उमेश चतुर्वेदी

जयप्रकाश नारायण ने 1974 में जब बिहार के छात्र आंदोलन को नेतृत्व दिया, तो इससे तिलमिलाई तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनके खिलाफ अभियान शुरू कर दिया था। इसके प्रति इंदिरा गांधी को उनकी पार्टी के सहयोगी और युवा तुर्क के रूप में विख्यात चंद्रशेखर ने आगाह किया था। उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा था, ‘यह देश संतों का अपमान बर्दाश्त नहीं करता। जयप्रकाश संत हैं और देश उनका अपमान नहीं बर्दाश्त करेगा।’ यह बात और है कि चंद्रशेखर की बात कांग्रेस ने नहीं मानी और उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है। इसके ठीक तीस साल बाद एक बार फिर ऐसा मौका आया, जब सचमुच के किसी संत के खिलाफ सत्ता की कार्रवाई का कांग्रेस के ही अंदर से विरोध हुआ। लेकिन उस विरोध को दरकिनार कर दिया गया। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी हाल में प्रकाशित किताब ‘द कोलिशन इयर्स -1996-2012’ में लिखा है कि जब 2004 में कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती को ऐन दीवाली के वक्त गिरफ्तार किया गया तो वे बेहद गुस्से में थे। उन्होंने इस गिरफ्तारी के खिलाफ कैबिनेट की बैठक में सवाल उठाया था। प्रणब अपनी किताब में लिखते हैं, ‘एक कैबिनेट बैठक के दौरान मैं इस गिरफ्तारी के समय को लेकर काफी नाराज था। मैंने सवाल पूछा कि क्या देश में धर्मनिरपेक्षता का पैमाना केवल हिन्दू संतों महात्माओं तक ही सीमित है? क्या किसी राज्य की पुलिस किसी मुस्लिम मौलवी को ईद के मौके पर गिरफ्तार करने का साहस दिखा सकती है?’ यह बात और है कि तब उनकी बात अनसुनी कर दी गई थी।

25 जुलाई 2017 को राष्ट्रपति पद से रिटायर हो चुके प्रणब मुखर्जी के संस्मरणों की यह किताब हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस किताब में उन्होंने राष्ट्रपति बनने से पहले के सोलह सालों की अहम राजनीतिक घटनाओं पर केंद्रित अपने संस्मरण लिखे हैं जिसमें कई अहम खुलासे किए हैं। जयेंद्र सरस्वती को शर्मनाक तरीके से उनके ही मठ के एक कर्मचारी शंकर रमण की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस वक्त तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करने और यह जताने के लिए कि कानून से ऊपर कोई नहीं होता, जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी की थी। इसके साथ ही शंकराचार्य पर आपराधिक षड्यंत्र, अदालत को गुमराह करने, गलत सूचना के जरिए पैसे के लेन-देन जैसी आपराधिक गतिविधि आदि के आरोप लगाये गए। यह बात और है कि पांडिचेरी में नौ साल तक चले मुकदमे के बाद शंकराचार्य समेत सभी आरोपियों को विशेष अदालत ने 27 नवंबर 2013 को बाइज्जत बरी कर दिया। इस मुकदमे के जितने भी गवाह थे, उन्होंने अभियोजन पक्ष के समर्थन में बयान देने से इनकार कर दिया। उल्टे अभियोजन पक्ष के विरोध में 80 से अधिक गवाहों ने अपने बयान दर्ज कराए।

जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी को लेकर प्रणब के खुलासे से दो बातें साफ होती हैं। पहली यह कि बेशक कानून और व्यवस्था का मामला राज्य का विषय है, लेकिन जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी के लिए जयललिता सरकार ने बाकायदा केंद्र सरकार की सहमति ली थी। प्रणब मुखर्जी ने इस बात का खुलासा भले ही अपनी किताब में नहीं किया है। दूसरी बात यह है कि प्रज्ञा भारती और कर्नल पुरोहित की गिरफ्तारी जिस हिंदू आतंकी फॉर्मूले के तहत की गई, शंकराचार्य की गिरफ्तारी भी उसी की एक कड़ी थी। प्रणब मुखर्जी के इस खुलासे से भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी के उस आरोप की ही पुष्टि होती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी केंद्र सरकार की सहमति से की गई थी। उन दिनों केंद्र में सिर्फ सात महीने पहले ही मनमोहन सरकार ने शपथ ली थी और उस सरकार में प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री का दायित्व संभाल रहे थे। जब जयेंद्र सरस्वती को अदालत ने बरी किया, तब स्वामी ने जयललिता से मांग की थी कि वे शंकराचार्य से माफी मांगें।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने किसी संत पर दूसरी बार ऐसा कदम उठाया था। 4 जून 2011 की रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव पर पुलिस कार्रवाई करने वाली मनमोहन सरकार ही थी, जिसके गृहमंत्री पी चिदंबरम थे। हैरत की बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने के बाबा रामदेव के आंदोलन से सरकार दिन में इतनी घबराई हुई थी कि बाबा रामदेव से बात करने के लिए उसने प्रणब मुखर्जी और कपिल सिब्बल जैसे मंत्रियों को दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर ही भेज दिया था। जहां बाबा रामदेव आ रहे थे। लेकिन बात नहीं बनी। सूत्र बताते हैं कि तब कांग्रेस कोर ग्रुप की औचक बैठक हुई। उसमें कार्यसमिति के कुछ वरिष्ठ सदस्य भी शामिल हुए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुआई में हुई इस बैठक में पार्टी ने अपनी सरकार को निर्देश दिया कि बाबा रामदेव के आंदोलन को किसी भी तरह खत्म कराया जाए। इसी के फलस्वरूप देर रात कार्रवाई हुई, जिससे बचने के लिए बाबा रामदेव महिला के वेश में फरार होने के लिए मजबूर हुए थे, जिसकी बाद में कांग्रेस ने भी खूब खिल्ली उड़ाई। तब पार्टी के दो बड़े नेताओं से पूछा गया कि क्या उन्हें इस बात की चिंता नहीं है कि पुलिस कार्रवाई के बाद जनता में गुस्सा होगा। तो दोनों नेताओं का जवाब था कि जनता की याददाश्त बेहद कमजोर है और वह जल्द भूल जाती है। यह बात और है कि जनता नहीं भूली और दो साल दस महीने बाद हुए चुनावों में कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार को पराजय का मुंह देखना पड़ा।

इंदिरा गांधी ने जब जयप्रकाश के खिलाफ अभियान चलाया तो उन्हें डर था कि जयप्रकाश के आंदोलन से उनकी सरकार पर आंच आएगी। उन्होंने भुवनेश्वर में एक सभा को संबोधित करते हुए जयप्रकाश पर आरोप लगाया कि वे सत्ता हासिल करने की जल्दबाजी में हैं। उन पर सेठों के पैसे से ऐश करने का भी आरोप लगाया। तब जयप्रकाश जी मुंबई जाते तो इंडियन एक्सप्रेस के गेस्ट हाउस में ठहरते थे। इससे जयप्रकाश बेहद आहत थे। इसी तरह 2011 में बाबा रामदेव पर जब कार्रवाई की गई तो उसके पीछे भी कांग्रेस को डर था कि बाबा के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से कांग्रेस की सत्ता चली जाएगी। इसी तरह जयेंद्र सरस्वती पर कार्रवाई के पीछे माना गया कि अल्पसंख्यक वोटरों को यह कार्रवाई मुफीद लगेगी और कांग्रेस का भी अपना वोट बैंक मजबूत होगा। बेशक प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में यह खुलासा नहीं किया है कि शंकराचार्य की गिरफ्तारी के बाद विश्व हिंदू परिषद नेता प्रवीण तोगड़िया और भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जब अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के सवाल उठाए थे, तब उनकी सरकार में क्या प्रतिक्रिया थी। लेकिन सूत्र बताते हैं कि पिछली सदी के अस्सी के दशक में राजीव गांधी की सरकार ने नेपाल पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे तो उसके असली कारण राजनीतिक नहीं, बल्कि कुछ और थे। एक सूत्र का कहना है कि तब सोनिया गांधी काठमांडो के पशुपतिनाथ मंदिर में दर्शन करना चाहती थीं। लेकिन तब उसके पुजारी ने धार्मिक परंपराओं का हवाला देते हुए इससे मना कर दिया था। तब राजीव सरकार ने तत्कालीन नेपाल नरेश वीरेंद्र पर दबाव बनाया था कि वे पुजारी को निर्देशित करें। लेकिन नेपाल नरेश ने इससे मना कर दिया था। उन्होंने तर्क दिया था कि इस मामले में राजपरिवार का निर्देश नहीं चलता। बल्कि उन्होंने यह भी हवाला दिया था कि पशुपतिनाथ का पुजारी भारत का ही ब्राह्मण होता है। सूत्रों का कहना है कि इससे नाराजगी के बाद केंद्र सरकार पर दबाव बनाया गया और इसी नाराजगी में नेपाल पर आर्थिक पाबंदी लगी। जिसकी वजह से नेपाल में जरूरी चीजों की कमी हो गई थी। नमक तक उस दौर में पचास रुपये प्रति किलो तक बिका था।
प्रणब मुखर्जी की इस किताब में ऐसे कई और खुलासे हैं। बहरहाल इस किताब ने एक तथ्य जाहिर किया है कि संतों पर जिस तरह हिंदू आतंकवाद के नाम पर कार्रवाई की गई, वे सब सुनियोजित थीं।