त्रिलोचन के अंदर अहंकार नहीं था, लेकिन वे स्वाभिमानी थे – रामदरश मिश्र

निशा शर्मा।

हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा के एक महत्वपूर्ण कवि त्रिलोचन को साधारण जन का कवि कहा जाता है। यही नहीं त्रिलोचन को सदज व्यक्तित्व का धनी माना जाया है। यही कारण है कि लोक और भारतीय किसान के अंतर्मन को गहरे स्पर्श करने वाला यह कवि अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों, संस्कारों से पूरी तरह जुड़ा हुआ नजर आता है। निराला की ही तरह त्रिलोचन ने आमजन की बात उसकी भाषा में कही।

प्रसिद्ध आलोचक सूर्यप्रसाद दीक्षित त्रिलोचन की भाषा के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि निराला के बाद लघुमानव को प्रतिष्ठित करने वाले त्रिलोचन ही थे। वे आम बोलचाल की भाषा को जीवित भाषा कहते थे और हमेशा उसी को प्रस्तुत करते थे। वे सही मायनों में जन चेतना के कवि थे।

त्रिलोचन की कविताओं में प्रेम, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य, जीवन-संघर्ष को महसूस किया जा सकता है।

साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित त्रिलोचन जन्मशतवार्षिकी के उद्घाटन के दौरान वरिष्ठ कवि रामदरश मिश्र कवि त्रिलोचन को याद करते हुए कहते हैं कि त्रिलोचन जी मूल्यों को खुद जीने वाले कवि थे। उनके अंदर अहंकार नहीं था, लेकिन वे स्वाभिमान के पक्के थे। अच्छी कविता सीधी भाषा में हो सकती है यह मैंने उन्हीं से सीखा और अपनी काव्य भाषा में सुधार किया। वे एक किंवदंती पुरुष थे और उन्होंने समाज को जोड़ने के लिए कविताएँ लिखीं।

20 अगस्त को कवि त्रिलोचन की जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कठघरा चिरानी पट्टी में हुआ। त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए अंग्रेजी की और लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की थी।

उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। जाने- माने कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं -‘ उन्होंने लिखा बहुत लेकिन उन पर लिखा कम गया। त्रिलोचन पूरी तरह से बनारस के थे और आजीवन बनारस को अपने से विलग नहीं कर पाए। उनके द्वारा लिखे गए सोनेट के विभिन्न उदाहरणों से उन्होंने स्पष्ट किया कि वे केवल सोनेट नहीं बल्कि अनेक छंदों में लिखते रहे। लेकिन उनकी पहचान सोनेट लेखक के रूप में ही लोगों की स्मृतियों में है।’

कहा जाता है कि अपने अंतिम वर्षों में भी वह काफी जीवंत थे। पैरालाइज़ ने भले ही उनके शरीर पर भले ही असर डाला हो लेकिन उन्होंने अपनी रचनात्मकता को मरने नहीं दिया था। कवि केदारनाथ कहते हैं -‘उन्होंने यंत्रणापूर्ण जीवन जरुर जिया लेकिन वे अपना कष्ट कभी भी स्वीकार नहीं करते थे।’

वह जब तक जिये लिखते रहे। 9 दिसंबर 2007 को ग़ाजियाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली।

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