जिन्दगी हाशिये पर- प्रकाश नामदेव ठाकरे इतने हुए ‘मजबूर’ कि खुद्दार हो गए

नाम है- प्रकाश नामदेव ठाकरे। महाराष्ट्र के इतने महान संत कवि नामदेव एवं इतने बड़े नेता (बाल) ठाकरे के नामों के साथ जो खुद भी ‘प्रकाश’ हो… पर उसका जीवन इतना मजबूर कि चलना तो क्या, बैसाखी के सहारे भी देर तक खड़ा न रह सके और बैठ तक न सके इस डर से कि फिर उठा न जा सकेगा। इसे देखकर बड़े ‘नाम’ को मुंह चिढ़ाने वाली वह कहावत बेतरह याद आई- ‘अम्मर कै मैं मरना देखनौं, हर जोतत धनपाल, बहुरि बिनत लछिमिनियां देखनौं, सबसे बड़ा ठंठपाल’। इसे देखकर तो ‘न ययौ न तस्थौ’ (न ठहर सकी, न जा सकी) में सुन्दरता सर्जने वाले कविकुल गुरु कालिदास और ‘न भागा जाए है मुझसे, न ठहरा जाए है मुझसे’ का काव्य-चमत्कार रचने वाले चचा गालिब की कविताई भी सन्न रह जाए!

ये प्रकाश नामदेव ठाकरे ‘सेण्टॉर’ के जुहू तट पर ही पिछले तीन दशकों से प्राय: हर सुबह-शाम रहते हैं, लेकिन चालीस सालों के दौरान मेरी खफ्तुल हवासी ऐसी कि नजर न पड़ी… पर प्रकाश मुझे देखते ही नहीं रहे, पिछले दिनों दसवें रोड के फुटपाथ वाले दिलशेर से यह भी जान गए कि ऐसे मजबूरों पर मैं लिखता हूं। लेकिन न बोले, न बुलाया। और यह उनकी आदतों में शुमार है। किसी ग्राहक को भी नहीं बुलाते, सामने जाके खड़े होकर भीख नहीं मांगते। बस, एक सिक्का हाथ में लेकर अपनी बैसाखी पर टुक-टुक करते हैं कि आते-जाते यह टुकटुक जिसका ध्यान पड़ जाए और उसका मन भी हो जाए, तो कुछ दे दे। ऐसे लाचार जीवन में भी ऐसी खुद्दारी…! जी हां, यह उनके स्वाभिमान का हिस्सा है- उनके सोच और व्यक्तित्त्व की पहचान- ‘कोई बैठा हो, आपस में बात कर रहा हो या कुछ खा रहा हो, तो उसके सामने जाकर मांगके हैरान करना मुझे अच्छा नहीं लगता- मुझसे नहीं होता’… और यह कहना भी बड़े धीमे और सलीके से।

वैसे तो प्रकाश को भीख मांगने में ही शर्म आती है। इसीलिए बचपन में होश संभालते ही जब तक पैर ठीक थे, कुछ न कुछ काम करके परिवार की मदद करते। छुटपन में बकरी चराने का काम किया… फिर भुसावल के होटलों में काम किया… 10-12 साल की उम्र में ही मुम्बई भाग आए। यहां बूटपॉलिश का काम भी किया। लेकिन कनगुरिया की बीमारी हुई, जिसका इलाज गांव, भुसावल व मुम्बई के भाभा अस्पताल से लेकर जयपुर तक कराया, लेकिन पैर न बचे। पैरों में सडिया डलवाया, ताकि काम कर सकें, पर उससे आज और भी तकलीफ है। पैर जलते हैं, जिससे देर तक खड़ा नहीं रहा जाता। अब सडिया निकलवाना चाहते हैं। इसी कष्ट के चलते सुबह-शाम ही तीन-तीन, चार-चार घंटे धन्धे पे खड़े रह पाते हैं। उसी में जितना पा जाते हैं, संतोष करते हैं। बहुत पूछने पर सौ-डेढ़ सौ रोज के औसत की बात की, क्योंकि कभी तो कुछ भी नहीं मिल पाता। हां, कुछेक लोग हैं, जो कभी-कभार कुछ पैसे व कपड़े आदि दे देते हैं। एक डॉक्टर हैं, जिन्होंने हाथ वाला रिक्शा दे दिया, जिससे कभी-कभी कहीं जाने-वाने की सुविधा हो गई। पहला रिक्शा टूटने पर उन्होंने ही दूसरा भी दिया। अब तो यह भी जर्जर हो चुका है। प्रकाश को यकीन है कि जब वो डॉक्टर देखेंगे, नया दे देंगे, पर ये मांगेंगे नहीं।

रिक्शे से पुष्पा नर्सी पार्क और अन्य बाजारों तक कभी खाना-वाना खाने भी चले जाते हैं। बगल में जुहू चर्च है, जिसके पास किसी ओटले पर सो लेते हैं। तट पर ही सुलभ शौचालय है, जहां नित्यकर्म की सुविधा (पूरे तटीय संसार के लिए) है। प्रकाश से तो कपड़े भी ठीक से नहीं पहने जाते, लेकिन सारी दिक्कतों के साथ जीवन चल रहा है। इसी तकलीफ या मानवीय प्रकृति के चलते कोई औरत (चित्र में रिक्शे के पास खड़ी) है प्रकाश के जीवन में, पर उसके बारे में उसने बात करने की अनिच्छा जताई, तो औरत के चाहने पर भी मैंने उसे शामिल करना ठीक न समझा- हां, उस पर अलग से बात हो सकती है कभी। प्रकाश बहुत धन्य मानता है अपने चारों तरफ के लोगों को, जो हर तरह से सहयोग करते हैं। मुझे उसी से मालूम पड़ा कि सेण्टॉर होटल सांताक्रूज पुलिस चौकी के अंतर्गत आता है और उस रोड के उत्तर का क्षेत्र विलेपार्ले के। लेकिन दोनों ही जगहों के पुलिस वाले प्रकाश से काफी सहानुभूति रखते हैं और कहीं भी खड़े होने, मांगने की छूट देते हैं। तट के पास के रोड के इर्द-गिर्द का भूभाग जिस सोसाइटी के हिस्से आता है, वे लोग भी प्रकाश को मानते हैं। ऐसी सांसारिक बाधाओं से मुक्ति देने वाले सभी का बहुत शुक्रगुजार है प्रकाश और यह कहना उसकी दुनियादारी और नेकनीयती भी है।

पचास साल के आसपास की उम्र वाले इस शख़्स का अपना जन्म-गांव बख़्तड़ है- भुसावल के पास। जन्मान्ध पिता नामदेव ने पहली बेटी सुशीला के बाद जन्मे इस बड़े बेटे का नाम प्रकाश रखा था। सुशीला भी अपंग है। बाद में एक भाई व बहन और हुए, जिनमें बहन मर गई। मां ठीक थीं। वही जंगलों से कंडा-गोबर आदि बीन के लातीं और उसी को बेचके घर चलातीं। पर जाहिर है ऐसी वृत्तियां कितनी आकाशी (अनिश्चित) और अपर्याप्त होती हैं। कुल मिलाके बकौल प्रकाश ‘जलती लाशों की आग तक में बना-भून के खाने की विवशता भी बनी… जीवन बहुत दुखमय था’। अब तो पिता-मां को गए काफी अरसा हो गया। छोटा भाई आज भी गांव में है। छोटा-मोटा काम करता है। सुशीला का अपना परिवार है। उसके पति लोगों के खेतों में मजदूरी करते हैं। प्रकाश साल-छह महीने में गांव जाता है। बहन के यहां ही 4-6 दिनों रहता है। बहन वहीं रहने को कहती है, पर प्रकाश की वही खुद्दारी कि ‘जब तक किसी तरह जीवन चला पा रहा हूं, किसी पर बोझ क्यों बनूं’? प्रकाश की इसी खुद्दारी ने उस शेर को आज जिन्दा कर दिया- ‘नाकामियों ने इस कदर सरकश बना दिया, इतने हुए जलील कि खुद्दार हो गए’!

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