सत्येन्द्र प्रसाद सिंह

दिल्ली स्थित अक्षरधाम मंदिर के बगल में नेशनल हाईवे पर सावन में कांवड यात्रा के दौरान कांवड़ियों के विश्राम के लिए दो शिविर लगे हुए थे। एक समसपुर कांवड़ सेवा समिति, समसपुर और दूसरा जय शिव कांवड़ सेवा समिति, पांडवनगर की ओर से। पहली समिति वर्ष 2003 से कांवड़ शिविर लगा रही है तो दूसरी वर्ष 1997 से। ऐसे में माना जा सकता है कि इन दोनों शिविरों ने हाल के वर्षों में कांवड़ यात्रा की बदलती प्रवृत्तियों का नजदीक से दर्शन किया है। नेशनल हाईवे पर होने के कारण इनके लिए यह ज्यादा सुविधाजनक है क्योंकि यहां दिल्ली ही नहीं, हरियाणा और राजस्थान के कांवड़िये भी रुकते हैं। खास बात यह है कि इनके पीछे कोई राजनीतिक दल या हिंदू संगठन नहीं है, यह सब समाज की पहल पर हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि लोगों की दलगत या वैचारिक निष्ठा कुछ भी हो, ऐसे विषयों पर समाज एक साथ है।

कांवड़िये समाज के अभिन्न हिस्से हैं, इसलिए इनमें देशकाल की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति होना स्वाभाविक है। कांवड़ियों द्वारा तिरंगा लेकर चलना इसी का हिस्सा है। इस पर मीडिया सहित सबका ध्यान जाता रहता है लेकिन इसका एक ऐसा पहलू भी है जिसकी प्राय: अनदेखी की जाती रही है। वह है समाज के सभी समुदायों और वर्गों, खासकर गरीब-गुरबा और दलितों की इसमें भागीदारी। उनकी यह भागीदारी कांवड़ यात्रियों से लेकर कांवड़ शिविरों के प्रबंधन तक में देखी जा रही है। समसपुर कांवड़ सेवा समिति द्वारा लगाए गए शिविर में हरिद्वार से गंगा जल लेकर लौट रहे दक्षिणी दिल्ली के ऐसे ही तीन युवा कांवड़ियों अजय श्रीराम, पंकज कुमार और राधे राम से मुलाकात हो गई जो खुद को दलित समुदाय का बता रहे थे। आर्थिक दिक्कत के कारण उन्हें 8वीं-0वीं के बाद ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी लेकिन भगवान शंकर के प्रति उनके मन में आस्था कम नहीं हुई। उन्हें लगता है कि भोले उनकी मन्नत पूरी करते रहे हैं और आगे भी करेंगे। अभी ये छोटे-मोटे काम करके अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं। ये कांवड़िये समसपुर से पहले गाजीपुर (दिल्ली), गाजियाबाद, मुरादनगर, मोदीनगर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की आदि शिविरों में रुकते आ रहे थे।
समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और छुआछूत के बाबत पूछने पर पिछले दस वर्षों से कांवड़ यात्रा करने वाले दिल्ली के खानपुर स्थित हरिजन कैंप के अजय श्रीराम बताते हैं कि कांवड़ियों में ऐसा कुछ नहीं है। किसी भी शिविर में कोई छुआछूत-भेदभाव नाम की कोई चीज देखने को नहीं मिली। ब्राह्मण से लेकर दलित तक सब इसमें एक साथ भाग लेते हैं। सब साथ ही भोजन करते हैं। साथ ही जल लेते हैं और उसे शिव मंदिर में चढ़ाते हैं। यहां कोई किसी को नाम से भी नहीं पुकारता बल्कि भोले कहकर बुलाता है। इसी शिविर में युवकों का एक और समूह मिला। यह समूह ऐसा था जिसमें अगड़ी, पिछड़ी और अनुसूचित जाति से जुड़े कांवड़िये किशन पाल, राहुल चौहान, पवन, दीपक सिंह, राहुल गुप्ता और दीपक चौहान शामिल थे। पहले समूह की ही तरह इस समूह का भी ऐसा ही अनुभव था।

कांवड़ यात्रियों की जैसी सामाजिक संरचना और धारणा थी वैसी ही सामाजिक संरचना और धारणा कांवड़ शिविरों का प्रबंधन करने वालों की भी रही। जय शिव कांवड़ सेवा समिति के प्रबंधन में अगड़ी, पिछड़ी और दलित जाति के लोग राकेश नंदा, प्रदीप सैनी, सतीश सैनी, जय प्रकाश चौहान, संजय कुमार और लोकेश कुमार समान भाव से अपनी क्षमता के मुताबिक योगदान कर रहे थे। दलित समुदाय के लोकेश कुमार को भले ही मंदिर जाने में दिलचस्पी न हो लेकिन उन्हें कांवड़ शिविर में अपनी सेवा देने में बहुत आनंद आता है। प्रबंधन कार्य में लगे लोगों ने कांवड़ियों की जाति बताने में अपनी असमर्थता जता दी। इस संदर्भ में पूछने पर उनका साफ कहना था कि हमलोग किसी की जाति नहीं पूछते। उनका ऐसा कहना स्वाभाविक था। उन्हें मेरा यह सवाल पूछना भी पसंद नहीं आ रहा था। यहां दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अंबेडकर की तर्ज पर यह कहना कठिन है कि आधुनिक हिंदू अस्पृश्यता पर सार्वजनिक चर्चा नहीं करना चाहता। दरअसल, आज का हिंदू समाज डॉ. अंबेडकर के समय का हिंदू समाज नहीं रहा। उसमें काफी बदलाव आ चुका है। हालांकि अस्पृश्यता की समस्या अभी पूरी तरह खत्म तो नहीं हो पाई है लेकिन पहले की तरह यह विकट भी नहीं रह गई है।

कांवड़ शिविर के प्रबंधनकर्ता अपनी जगह पर भले ही सही थे लेकिन इस कारण कांवड़ियों की जाति जानने में कुछ कठिनाई जरूर हुई। तो क्या हिंदू समाज में जाति की जगह एक नई पहचान यानी जाति पूछने पर अपनी जाति बताने कीबजाय अपना धर्म बताने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है? अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी लेकिन भविष्य के मद्देनजर इसे आसानी से नकारा भी नहीं जा सकता। हिंदू समाज में अभी जिस तरह की हलचल चल रही है उसमें यह सोच पल-बढ़ रही है। कांवड़ शिविर में जातीय चेतना की लुप्तता और हर किसी को भोले बताना इसी दिशा की ओर संकेत है। जय शिव कांवड़ सेवा समिति से जुड़े जय प्रकाश चौहान कहते भी हैं कि यहां कोई जाति नहीं है, अगर कोई जाति है तो वह हिंदू है। अगड़ी जाति के चौहान का सर्वसमावेशी हिंदुत्व के प्रति आग्रह इतना जबर्दस्त है कि वे दलितों के बिना ऐसे आयोजन को अधूरा मानते हैं। यह एकतरफा नहीं है। दलितों-पिछड़ों में भी हिंदुत्ववादी पहचान प्रकट करने की ललक बढ़ती जा रही है। सुधरती माली हालत उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रही है ताकि वह हिंदू समाज की मुख्यधारा में जुड़ सकें और उनकी पूछ बढ़ सके। यही कारण है कि कांवड़ियों में इनकी संख्या बढ़ती जा रही है।
यह सब एक ऐसे कालखंड में घटित हो रहा है जब राष्ट्रीय स्तर पर दलित समाज अपने उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलित है। इसके बावजूद हिंदू समाज में बदलाव की इस प्रवृत्ति की मीडिया द्वारा अनदेखी करना विचारणीय विषय बनता जा रहा है। वर्षों से हिंदू समाज की अकसर आलोचना की जाती रही है कि इसमें जात-पात और दलितों के साथ छुआछूत व्याप्त है। इसे इस प्रकार पेश किया जाता है मानो इसमें कोई कमी ही नहीं हो पा रही है यानी समाज में कोई बदलाव नहीं हो रहा है। कांवड़िये और शिविर प्रबंधक हिंदू धर्म की इस आलोचना से सहमत नजर नहीं आते लेकिन वे यह ठीक से समझ नहीं पाते कि ऐसा करने वाले लोग कौन हैं। उनमें से कई यह कहते दिखे कि यह हिंदू समाज को बांटने और उसे बदनाम करने की मंशा के तहत किया जा रहा है।
बहरहाल, कांवड़ियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इसमें महिलाओं से लेकर बच्चों तक की भागीदारी बढ़ती जा रही है। इस बढ़ोतरी का कारण पूछने पर वर्ष 2009 से कांवड़ यात्रा पर जाने वाली दिल्ली के संगम विहार निवासी 25 वर्षीया तुलसी, जो इस बार अपनी मां अंजली और बेटी माही के साथ थीं, कहती हैं कि इसके पीछे धार्मिक आस्था तो है ही, कुछ लोग घूमने-फिरने के इरादे से भी जा रहे हैं। हिंदू समाज की सोच में यह बदलाव कब से हुआ, इस बारे में कोई एक राय नहीं है। जय प्रकाश चौहान के मुताबिक जैसे-जैसे धार्मिक चेतना बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे कांवड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्षों से शिविर में अपनी सेवा दे रहे लोकेश के मुताबिक, पिछले चार-पांच वर्षों से कांवड़ियों की संख्या बढ़ी है। इस संदर्भ में बाजार की भूमिका को भी खारिज नहीं किया जा सकता। इस बात को नकारना कठिन है कि आर्थिक उदारीकरण की ताकतों ने इसे जाने-अनजाने प्रभावित नहीं किया है। 