संध्या द्विवेदी।

दादी तो सबकी होती हैं। मगर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर जैसी दादियां तो किस्मत से ही मिलती हैं। यही वजह है कि पूरा गांव उन्हें दादी ही कहने लगा। निशानेबाज दादियों का असर इस गांव में इतना है कि लोग बोलचाल की भाषा में इस गांव को ‘दादी का गांव’ कहकर पुकारते हैं। बागपत पहुंचकर अगर आप जोहड़ी गांव का रास्ता किसी स्थानीय व्यक्ति से पूछेंगे तो वह एक बार जरूर कहेगा, अच्छा आपको दादी के गांव जाना है। फिर गांव ही नहीं बल्कि दादी के घर तक का रास्ता आपको वह फौरन बता देगा।

81 साल की चंद्रो तोमर और 76 साल की प्रकाशी तोमर ने उस वक्त निशाना साधना सीखा जब लोगों के हाथ कांपने लगते हैं, नजर कमजोर पड़ने लगती है। आज वह दुनियाभर में अपने इसी कारनामे की वजह से मशहूर हैं। निशानेबाज के रूप में शुरू हुए अपने सफर के बारे में चंद्रो तोमर हंसते हुए बताती हैं ‘मैं तो अपनी पोत्ती सेफाली को सन 2002 में निशाना लगाना सिखवाने गई थी। पड़ोस मे रेंज खुली थी। राजपाल सिंह यादव मास्टर थे। उद्घाटन का दिन था। लड़के निशाना लगा रहे थे। मुझे लगा कि इसमें कौन सी बड़ी बात है। मैंने बंदूक उठाई और मार दिया दस मीटर के टारगेट पर। छर्रा सटीक निशाने पर लगा। सब लोग मुझे ही देखने लगे। राजपाल सिंह ताली बजाते हुए मेरे पास आए और कहा दादी आप यहां सीखने आया करो। मीडिया के लोगों ने मुझे घेर लिया। 65 साल की निशानेबाज दादी की निशानेबाजी का किस्सा दूसरे दिन अखबार में क्या निकला, दादी के चर्चे घर-बाहर सब जगह होने लगे। बस वह दिन था और आज का दिन है चंद्रो दादी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। चोरी-छिपे चंद्रो दादी रेंज में जाने लगीं। पंद्रह दिन ही बीते थे कि उन्होंने अपनी देवरानी प्रकाशी तोमर से भी निशानेबाजी सीखने के लिए कहा। एक से भले दो। अब दोनों जेठानी-देवरानी तड़के उठकर पहले साफ-सफाई, खाना पीना और चारा-सानी करतीं, फिर निकल पड़तीं बंदूक चलाने। घरवालों ने खूब हंसी उड़ाई। बाहर वालों ने खूब मजाक बनाया।

चंद्रो के बगल में बैठी प्रकाशी जोर-जोर से हंसते हुए कहती हैं “म्हारे घर के मरद कहवें थे कि बुढापे में तम के कारगिल में जाओगी, वहां बंदूक चलावन जाओगी, हम भी हंसते हुए जवाब देते जांगे कारगिल में भी जांगे, मगर थोड़ा टरेनिंग तो कर लें, तब तो जांगे। चंद्रो तोमर की तीन बेटियां और दो बेटे हैं। इनके पंद्रह नाती-पोतों वाली चंद्रो आज भी रोजाना तीन घंटे जाकर शूटिंग क्लब में बैठती हैं। खुद निशाना लगाने की प्रैक्टिस करती हैं और लड़के-लड़कियों को निशाना साधने का कौशल सिखाती हैं। शूटिंग क्लब में बातचीत के दौरान जब उनसे निशाना साधने को कहा तो उन्होंने एक बार में ही खट से दस मीटर की दूसरी पर बने अपने टारगेट को भेद दिया। निशानेबाजी में माहिर चंद्रो बंदूक रखते हुऐ बिल्कुल दृढ़ता से कहती हैं कि अब तो मरने के बाद ही यह बंदूकबाजी छूटेगी। इस बात पर दोनों निशानेबाज जेठानी-देवरानी एक-दूसके को देखकर ठहाका लगाकर हंस पड़ीं।

प्रकाशी तोमर की चार बेटियां और चार ही बेटे हैं। उनकी बेटी सीमा तोमर और रेखा तोमर भी बेहतरीन निशानेबाज हैं. हालांकि रेखा अब प्रोफेशनल निशानेबाज नहीं हैं। मगर सीमा तोमर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज भी खेल रही हैं। सीमा तोमर पहली भारतीय महिला बनीं जिन्होंने वर्ल्ड कप में मेडल जीता। इसके अलावा उनकी दूसरी बेटी रूबी ने भी राष्ट्रीय स्तर तक खेला। अब वे पंजाब पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं। तभी पास खड़ी चंद्रो बेबाकी से कह उठती हैं कि हमारे घर का हर बच्चा निशानेबाज है। घर ही क्यों पूरा गांव अब निशानेबाजों का गढ़ बनता जा रहा है। उनकी बात सही भी है।

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मां-बाप कहते हैं बनना है तो दादी जैसा निशानेबाज जैसा बनो…

जोहड़ी गांव में मौजूदा समय में करीब 40-45 बच्चे शूटिंग सीख रहे हैं। इनमें 22 लड़कियां हैं। जोहड़ी राइफल्स क्लब के कोच वाजिद अली ने हंसते हुए बताया कि जैसे देश में राष्ट्रीय खेल होता है वैसे ही जोहड़ी गांव का अपना पारंपरिक खेल निशानेबाजी हो गया है। भले ही उन्होंने यह बात मजाक में कही हो मगर वाकई दोपहर के तीन बजते बजते क्‍लब में लड़के-लड़कियों की भीड़ बढ़ने लगी।

हिना अली दसवीं की छात्रा हैं। उनकी ख्वाहिश सीमा तोमर जैसी निशानेबाज बनने की है। पिछले छह महीने से वह निशानेबाजी सीख रही हैं. उनसे जब पूछा गया कि तुम्हारे घर वाले आसानी से यहां आने देते हैं ?  तो वह कहती हैं कि मेरे अब्बू मुझे दुनिया की सबसे मशहूर निशानेबाज बनते देखना चाहते हैं। मेरा सबसे प्रिय खेल यही है।   बारहवीं में पढ़ने वाली मीना भी निशानेबाजी को अपना करियर बनाना चाहती हैं। उन्हें यकीन है कि वह दुनिया की सबसे मशहूर निशानेबाज को टक्कर देंगी।

दादी की सबसे छोटी शार्गिद, डॉली

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सात साल की निशानेबाज डॉली से मिलना। डॉली दलित समुदाय से आती हैं। कोच वाजिद अली ने बताया कि डॉली बिल्कुल ठीक टाइम पर यहां आ जाती हैं। आते ही वह निशानेबाजी में लग जाती हैं। वे हमारे क्लब की सबसे छोटी छात्रा हैं, इसीलिए उनकी फीस भी माफ कर दी गई है। डॉली से पूछा कि क्या करने आती हो तो उसने बेहद मासूमियत से जवाब दिया कि बंदूक चलाने। शर्मीली इतनी कि उसकी आंखे पूरे सवाल जवाब के दौरान झुकी ही रहीं। मगर निशाना इतना पक्का की बंदूक थामते ही बस टारगेट पर उसकी नजरें गड़ जाती हैं। डॉली से पूछा कि बड़े होकर क्या बनोगी तो वह सिर झुकाए-झुकाए ही जवाब देती है, ‘छर्रे चलांगी’।

…यहां भी है, एक अर्जुन

अर्जुन दो महीने पहले ही राज्य स्तर की निशानेबाजी प्रतियोगिता में मेडल जीतकर आए हैं। उनसे पूछा कि आप किस निशानेबाज जैसा बनना चाहते हैं तो वह मुस्कराते हुए कहते हैं कि किसी जैसा नहीं…मैं इन सबसे तेज निशानेबाज बनूंगा। रेंज के कोच वाजिद अली कहते हैं, ‘महाभारत के अर्जुल की तरह ही जोहड़ी के अर्जुन का निशाना भी अचूक है।’ रेंज में अपने अपने टारगेट को भेदने के लिए तैयार बंदूक ताने यह सभी बच्चे एक से बढ़कर एक थे। सभी ने यह जरूर कहा कि जब दादी साठ साल की उम्र में आने के बाद देश में मशहूर हो गईं, तो हम भी दुनिया में छाएंगे जरूर।

दिग्गज निशानेबाजों की टकशाला है जोहड़ी

दादी के इस गांव मे देश के बड़े-बड़े निशानेबाज तैयार हो रहे हैं। अर्जुन अवार्ड पाने वाले विवेक सिंह ने भी यहीं से निशानेबाजी सीखी है। इसके अलावा इस राइफल क्लब से अब तक लगभग 200 से ज्‍यादा ऐसे निशानेबाज निकल चुके हैं जिन्‍होंने राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर ख्‍याति अर्जित की है। शेफाली तोमर, वर्षा तोमर, सीमा तोमर, सर्वेश तोमर, रवि तोमर समेत दस से भी ज्यादा निशानेबाज तो दादी के खानदान के ही हैं। चंद्रो तोमर खुद राष्‍ट्रीय स्‍तर पर अब तक 25 से ज्यादा मेडल पा चुकी हैं। प्रकाशी तोमर भी कमोबेश इतने ही मेडल पा चुकी हैं।

हमैं तो पोत्ती ही भावें हैं

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“दादियां तो एस्सी-एस्सी होवें हैं कि पोत्ती के जनम की खबर सुनके मुंह फेर लेंवें हैं, मगर हमें तो पोत्ती खूब भावें हैं।” चंद्रो दादी से जब लड़के-लड़कियों के भेदभाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने ठेठ देहाती अंदाज में यह बात कही। उन्होंने कहा हम तो जहां भी जाते हैं यही कहते हैं कि लड़कियां अब किसी से कम न हैं। उन्हें खूब पढ़ाओ, डी.एम. कलेक्टर बनाओ। खिलाड़ी बनाओ। देश नहीं बल्कि विदेश भी भेजो। हमने तो अपनी पोतियों को न पढ़ने से रोका और न खेलने से। चंद्रो दादी से जब यह पूछा गया कि आपको पता है कि बागपत में लड़कों के मुकाबले लड़कियों का अनुपात पूरे उत्तर प्रदेश की तुलना में कम है।

उत्तर प्रदेश में 2011 की जनगणना में यह अनुपात 912 था जो कि 2001 की तुलना में सुधरा है। लेकिन चाइल्ड सेक्स रेशियो घट गया। 2001 में यह 916 था जबकि 2011 में यह 902 ही रह गया। इसमें बागपत की स्थिति और भी बदतर है। यहां यह अनुपात 841 ही है। यानी यहां भ्रूण हत्याएं ज्यादा होती हैं तो उन्होंने कहा कि अब लिखा-पढ़ी तो हमें नहीं मालूम। मगर हमारे जोहड़ी में तो हम लड़कियां होने पर हर घर में जाते हैं, बधाई देते हैं। हम कहते हैं कि बेटियां जो कर सकें हैं वह किसी बेटे से न हो सके है। उन्होंने इस फर्क वाली बात पर अपना एक किस्सा बताया। बात 2004 की है। चंद्रो ने बताया कि मेरा मुकाबला एक डी.आई.जी.से हुआ। मैंने उनको हरा दिया। जब मीडिया वाले मेरी और उनकी फोटो ले रहे थे तो वह भड़क गए और कहने लगे कि एक औरत से हारने के बाद काहे की फोटो। उन्हें हारने से ज्यादा इस बात का दुख था कि वह एक औरत से हारे। उन्होंने न मेरी तरफ एक भी बार देखा न मीडिया को फोटो लेने दी। तो आप ही बताइये कि जब मैं डी.आई.जी को हरा सकती हूं तो लड़कियां सबकुछ कर सकती हैं।

क्लब की अनदेखी पर गुस्सा 

चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर सरकार की अनदेखी से बेहद नाराज हैं। उन्होंने बताया कि राहुल गांधी 2010 में जोहड़ी गांव में आए थे। राइफल क्लब में जाकर उन्होंने लड़के-लड़कियों की पीठ थपथपाई। दो पिस्तौल भी इस क्लब को भेंट की। उसके बाद उन्होंने राजपाल सिंह, जिन्होंने जोहड़ी में क्लब की शुरुआत की थी, उनसे अमेठी में भी क्लब खोलने के लिए कहा। उनके आश्‍वासन के बाद हम लोग भी लड़के-लड़कियों को निशानेबाजी सिखाने के लिए अमेठी गए। उनमें जोश भरा। हमें उम्मीद थी कि वह इस क्लब के लिए कुछ आर्थिक मदद करेंगे। मगर दो पिस्तौल के सिवा उन्होंने हमें कुछ भी नहीं दिया। उसमें से एक तो खराब भी हो चुकी है। यह दोनों पिस्तौल राहुल गांधी की थीं। उसके बाद कई नेता आए। हमारी पीठ थपथपाई और फिर पीठ दिखा दी।

राइफल क्लब के कोच वाजिद अली ने बताया कि उत्तर प्रदेश के मौजूदा राज्यपाल राम नाइक भी यहां बीते 15 अगस्‍त को आए थे। मगर सिवाए सराहना के कुछ भी नहीं दिया। यहां के 22 बच्चों को स्पोर्ट अथॉरिटी आफ इंडिया की तरफ से छह-छह सौ रुपए स्‍कॉलरशिप जरूर मिलती है। बाकी बच्चे घर से यहां की फीस भरते हैं।

लड़कों की फीस पांच सौ और लड़कियों की चार सौ रुपये है। कम से कम कोच का वेतन ही सरकार को देना चाहिए। मगर कुछ नहीं मिलता। वाजिद अली ने बताया कि आठ-दस बंदूकें बची हैं। इनमें से ज्यादातर पुरानी पड़ने के कारण जंग लगी हो गई हैं। जिस क्लब से दर्जनों अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी निकल चुके हैं, सरकार को उस पर ध्‍यान देना चाहिए। चंद्रो तोमर ने कहा कि सरकार बोलती है कि लड़कियों को पढ़ाओ लिखाओ, खिलाड़ी बनाओ। मगर मदद मांगो तो मुंह फेर लेती है।