एससी/एसटी एक्ट घात-प्रतिघात का दमदार हथियार

ब्रजेश शुक्ल

एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दो अप्रैल को दलित संगठनों द्वारा बुलाया गया बंद जब हिंसक होता जा रहा था तब दलित आंदोलन से निकलीं बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की चिंताएं भी बढ़ रही थीं। बंद समाप्त होने से पहले ही वह मीडिया के सामने आर्इं और बंद का समर्थन तो किया लेकिन बंद के नाम पर हुई हिंसा की कड़ी आलोचना की। उन्होंने हिंसा करने वालों पर कड़ी कार्रवाई की मांग की। मगर क्या मायावती की चिंता अपने उस सर्वसमाज को लेकर थी जिसके बल पर वह 2007 में अपने बलबूते सत्ता में आई थीं या उनके दलित वोट बैंक में कोई सेंध लगा रहा था।

जमीन से जुड़ी राजनीति करने वाले इस एक्ट के नफा नुकसान को समझते हैं। विपक्षी दल के एक प्रवक्ता कहते हैं कि इस मामले ने सरकार का ही नहीं विपक्षियों के संकट को भी बढ़ा दिया है। जहां तक बसपा का सवाल है तो वास्तव में अपने परंपरागत दलित वोट बैंक को फिर से एकजुट करने की चिंता से जूझ रहीं मायावती की चिंताएं कुछ और भी हैं। वह नहीं चाहतीं कि दलित उत्पीड़न रोकने के इस कड़े एक्ट पर ज्यादा आक्रमकता हो क्योंकि इससे उनका वह सामाजिक समीकरण बिखर सकता है जिसके बल पर वह सत्ता में आती रही हैं। सामाजिक तानाबाना को समझने वाले जानते हैं कि इस एक्ट के समर्थन व विरोध का दूरगामी असर होगा। वास्तव में यह ऐसा एक्ट है जो राजनीतिक समीकरणों को बनाता बिगाड़ता रहा है। इस बात पर बहस हो सकती है कि दलित एक्ट दलितों को अत्याचार से बचाता है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि बंद के दौरान हुई हिंसा की गूंज दूर तक सुनाई देगी।

बंद के दौरान सबसे ज्यादा हिंसा भाजपा शासित राज्यों में हुई। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात उत्तर प्रदेश हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक हिंसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई। इस बंद ने तमाम सवाल खड़े कर दिए कि क्या दलित राजनीति अपना रास्ता व नेता बदल रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग सभी जगह भीम सेना का असर दिखा। भीम सेना क्या है जिसने इस आंदोलन में बसपा को पीछे कर दिया। बसपा का वह जलवा नदारद था जो पिछले तीन दशकों से दिखता था। वास्तव में सहारनपुर हिंसा के बाद से दलित राजनीति में उभरे चंद्रशेखर उर्फ रावण की भीम सेना अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत करती जा रही है। उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने सहारनपुर दंगे के आरोप में चंद्रशेखर को जेल में डाल रखा है। मायावती के करीबी दबी जुबान में यह आरोप लगाते हैं कि योगी आदित्यनाथ सरकार सुनियोजित तरीके से चंद्रशेखर को मजबूत दलित नेता के रूप में उभार रही है। यह सब मायावती समझ रही हैं। वह दलितों को चेता भी चुकी हैं कि कुछ लोग दलितों के आंदोलन को कमजोर कर रहे हैं। वास्तव में भीम सेना का सर्वाधिक असर दलितों विशेषकर एक जाति के बीच है। भीम सेना का लक्ष्य फिलहाल अपनी जड़ों को मजबूत करने का है। उसका ज्यादा कुछ दांव पर भी नहीं है। दूसरी ओर बसपा का सब कुछ दांव पर है। इस तरह की हिंसा ने अन्य जातियों के मन में बसपा के प्रति तमाम सवाल खड़े कर दिए हैं। हिंसा से नाराज मायावती ने दोषियों पर कार्रवाई की बात कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि बसपा इसके खिलाफ खड़ी है।

जमीनी हकीकत कुछ और
दलितों के आंदोलन को लेकर राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन शुरू हो गया है। माना जा रहा है कि दलित एक्ट के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से भाजपा को नुकसान होगा। जिस तरह से कांग्रेस ने इस मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सरकार के प्रति आक्रामक रुख अपनाया, उससे भाजपा संकट में फंस गई है। लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है। देश व प्रदेश की राजधानियों में बैठ कर एक झटके में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भाजपा फंस गई है। लेकिन बड़े-बड़े राजनीतिक प्रेक्षक इस मुद्दे के परिणामों को लेकर सशंकित हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि गांवों में दलित एक्ट बहुत ही नाजुक मुद्दा है। इससे दलित-पिछड़ा एकता का नारा तार-तार हो जाता है। लखनऊ के पास बक्शी का तालाब निवासी नत्था यादव कहते हैं, ‘दलित एक्ट ने सर्वाधिक नुकसान तो पिछड़ों का ही किया है। पिछड़े क्या, यादवों का किया है। आप गांव जाकर तो देखें कि कैसे इस कानून ने पिछड़ों को तबाह कर दिया है। हर गांव में कुछ लोगों के लिए यह कानून कमाई का जरिया बन गया है। यह बात नेताओं को मालूम है या नहीं यह तो पता नहीं लेकिन तमाम लोग इस बात से डरे रहते हैं कि कब किसके खिलाफ इस कानून के तहत रिपोर्ट दर्ज हो जाए। इसके बाद बचाव का कोई रास्ता नहीं है। या तो ले देकर समझौता करो या जेल जाओ।’
सीतापुर के अटरिया में एक चाय की दुकान पर बैठे दलित सुमिरन कहते हैं, ‘गांवों में तो दलितों पर अभी भी अत्याचार हो रहे हैं। लेकिन कुछ लोग इस कानून का गलत इस्तेमाल भी कर रहे हैं। यही वजह है कि अत्याचार की सही शिकायतें भी अब संदेह की नजरों से देखी जाती हैं। गांवों में कुछ लोग ही इस एक्ट के तहत सर्वाधिक रिपोर्ट दर्ज क्यों कराते हैं। गांवों में चंद दबंगों व अनुसूचित जाति के कुछ लोग ऐसा गिरोह बनाए हुए हैं जो अपने विपक्षियों को परेशान करने के लिए दलित एक्ट का सहारा ले रहे हैं। दूसरी ओर, कुछ दबंग दलितों पर अत्याचार करते हैं लेकिन पीड़ित दलित उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते हैं। बहुत से मामलों में इसका शिकार ऐसे लोग भी हो रहे हैं जिनका विवादों से कोई नाता नहीं होता।’ उन्नाव के ऊंचगांव के एक दलित मोहन कहते हैं, ‘यदि दलित एक्ट के तहत दर्ज होने वाले मामलों की पहले जांच हो जाएगी तो कोई नुकसान नहीं है लेकिन राजनीति जो न कराए। जांच से इस कानून के प्रति लोगों की विश्वसनीयता बढ़ेगी। इस कानून के दुरुपयोग के कारण ही लगभग अस्सी फीसदी लोग दलितों की वाजिब मांग के खिलाफ खड़े हो गए हैं। यह लड़ाई 80 बनाम 20 में बदलने का खतरा है। बड़ी सख्या में सवर्ण और पिछड़े इस एक्ट के खिलाफ हैं।’

पहले भी बनता रहा हथियार
यह पहली बार नहीं है जब दलित एक्ट राजनीति का हथियार बना। 2 जून, 1995 को जब भाजपा के समर्थन से मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो भाजपा के सबसे ताकतवर पिछड़े नेता कल्याण सिंह ने आरोप लगाया कि मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद से दलित एक्ट के तहत मुकदमे लिखवाने वालों की बाढ़ आ गई है। तब भाजपा नेताओं ने मायावती सरकार पर खुलेआम आरोप लगाए कि पिछड़ों का उत्पीड़न हो रहा है। इस मुद्दे पर तब कल्याण सिंह ही नहीं सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह भी वही भाषा बोल रहे थे। आखिरकार भाजपा ने मायावती सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 1997 में भाजपा व बसपा के बीच छह-छह माह सरकार चलाने का समझौता हुआ। मायावती के मुख्यमंत्री बनते ही भाजपा के पिछड़े वर्ग के नेताओं ने फिर से दलित एक्ट के दुरुपयोग का मुद्दा उठाया। सपा इस मुद्दे पर बसपा पर कहीं ज्यादा आक्रामक थी। समझौते के मुताबिक, 21 सितंबर 1997 को कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला और सत्ता संभालते ही उन्होंने एक आदेश से दलित एक्ट को कमजोर कर दिया। जब इस आदेश की जानकारी बसपा को हुई तो बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस मामले पर आक्रामक रुख अपनाते हुए कल्याण सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसका असर लोकसभा चुनाव में दिखा और भाजपा को ऐतिहासिक सफलता मिली। वास्तव में कल्याण के एक निर्णय ने पिछड़ों को एकजुट कर दिया। दलित एक्ट के दुरुपयोग को लेकर पिछड़ा समुदाय के लोग मायावती से बहुत नाराज थे। परिणाम यह हुआ कि सपा को उस लोकसभा चुनाव में 19 सीटें मिलीं और बसपा को सिर्फ चार। 2007 में मायावती अपने बलबूते प्रदेश की सत्ता में आ गर्इं। इसके बाद फिर बड़े पैमाने पर दलित एक्ट के तहत मुकदमों की बाढ़ आ गई। इससे मायावती सचेत हुर्इं और ऐसे मुकदमों पर अंकुश लगाने का प्रयास हुआ जो झूठ पर आधारित थे। 2012 में सपा ने दलितों के आरक्षण में प्रोन्नति का मुद्दा उठाया। पहली बार कोई पार्टी दलितों के आरक्षण पर प्रोन्नति के खिलाफ खुलकर सामने आई थी। वास्तव में सपा का यह दांव भी पिछड़ों को सामने रखकर उठाया गया था।
अब एक बार फिर दलित एक्ट बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है। राजनीतिक दल इसे अपने अपने चश्मे से देख रहे हैं। भाजपा के विरोधियों को लगता है कि यह मुद्दा उनके पक्ष में जाएगा लेकिन गांवों व सामाजिक समीकरणों को समझने वाले जानकार कहते हैं कि यह ऐसा तीर है जो विपक्ष को भी घायल कर सकता है। विपक्षी दल के एक नेता कहते हैं कि जो गांवों व सामाजिक तानेबाने को नहीं समझ रहे हैं वे कुछ ज्यादा ही उत्साहित हैं। दलित एक्ट के दुरुपयोग पर यदि पाबंदी नहीं लगेगी तो इसके खिलाफ आवाजें उठती रहेंगी। साथ ही वह व्यवस्थाएं भी करनी होगी जिससे दलितों का उत्पीड़न भी रुक सके।

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