उमेश चतुर्वेदी

पिछली सदी के आखिरी दशक की बात है। उत्तर प्रदेश के एक मुख्यमंत्री ने चेन्नई (तब मद्रास) का दौरा किया। चेन्नई पहुंचकर उन्होंने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री को फोन किया। फोन पर मेहमान राज्य के मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश के नेता से चुटकी ली, ‘आप तो मद्रास में हिंदी लादने आए हैं।’ उत्तर भारतीय राजनेता उतने हाजिर जवाब नहीं हैं। लेकिन उन्होंने तत्काल जवाब दिया, ‘जी नहीं, मैं तमिलनाडु में तमिल लादने आया हूं।’ अगले दिन दोनों की मुलाकात हुई। उत्तर भारत के राजनेता ने उनसे कहा कि दरअसल वे डॉक्टर राममनोहर लोहिया के विचार को मूर्त रूप देना चाहते हैं। लोहिया चाहते थे कि भारतीय भाषाएं अपना मुकाम हासिल करें और अंग्रेजी का वर्चस्व खत्म हो।
पाठकों को थोड़ा-बहुत अंदाजा हो गया होगा कि उत्तर प्रदेश के वे नेता थे मुलायम सिंह यादव और तमिलनाडु में उन दिनों मुख्यमंत्री थे एम करुणानिधि। तमिल उपराष्ट्रीयता और तमिलबोध के गहरे पैरोकार करुणानिधि हिंदी नहीं बोलते थे, लेकिन हिंदी को समझते थे। वे हिंदी विरोध की राजनीति के जबरदस्त पैरोकार थे। अपने नेता सीए अन्नादुरै की तरह उन्होंने अपने हिंदी विरोध को नहीं छुपाया। 7 अगस्त को चेन्नई के कावेरी अस्पताल में उनके निधन की खबर मिलते ही जिस तरह चेन्नई की सड़कों पर हुजूम उमड़ा या फिर अगले दिन उनकी अंतिम यात्रा में जिस तरह भीड़ बेकाबू हुई, उससे जाहिर है कि तमिल उपराष्ट्रीयता को उभारने के बाद वे किस कदर तमिल लोगों के दिलों पर राज करते थे। उन्हें याद करते हुए तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष सीपी राधाकृष्णन कहते हैं, ‘करुणानिधि को तमिलवाद के गहरे पैरोकार, गरीबों और पिछड़ों के मसीहा और तमिल राजनीति के अनूठे रणनीतिकार के रूप में याद किया जाएगा।’
सीपी राधाकृष्णन कहते हैं, ‘1990 में जब पूरा उत्तर भारत मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने के बाद उभरे विक्षुब्ध वातावरण और छात्र आंदोलन से हलकान हो रहा था, तमिलनाडु इससे अछूता था। इसकी वजह यह थी कि इस आंदोलन के दो दशक पहले ही राज्य में पचास फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू हो चुकी थी और यह उस करुणानिधि ने किया था, जिन्होंने अपने नेता सीए अन्नादुरै के निधन के बाद राज्य की सत्ता संभाली। आमतौर पर लोकप्रिय मुख्यमंत्री बनने के बाद नेताओं में प्रधानमंत्री बनने की लालसा बनने लगती है। दक्षिण के दो मुख्यमंत्री पीवी नरसिंह राव और एचडी देवेगौड़ा अप्रत्याशित घटनाओं के चलते प्रधानमंत्री मंत्री बन चुके हैं। कर्नाटक के कद्दावर नेता रामकृष्ण हेगड़े ऐसी हसरत पाले ही इस दुनिया से कूच कर गए। लेकिन पांच बार मुख्यमंत्री रहने और 12 बार विधायक चुने जाने के बावजूद करुणानिधि ने कभी प्रधानमंत्री बनने की चाहत नहीं पाली। वे तमिलनाडु की ही राजनीति के केंद्रबिंदु बने रहे और चेन्नई से ही राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते रहे।’
राष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने एक बार किंगमेकर की भी भूमिका निभाई। 1996 में उनका दल राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल था। उस दौरान प्रधानमंत्री पद को लेकर लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव में अंदरखाने में तलवारें खिंच गई थीं। उस वक्त एन चंद्रबाबू नायडू के साथ एम करुणानिधि ने दोनों नेताओं के बीच तनाव कम किया था, जिसके बाद देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बन सके थे। करुणानिधि की छवि उत्तर भारत के नेताओं के बरक्स तमिल साहित्य और सिनेमा में सक्रिय बुद्धिजीवी राजनेता की रही है। उन्होंने सौ से ज्यादा किताबें लिखीं। कई सुपरहिट फिल्मों की पटकथा लिखी। करुणानिधि मुरासोली नामक मासिक अखबार के संस्थापक संपादक और प्रकाशक रहे। जो बाद में पहले साप्ताहिक और फिर दैनिक अखबार बन गया। अपनी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े मुद्दों को अपने समर्थकों के बीच ले जाने के लिए उन्होंने पत्रकार और कार्टूनिस्ट की भूमिका भी निभाई। जब तक वे जिंदा रहे, रोजाना सुबह की शुरुआत अखबार पढ़ने और अपने अखबार के लिए लेख लिखने या समर्थकों के लिए चिट्ठियां लिखने से करते। राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के महासचिव क्रांति प्रकाश इन दिनों अपनी पार्टी की तरफ से दक्षिण भारत के तमिलनाडु और केरल राज्य के प्रभारी हैं। जनता पार्टी के युवा विंग से राजनीति शुरू करने वाले क्रांति कहते हैं, ‘करुणानिधि को जितना तमिल अस्मिता का प्रतीक माना जाता है, उतना ही उन्हें राज्य में भ्रष्ट भी माना जाता है। उन पर वीरानम प्रोजेक्ट में भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे।’ करुणानिधि अपने विवादित कदमों के लिए भी जाने गए। लिट्टे के समर्थन के साथ ही उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की महत्वाकांक्षी सेतुसमुद्रम परियोजना का भी विरोध किया। यह विरोध इतना बढ़ा कि उन्होंने राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया। लेकिन उन्होंने रावण के अस्तित्व को स्वीकार किया। बिहार के एक नेता कहते हैं कि ‘करुणानिधि तमिलनाडु के सफलतम कर्पूरी ठाकुर थे। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर जाति से नाई थे और करुणानिधि भी नाई थे।’ उन्होंने अपने नेता सीए अन्नादुरै को साध लिया और पार्टी पर ऐसा प्रभुत्व बनाया कि उनके निधन के बाद 45 साल की उम्र में राज्य के साथ ही उनकी पार्टी डीएमके को संभाल लिया।
करुणानिधि भले ही तमिल अस्मिता के प्रतीक बन गए हों, तमिल राष्ट्रबोध को उन्होंने बढ़ावा दिया हो, लेकिन यह भी सच है कि परिवारवाद को बढ़ावा देने के लिए भी उन्हें जाना जाता है। उनके भतीजे मुरासोली मारन, मारन के बेटे दयानिधि मारन, उनके बेटे एमके अल्लागिरी, बेटे स्टालिन और बेटी कनिमोझी राजनीति में हैं और डीएमके पर एक तरह से उनका ही कब्जा है। अब उनके उत्तराधिकार पर भी सवाल उठेगा। हालांकि वे अघोषित तौर पर स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी बना गए हैं। कनिमोझी भी उनके समर्थन में बयान दे चुकी हैं। लेकिन यह भी सच है कि करुणानिधि के रहते ही अल्लागिरी विद्रोह कर चुके हैं। इसलिए आने वाले दिनों में उत्तराधिकार और डीएमके को लेकर करुणानिधि परिवार में नया सत्ता संघर्ष एक बार फिर शुरू हो तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
राजनीति में कहा जाता है कि न तो कोई हमेशा के लिए दुश्मन होता है और न ही कोई हमेशा के लिए दोस्त। लेकिन एमजीआर की सहयोगी और साथी रहीं जयललिता और करुणानिधि के रिश्ते एक बार बिगड़े तो फिर कभी सुधर नहीं पाए। इस विवाद की शुरुआत का जिक्र जयललिता की जीवनीकार वरिष्ठ तमिल पत्रकार वासंती ने उनकी जीवनी ‘अम्मा’ में किया है। अम्मा में उन्होंने लिखा है, ‘साल 1989 में करुणानिधि अपनी सरकार का बजट पेश कर रहे थे। उस वक्त जयललिता नेता प्रतिपक्ष थीं और उनके खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज हुआ था। करुणानिधि ने जैसे ही बजट पढ़ना शुरू किया, जयललिता ने यह मामला उठाया। लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। तभी विपक्षी बेंच से किसी ने उनकी तरफ फाइल फेंक दी, जिससे करुणानिधि का चश्मा टूट गया। इसके बाद सत्ता पक्ष से किसी ने जयललिता की साड़ी खींच दी। जयललिता इस अपमान को आखिरी दम तक भुला नहीं पार्इं।’ कहा जाता है कि इसके बाद ही उन्होंने साड़ी के उपर चोगा पहनना शुरू कर दिया था।
लेकिन करुणानिधि से कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी का दोस्ती और दुश्मनी का रिश्ता बना रहा। करुणानिधि श्रीलंकाई उग्रवादी तमिल संगठन एलटीटीई के खुले समर्थक थे। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या इसी संगठन ने की। ऐसा माना जाता है कि राजीव हत्या की जांच कर रहे न्यायमूर्ति मिलाप चंद जैन आयोग ने इसमें करुणानिधि की पार्टी डीएमके का हाथ होने के भी आरोप लगाए थे। जिस समय यह आरोप लगा, उस समय केंद्र में इंद्र कुमार गुजराल सरकार थी और उसमें करुणानिधि की पार्टी डीएमके शामिल थी। कांग्रेस ने इसी मुद्दे पर गुजराल सरकार गिरा दी थी। यह नियति का खेल मानिए या राजनीति का चक्र कि जिस डीएमके के चलते कांग्रेस ने गुजराल सरकार गिराई, उसी डीएमके के साथ कांग्रेस ने 2004 में न सिर्फ सरकार बनाई, बल्कि उसकी अगुआई में तमिलनाडु और पुदुचेरी की सभी चालीस सीटें जीत लीं, जिसमें डीएमके को 18 सीटें मिली थीं। करुणानिधि को उनके निधन के बाद कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पिता तुल्य बताया है।
पिछले साल जयललिता और अब करुणानिधि के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में बड़ा शून्य पैदा हो गया है। जाहिर है कि इस शून्य पर दक्षिण में पैर पसारने की ताक में बैठी भारतीय जनता पार्टी की पैनी निगाह है। करुणानिधि ने 33 साल पहले अपने लिए एक संदेश लिखा था, ‘एक शख्स जो बिना आराम किए काम करता रहा, अब वह आराम कर रहा है।’ वही संदेश उनके ताबूत पर भी लिखा गया। भले ही वह शख्स अब अहर्निश आराम की मुद्रा में है, लेकिन तमिल राजनीति और समाज में रोपे गए उसके पेड़-पौधे देश में कई बयारों की वजह बनते रहेंगे।