में पूर्ण जैसा कुछ नहीं होता। आप हमेशा सौ फीसदी लक्ष्य प्राप्त करने के उद्देश्य से काम करते हैं। यदि आप 51 फीसदी भी हासिल कर लेते हैं तो यह भी उपलब्धि कही जाएगी क्योंकि इसका अर्थ होता है कि नियंत्रण आपके हाथ में है। योगी सरकार द्वारा प्रदेश में निवेश आकर्षित कर रोजगार के नए अवसर पैदा करने के प्रयासों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उद्योग की परियोजना पर कार्य प्रारंभ होने के दिन से पूरा होने में 30 से 50 महीने तक का समय लगता है। इसी साल फरवरी में आयोजित निवेश सम्मेलन में 4.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश प्रस्ताव पर हस्ताक्षार हुए थे। इस निवेश को धरातल पर उतरने में दो से चार साल का समय लग सकता है। लेकिन इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण घटना है ईज आॅफ डूइंग बिजनेस यानी व्यापार करने में आसानी। केंद्र सरकार के उद्योग मंत्रालय द्वारा हाल में जारी सूची के अनुसार उत्तर प्रदेश अब इस मामले में 22वें से 14वें स्थान पर आ गया है।

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद राजनीतिक क्षेत्र में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई थी। किसी ने इसे भाजपा के हिंदुत्व के मुद्दे को धार देने की रणनीति का हिस्सा कहा था तो देश के मशहूर वकील फली एस नरीमन ने उन्हें एक मंदिर का पुजारी की संज्ञा देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल किया था कि क्या यह हिंदू राष्ट्र की शुरुआत है। लेकिन सत्ता संभालने के 16 महीने बाद प्रदेश की जनता के मन में इस तरह के सवाल नहीं हैं। पिछले 15 साल के जातिवादी, परिवारवादी राजनीतिक दलों के शासन से बुरी तरह ऊब चुकी प्रदेश की जनता के लिए यह एक नया अनुभव था और उसकी अपेक्षा भी थी कि अब प्रदेश के विकास के लिए ईमानदारी से काम होगा। प्रबंधन की दुनिया में कहा जाता है कि आप किसके साथ हैं समस्या या समाधान के। राजनीतिक नेतृत्व हर समस्या का त्वरित निदान चाहता है लेकिन नौकरशाही की संस्कृति है रोड़े अटकाना। इस स्थिति में चुनौती और भी बड़ी थी। सरकार के कार्य भार ग्रहण करने के सौ दिन के अंदर नई औद्योगिक नीति जारी कर दी गई जिसमें निवेशकों को सभी सुविधाएं एक ही विंडो पर उपलब्ध कराने का भरोसा दिया गया। नीति को धरातल पर उतारना भी बड़ा काम था। सरकार बनने के 11 माह के अंदर उत्तर प्रदेश निवेश समिट आयोजित कर योगी सरकार ने आलोचकों को अचंभित कर दिया। इससे पहले कि आलोचक कुछ कह पाते निवेश सम्मेलन के पांच माह के अंदर 56 हजार करोड़ रुपये से अधिक के प्रोजेक्ट पर काम प्रारंभ हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 जुलाई को इन योजनाओं की आधारशिला रखी।

योगी के निशाने पर भ्रष्ट अफसर
केंद्र की तरह योगी सरकार भी प्रदेश के भ्रष्ट अफसरों पर शिकंजा कसने जा रही है। सतर्कता विभाग ने मुख्यमंत्री कार्यालय को ऐसे आईएएस, आईपीएस, पीसीएस और पीपीएस अफसरों की गोपनीय सूची भेजी है जिनके खिलाफ कभी विभाग ने जांच की थी या चल रही है। सौ अफसरों वाली इस सूची में कई नाम ऐसे हैं जिनके खिलाफ विभाग ने विस्तृत जांच और कार्रवाई की संस्तुति की थी लेकिन शासन में रिपोर्ट दबा दी गई। सूत्रों के मुताबिक सूची में 54 आईएएस और 22 आईपीएस अफसरों के नाम हैं। इनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति, ठेकेदार/माफिया से मिलीभगत कर अवैध खनन कराने, विकास के नाम पर करोड़ों के घोटाले करने, घूस लेकर सीमा से अधिक शस्त्र लाइसेंस बांटने, भू-माफिया के साथ मिलकर जमीन कब्जाने, मिड-डे मील में घोटाले और पैसे लेकर भर्तियां कराने जैसे गंभीर आरोप हैं। इनमें से कई अफसर वर्तमान सरकार में भी अहम विभागों में तैनात हैं।

सपा सरकार के कार्यकाल में अहम पदों पर तैनात रहे दो अफसरों के खिलाफ विजिलेंस में सबसे ज्यादा जांच हुई। इन्हें ज्यादातर में दोषी पाया गया लेकिन कार्रवाई अटकी रही। इनमें से एक वरिष्ठ अफसर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं और दूसरे सरकार बदलने के बाद से प्रतीक्षा सूची में हैं। दोनों ही अफसरों की गर्दन सपा सरकार के कार्यकाल में हुए दो बड़े घोटालों की सीबीआई जांच में फंसने की संभावना जताई जा रही है। इसके अलावा गृह और पुलिस विभाग के दो बड़े अफसरों के नाम भी सूची में हैं। गृह विभाग के अफसर पर कुआं निर्माण में भ्रष्टाचार और मिड-डे मील में अनियमितता के आरोप हैं। वहीं पुलिस विभाग के अफसर पर वर्ष 1997 में हुई कांस्टेबल भर्ती में रिश्वत लेने और धांधली करने का आरोप है।

सूची में सबसे अहम नाम पूर्वांचल के वीआईपी जिले में तैनात डीएम का है। उनके खिलाफ वर्ष 2013 में संपत्तियों की जांच शुरू हुई। उनकी संपत्तियां आय से 35 फीसदी अधिक पाई गर्इं। विजिलेंस ने खुली जांच की संस्तुति की लेकिन शासन ने कार्रवाई की बजाय उस समय यह अफसर जिस विभाग में तैनात थे वहां मामला भेज दिया। तब से कार्रवाई लंबित है। इसी तरह एक वरिष्ठ आईएएस पर बरेली में रहने के दौरान कंपनियों को अनियमित भुगतान करने का आरोप है। विजिलेंस ने एक फरवरी, 2006 को उनके खिलाफ खुली जांच कराने की संस्तुति की। इस पर अभी तक सरकार ने निर्णय नहीं लिया है। सिंचाई विभाग में नियुक्त एक वरिष्ठ अफसर पर मुरादाबाद विकास प्राधिकरण में तैनाती के दौरान बड़ी धांधली के आरोप लगे। उनके खिलाफ वर्ष 1998 में विजिलेंस ने सूचनाएं जुटाई और वर्ष 1999 में शासन को रिपोर्ट भेजकर खुली जांच की संस्तुति की। लेकिन सरकार ने विजिलेंस की संस्तुति खारिज कर विभागीय जांच का फैसला किया। मामला अभी लंबित है। विकास से जुड़े विभाग के एक वरिष्ठ अफसर के खिलाफ सोनभद्र जिले में डीएम के रूप में तैनाती के दौरान कोयला माफिया और पुलिस अधिकारियों से मिलीभगत करके कोयला चोरी करने जैसे गंभीर आरोप लगे। विजिलेंस ने उनके खिलाफ लघु दंड की संस्तुति की लेकिन बाद में मामला खत्म करने का फैसला हुआ।

सभी जिलों का दौरा करने वाले पहले मुख्यमंत्री
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नाम एक और कीर्तिमान जुड़ गया है। वे प्रदेश के पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने 16 माह के कार्यकाल में ही हर जिले का दौरा किया है। कई मंडल और जिले ऐसे भी हैं जिनका उन्होंने तीन से चार बार दौरा कर लिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले साल 19 मार्च को पद की शपथ ली थी। इसके बाद उन्होंने शुरुआती तीन महीनों में विभागवार समीक्षा बैठक की और आगे की रणनीति तय की। साथ ही जिलों और मंडलों का दौरा शुरू किया। दौरे के दौरान लोगों से मिले फीडबैक से उन्होंने अधिकारियों पर शिकंजा कसा और नीतियों में सुधार के लिए दिशा निर्देश जारी किए। गृह जनपद होने के कारण उन्होंने सर्वाधिक दौरा गोरखपुर जिले का किया। लेकिन यहां भी सुबह-सुबह जनता की समस्याएं सुनना, उनके निराकरण के निर्देश देना, देर रात तक सरकारी कामकाज, योजनाओं की समीक्षा, स्थानीय लोगों से मुलाकात और विभागीय बैठकों में ही सर्वाधिक समय दिया। अमूमन महीने में दो से तीन दौरे गोरखपुर और आसपास के जिलों में मुख्यमंत्री के होते हैं। योगी आदित्यनाथ ने 16 माह से अधिक के शासन में उनके प्रति सभी आशंकाओं को निर्मूल साबित किया है और उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने आचरण से यह साबित कर दिया है कि वह सभी के साथ न्याय करेगी।

गन्ना किसानों का बकाया योगी का सिरदर्द
गन्ना किसानों का चीनी मिलों द्वारा बकाया भुगतान सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। इस समस्या का कारण सरकार की लापरवाही या चीनी मिलों का फरेब न होकर चीनी का रिकॉर्ड उत्पादन है। इस समय देशभर में गन्ना किसानों का लगभग 20 हजार करोड़ रुपया मिलों पर बकाया है जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश का हिस्सा 11 हजार करोड़ रुपया है। उत्तर प्रदेश में एक वर्ष में चीनी का उत्पादन लगभग 70 लाख टन होता था जो इस वर्ष यानी जून 2018 में समाप्त पेराई सत्र में 1.25 करोड़ टन हुआ। उत्तर प्रदेश में चीनी की उत्पादन लागत 3,750 रुपया प्रति क्विंटल आती है जबकि इस समय बाजार भाव 2,600-2,800 रुपये प्रति क्विंटल चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी चीनी का भाव मंदा है जिस कारण चीनी मिल मालिकों के लिए निर्यात घाटे का सौदा है।

उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की हालत सुधरने की बजाय और खराब हो सकती है क्योंकि गन्ने का रकबा बढ़ने की वजह से 2018-19 में गन्ने का उत्पादन लगभग बीस प्रतिशत बढ़ने की संभावना है जिससे चीनी का उत्पादन रिकॉर्ड 1.5 करोड़ टन से अधिक हो सकता है। इस स्थिति में 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने की मिठास भारतीय जनता पार्टी के लिए कड़वाहट ला सकती है। चीनी मिलों पर गन्ना मूल्य का 43 फीसदी बकाया और गन्ने के रकबे में 10 फीसदी की बढ़ोतरी सरकार को परेशान कर रही है। सरकार चीनी मिलों को जल्द चलाकर समस्या निपटाना चाहती है लेकिन मिलें आर्थिक तंगी का रोना रोकर उसकी उलझनों में इजाफा कर रही हैं। अब मिलों पर सख्ती के साथ खांडसारी उद्योग को भी पुनर्जीवित करने का प्रयास योगी सरकार की ओर से किया जा रहा है।
बता दें कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश गन्ने के लिए जाना जाता है। इस क्षेत्र की राजनीति इसी फसल के इर्द-गिर्द घूमती है। लखनऊ हो या दिल्ली, सत्ता पर काबिज होने के लिए सभी राजनीतिक दल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को केंद्रित कर अपनी राजनीतिक योजनाएं बनाते हैं। आगामी लोकसभा चुनाव में यही गन्ना भाजपा के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। जानकारों का मानना है कि इस वर्ष सरकार के सामने किसानों से करीब 100 लाख क्विंटल अतरिक्त गन्ना खरीद कर उसकी पेराई कराने की चुनौती होगी। दूसरी तरफ चीनी मिलें पिछले वर्ष यानी 2017 के गन्ने का अभी तक 57 फीसदी ही भुगतान कर पाई हैं। 2019 के चुनाव को देखते हुए योगी सरकार इस समस्या से निपटने लिए जल्द से जल्द चीनी मिलों को चलाकर ज्यादा से ज्यादा गन्ने की पेराई कराना चाहती है। प्रदेश सरकार ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को 15 अक्टूबर से 5 नवंबर के बीच मिलें चालू करने के लिए निर्देश जारी भी कर दिए हैं लेकिन चीनी मिल मालिक अपनी समस्याओं का दुखड़ा रो रहे हैं।