जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है, कहीं ये वो तो नहीं

कैफी आजमी

निशा शर्मा।

अजीब आदमी था वो,

मोहब्बातों का गीत था

बग़ावतों का राग था,

कभी वो सिर्फ़ फूल था

कभी वो सिर्फ़ आग था

शायर ,गीतकार कैफी आज़मी उर्फ अताहर हुसैन रिजवी को जानने के लिए ये पंक्तियां काफी हैं, इन शब्दों की तरह कैफी साहब की शख्सियत कई मायनों में सीधे दिल से दिमाग तक पहुंचती है। कैफी साहब का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मिजवान में 14 जनवरी 1918 को हुआ था।

कैफी आजमी ने लिखना कब शुरू किया इसका अंदाजा लगाना थोड़ा कठिन है लेकिन जब कैफी साहब की करीब 11 साल की उम्र रही होगी जब वो अपने पिता-भाई के साथ एक मुशायरे में गए हुए थे। इस मुशायरे में कैफी आजमी ने अपनी गजल पढ़ी। जिसे सुनकर उनके पिता-भाई हैरान रह गए। बेटे की प्रतिभा को पहचानने के लिए जब कैफी आजमी के पिता ने उन्हें एक गजल और लिखने को कहा, तो कैफी साहब ने बिना किसी देरी के एक गजल लिख डाली।

कैफ़ी को इस बेयक़ीनी पर काफ़ी दुख हुआ। लेकिन इस दुख ने कम उम्र कैफ़ी को तोड़ा नहीं। इसे उन्होंने अपनी ताक़त बनाया। चंद पलों में लिखी इस गजल को मशहूर गजल गायिका बेगम अख्तर ने अपनी आवाज दी। और वो गजल थी, ‘ इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े’। कैफी साहब को स्कूल नहीं भेजा गया बल्कि उन्होने दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) ही हासिल की। इसी दौरान कैफी साहब ने 1933 में प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित कहानी संग्रह अंगारे पढ़ा जिसका उनके जहन पर गहरा प्रभाव पड़ा और ऐसे ही धार्मिकता में सामाजिकता शामिल होती गई और इस तरह वह मौलवी बनते-बनते कॉमरेड बन गए।

1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफी साहब कानपुर चले गए और वहां मजदूर सभा में काम करने लगे। मजदूर सभा में काम करते हुए कैफी ने कम्यूनिस्ट लिट्रेचर का गंभीरता से अध्ययन किया। 1943 में जब बंबई में कम्यूनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफी साहब बंबई चले गए और वहीं कम्यून में रहते हुए काम करने लगे। यहीं से कैफी को लिखने की वजह और अपनी लेखनी में निखार मिला।

प्रगतिशील अदबी आंदोलन के शायर थे कैफी साहब। साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे जाने-माने शायर उनकी शायरी के हमसफ़र थे। कैफ़ी की पूरी शायरी अलग-अलग लफ़्ज़ों में शोषित वर्ग के आँसुओं की दास्तान है। उसी के पक्ष में क़लम उठाते थे। उसी के लिए मुशायरों के स्टेज से अपनी नज़्में सुनाते थे।

कैफ़ी आज़मी सिर्फ शायर ही नहीं थे। वह शायर के साथ स्टेज के अच्छे परफ़ॉर्मर भी थे। इस परफ़ॉर्मेंस की ताक़त उनकी आवाज़ और आवाज़ के उतार चढ़ाव के साथ मर्दाना कद और फ़िल्मी अदाकारों जैसी सूरत भी थी। उनकी आवाज और उनकी शायरी का मेल ऐसा था कि कोई सुनने लगे तो उससे अलग हो पाना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाता था। शायरी किताबों में भी पढ़ी जाती है और सुनी भी जाती है। लेकिन लिखने की तरह इसकी अदायगी भी एक कला है। जो कला कैफी़ साहब मे देखने को खूब मिली।

कैफी आजमी आँखों और हाथों के हाव-भाव और आवाज़ के उतार-चढ़ाव से सुनने वालों को जब चाहे हँसाते थे, जब चाहे रुलाते थे और कभी उनसे मातम करवाते थे। जब कलाम पढ़ने के लिए बुलाए जाते तो पढ़ने के बाद पूरे मुशायरे को अपने साथ ले जाते थे।

कोई ये कैसे बताये के वो तन्हा क्यों हैं

वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं।

हैदराबाद में एक मुशायरा कैफी की जिन्दगी का सबसे अहम मुशायरा साबित हुआ। कैफ़ी ने अपनी जवानी के दिनों की एक हसीना को किसी और के साथ अपनी मंगनी तोड़ने पर मजबूर कर दिया था। कैफ़ी अपनी मशहूर नज़्म औरत सुना रहे थे…

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं

तुझमें शोले भी हैं बस अश्क फिशानी ही नहीं

तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं

अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे

उठ मेरी जान…

और वह लड़की अपनी सहेलियों में बैठी कह रही थी, “कैसा बदतमीज़ शायर है। वह ‘उठ’ कह रहा है। उठिए नहीं कहता और इसे तो अदब की अलिफ़-बे ही नहीं आती। इसके साथ कौन उठकर जाने को तैयार होगा?” लेकिन जब श्रोताओं की तालियों के शोर के साथ नज़्म ख़त्म होती है तो वह लड़की अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा फ़ैसला ले चुकी थी। माँ बाप ने लाख समझाया वह नहीं मानी। सहेलियों ने इस रिश्ते की ऊँच-नीच के बारे में भी बताया। वह शायर है, शादी के लिए सिर्फ़ शायरी काफ़ी नहीं होती। शायरी के अलावा घर की ज़रूरत होती है।

वह खु़द बेघर है। खाने-पीने और कपड़ों की भी ज़रूरत होती है। कम्युनिस्ट पार्टी उसे केवल 40 रुपए महीना देती है। लेकिन वह लड़की अपने फ़ैसले पर अटल रही। और कुछ ही दिनों में अपने पिता को मजबूर करके बंबई ले आई। वह रिश्ता जो हैदराबाद में मुशायरे में शुरू हुआ था, पति-पत्नी के रिश्ते में बदल गया।

ये हसीना शौकत ख़ान से शौकत आज़मी बनीं थीं। शौकत आज़मी जो जवान कैफ़ी की ख़ूबसूरत प्रेमिका थी, आज भारत की बड़ी अभिनेत्री शबाना आज़मी की माँ हैं।

प्रेम और गंभीरता के इस शायर ने अपनी मेहनत और रियाज़त से खुद को साबित करके दिखाया। इस शायर को आज लोग कैफ़ी आज़मी के नाम से जानते हैं। कैफी आजमी ने हिंदी फिल्मों के लिए बहुत कुछ लिखा। 40 रुपए मासिक पगार से शुरु करके पृथ्वी थिएटर के सामने एक आलीशान बंगले तक की यात्रा तय की है। खूबसूरत शब्दों में ही नहीं बल्कि खूबसूरत अर्थों में लिपटे कैफी साहब के ना जाने कितने गीत हैं जो आज भी लोगों के जहन में जिंदा हैं और रहेंगे और आज भी उनके लिखे गीतों को गुनगुनाकर लगता है कि कैफी साहब यहीं कहीं हैं।

जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है

कहीं ये वो तो नहीं , कहीं ये वो तो नहीं…।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *