श्रीमुख से/चंद्रभान प्रसाद

जाट के बाद अब पटेल आरक्षण की गूंज देश में जोर-शोर से सुनाई दे रही है। वे भी शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मांग रहे हैं। मेरी दृष्टि में अगर पटेल इस देश में आरक्षण की मांग करे तो यह आरक्षण के मूल सिद्धांत पर सरेआम डकैती डालने जैसा है। आरक्षण का मूल सिद्धांत यह है कि जिन जातियों या जातीय समूहों को सदियों से स्कूल-कॉलेज जाने से, समाज के मूलभूत नागरिक अधिकारों से वंचित किया गया, उनके लिए अब देश की सरकार की जिम्मेदारी है कि आरक्षण के माध्यम से उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाएं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि गुजरात में पटेल आरक्षण क्यों मांग रहे हैं? वे तो शुरू से ही आरक्षण के खिलाफ रहे हैं। 1985 में उन्होंने आरक्षण के खिलाफ जो आंदोलन छेड़ा था, उसका नाम ही है पाटीदार आंदोलन। वह देश में पहला ऐसा आरक्षण विरोधी आंदोलन है जो गुजरात के गांव-गांव तक फैला और जिसमें सौ से ज्यादा मौतें हुर्इं। वह आंदोलन नहीं दंगा था।

यह तो हुई पटेलों की बात। जहां तक जाटों का सवाल है तो उनके नेता मीडिया में बोल रहे हैं कि हम तो किसान जातियां हैं। दरअसल पटेल, जाट, यादव, कुर्मी ये सब अपने को किसान जातियां बताते हैं और कहते हैं कि हमें आरक्षण चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि दूसरी जनगणना के समय 1910 में सभी किसान जातियों के बड़े नेता तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के अफसरों से मिले थे और उन्होंने निवेदन किया था कि जनगणना में उनकी गणना क्षत्रिय के रूप में की जाए। वे लोग जो आज से सौ साल पहले क्षत्रिय का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे थे वे अचानक आज कहने लगे हैं कि हम पिछड़ गए हैं और हमें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण चाहिए।

सच बात तो यह है कि पटेल, जाट और इनकी समकक्ष अन्य जातियां जिनमें यादव आदि आते हैं, इनका आज भी समाज में ‘नवठाकुरों’ सा आचरण है। लेकिन यही जब सार्वजनिक मंचों पर आते हैं, राजनीतिक क्षेत्रों में आते हैं तो अपने को ‘सामाजिक पीड़ित’ के तौर पर पेश करते हैं। क्या ऐसे लोगों द्वारा आरक्षण मांगना उचित है? मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से आता हूं। उत्तर प्रदेश में नौ फीसद ब्राह्मण हैं। मेरा तो यह मानना है कि पटेलों और जाटों की तुलना में उन ब्राह्मणों की स्थिति बहुत दयनीय है जो गांवों में ही रह गए हैं। जो ब्राह्मण परिवार गांवों से बाहर निकल गए वे तो ठीक-ठाक हैं।  मेरे कई ब्राह्मण दोस्त जो आजमगढ़ में स्कूल-कॉलेज में मेरे साथ पढ़ते थे, उनमें से जिनके परिवार गांवों में ही रह गए उनकी स्थिति देखकर बड़ा खराब लगता है। गांवों में रह रहे औसत ब्राह्मण परिवारों की हालत औसत जाट, औसत पटेल या औसत यादव से कहीं पीछे है।

ऐसे लोगों का आरक्षण मांगना आरक्षण के सिद्धांत पर सीधे-सीधे हमला है। और जिस तरह की भाषा का प्रयोग पटेल समाज के नेता हार्दिक पटेल कर रहे हैं, उसे किस श्रेणी में रखा जाए। ‘प्यार से नहीं मिलेगा तो हम छीन लेंगे’ यह हिंसा और अराजकता को उकसावा नहीं तो और क्या है? आप गुजरात के किसी भी गांव में चले जाइए, वहां लोग अपनी बेटियों की शादियां उन गांवों में नहीं करना चाहते जहां पटेल समाज के लोग बहुलता में हों। गुजरात में कोई चीज आपकी नहीं है, सभी चीजें पटेलों की हैं। अगर आपकी बुलेट पर किसी पटेल ने हाथ रख दिया तो आपको प्यार से देना हो तो दे दीजिए वरना वे छीन लेंगे। वे अपने से इतर सभी जातीय समुदायों के दुश्मन हैं। ब्राह्मणों को उन्होंने मंदिरों से भगा दिया और मंदिरों पर कब्जा कर लिया। क्षत्रियों को जमीन-जायदाद से बेदखल कर उस पर कब्जा कर लिया। बनियों को भगा दिया शहरों से और जैनों को भगाकर उनके काम-धंधों पर कब्जा कर लिया। तो यह छीनने की जो भाषा है वह पटेलों की डीएनए में चली गई है कि अगर आप राजीखुशी नहीं देंगे तो हम छीन लेंगे। ठीक वैसे ही जैसे यादव बोलते हैं उत्तर प्रदेश में कि हम कब्जा कर लेंगे, छीन लेंगे। तो यह भाषा और सोच तो शोषित समाज के वर्ग की नहीं है। आम्बेडकर ने तो यह कभी नहीं कहा कि हम आपसे कोई चीज छीन लेंगे। गुजरात के परिप्रेक्ष्य में तो पटेल समाज गुजरात के समाज का शासक वर्ग है।

अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और कई अन्य देशों में मैंने अपनी आंखों से देखा है कि पटेल समुदाय के लोग वहां हर तरफ बड़ी संख्या में हैं और काफी बेहतर स्थिति में हैं। दुकान, जमीन, बस, ट्रस्ट, होटल, ट्रांसपोर्ट सब कुछ उनका है।

गुजरात में केमिस्ट शॉप से लेकर किराना दुकान और सिनेमाहॉल से लेकर हॉस्पिटल तक हर तरफ पटेल छाए हैं। हां, उनकी अगर किसी से दुश्मनी चली आई है तो वह किताब-कलम यानी पढ़ने-लिखने से है। इसके चलते वे न तो दलितों तथा अन्य पिछड़ी जातियों से पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में मुकाबला नहीं कर पाते। 1984 से ही मेरा अक्सर गुजरात जाना होता रहता है। मेरे वहां के मित्रों ने बताया कि यहां यह उक्ति प्रचलित है कि अगर पटेल से जान बचाना है तो उसके सामने चार कापियां पटक दीजिए, चार किताबें पटक दीजिए और हाथ में चार कलम ले लीजिए… तभी पटेल इस डर से आपसे दूर रहेगा कि कहीं यह फंसा न दे। मूल बात पर आता हूं। पटेल समाज की विडम्बना यह है कि वे अपनी आमदनी के अनुपात में अपनी शिक्षा पर खर्च नहीं करता है। उत्तर प्रदेश के गांवों में ब्राह्मण और दलित अपने बच्चों को प्राइमरी तक पढ़ाते हैं और हैसियत न होते हुए भी अपने बेटे-बेटियों को पढ़ने के लिए इलाहाबाद या दिल्ली भोजने की कोशिश करते हैं।

पटेल आरक्षण मांगें यह तो बहुत दुखद है और मैं तो इसे सामाजिक और नैतिक पतन का सबसे बड़ा खड्डा ही कहूंगा।

जहां तक राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि के जाटों की बात है तो वे गुजरात के पटेलों की जगह हर जगह अपना कब्जा नहीं किए हुए हैं।

संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गई है उसमें तो ये पटेल और जाट दूर-दूर तक कहीं नहीं आते। दलितों का जो जीवन हराम है जहां-जहां ये जातियां हैं। इनकी एक बात ऐसी है जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए। मैं आईएएस एकेडमी में गेस्ट फैकल्टी हूं, आईआईएम लखनऊ में मैं बोर्ड आॅफ डायरेक्टर में हूं, मुझे वहां हर जातियों के लोग मिलते हैं लेकिन पटेल नहीं मिलते हैं, जाट नहीं मिलते हैं। अब इसकी वजह जानिए। अंग्रेजी को ये अपना दुश्मन समझते हैं। अगर अंग्रेजी से दुश्मनी रखेंगे तो आईआईएम लखनऊ में कैसे आएंगे आप? हारवर्ड, आईआईटी, जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय में कैसे आएंगे आप?

जाटों और पटेलों का यह कहना सही है कि ऊंचे ओहदों पर उनकी उपस्थिति ना के बराबर है। लेकिन उन जगहों तक जाने से किसी पटेल या जाट भाई-बहन को किसी ने रोका नहीं है। बल्कि वही दूसरों को रोकते रहे हैं। न तो स्कू में पढ़ेंगे, न किसी को पढ़ने देंगे। ऐसे में आरक्षण मांगने के बजाय उन्हें अपने समाज के भीतर सामाजिक सुधार आंदोलन चलाना चाहिए। चिन्तन करना चाहिए कि हर तरफ हमारा बोलबाला है, हीरे के कारोबार तक पर हमारा कब्जा है, तो शिक्षा के क्षेत्र में हमारा कब्जा क्यों नहीं है? मंदिरों पर उनका कब्जा है। दुनियाभर में अक्षरधाम मंदिर बनवाते रहते हैं जिन पर अरबों-खरबों रुपए खर्च कर डालते हैं। लेकिन एक बढ़िया पब्लिक स्कूल क्यों नहीं बनाते वे? वे हारवर्ड क्यों नहीं बनाते?

यह मैंने अपने जीवन में देखा है और दलित परिवारों में भी देखा है कि जिस परिवार में एक भौंस और एक गाय है, उसका खाना-पीना तो ठीक से चल जाता है लेकिन उसे शिक्षा नहीं मिल पाती है। एक झोपड़ी या घर में एबीसीडी यानी पढ़ाई-लिखाई और भौंसें एक साथ नहीं रह सकतीं।

तो ये जो तथाकथित किसान जातियां हैं उन्हें इस बात पर अपने बीच यह चर्चा जरूर करनी चाहिए कि क्यों हमारे पास दस भौंसें हैं? ऐसे में हमारे पास कैसे विद्या आएगी? बाबा साहेब जब आंदोलन कर रहे थे तो उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था से हम त्रस्त हैं और इसके खिलाफ हमें लड़ना चाहिए, लेकिन अपनी कुछ चीजें हमें ही ठीक करनी पड़ेंगी। इसी क्रम में उन्होंने दलित समाज के लिए कई प्रकार के सामाजिक सुधार आंदोलन किए, जैसे- बच्चों को स्कूल भोजो, मांस मत खाओ, शहरों में जाकर मजदूरी करो, गांव में जमींदार की मजदूरी मत करो, साफ-सफाई रखो, अच्छे कपड़े पहनो, अंग्रेजी पढ़ो, सूट पहनने की कोशिश करो। तो इस तरह उन्होंने एक आंतरिक सामाजिक आंदोलन भी खड़ा किया अपने समाज में।

ये जो पटेल, जाट, यादव आदि जातियां हैं जरा इनसे कहकर देखिए कि आपने बीए कर लिया है इसलिए अब सूट-बूट में आइएगा। बस फिर देखिए, वे उसे अपने प्रति एक अपराध के रूप में ले लेते हैं कि यह तो हमारा मजाक उड़ाया जा रहा है, हमें सूट पहनकर आने को कहा जा रहा है। हम किसान के बच्चे हैं, सूटबूट में कैसे आएं, क्यों आएं? दूसरी तरफ जरा दलित के बच्चे से कह दीजिए कि बाबा साहेब की ड्रेस में आना है। तो वह गरीब कर्ज मांगकर या किसी भी प्रकार से व्यवस्था करके अपने बच्चे को सूटबूट में भोजता है।

पटेलों की परेशानी क्या है? गुजरात में अरबों रुपए का उनका कारोबार है लेकिन इनकम टैक्स का जो अफसर उनकी जांच करने आ जाता है वह प्राय: दलित, ब्राह्मण या कायस्थ निकलता है। उनको लगता है कि जिन जातियों के लोग हमारे यहां काम करते हैं, हमारी पैर मालिश करते हैं, उसी जाति का व्यक्ति हमसे हिसाब मांग रहा है। वे कलेक्टर के यहां जाते हैं तो पता चलता है कि कोई पटेल कलेक्टर नहीं है। पुलिस कप्तान के यहां गए तो वहां भी कोई कप्तान पटेल नहीं निकलता। नौकरशाही में उनका कोई नामोनिशां नहीं है, बिल्कुल शून्य हैं। पटेलों की सबसे बड़ी हीन-भावना यह है कि जिन जातियों को हम मानव समझते ही नहीं, उन जातियों का व्यक्ति अफसर बनकर हमारे सिर पर बैठ जाता है और हमसे हिसाब मांगता है।

एक तरह से इन जातियों की आरक्षण की मांग राजकाज और नौकरशाही में दूसरों का हिस्सा छीनने का प्रयास है। आरक्षण मांगेगा तो वह मांगेगा जिसे इंटरमीडिएट परीक्षा में गणित की परीक्षा में बैठने से जबरन रोक दिया गया। ऐसे हजारों उदाहरण मिलेंगे कि हाईस्कूल की परीक्षा के दिन दलित के घर को जला दिया गया।

उधर तमिलनाडु में देखिए जहां आरक्षण को बढ़ाकर सत्तर फीसद के पास तक ले जाया गया है। वहां दलित निशाने पर हैं। वनियार समाज के लोग दलितों पर आज भी हमले कर रहे हैं और उनके बहुत सोचे-समझे लक्ष्य हैं। पहला हमला वे शिक्षा पर करते हैं यानी उन्हें पढ़ने मत दो। दूसरा हमला टेलीविजन पर, तीसरा हमला टीवी एंटिना पर। यह सब क्या है? दलितों को और कुचलने की एक मुहिम? तमिलनाडु में अगर सत्तर फीसद आरक्षण का फार्मूला सही रहता तो वहां की राज्य सरकार जनता के लिए नाममात्र की दर पर नाश्ते और भोजन की व्यवस्था न करती। ऐसा क्यों है कि आपने इतना भारी आरक्षण दिया हुआ है फिर भी लोगों की जेब में खाने के लिए दस-बीस रुपए नहीं आ पाए हैं।

समाज की दशा आज भी क्या है। अगर दलित समुदाय का व्यक्ति गांव के चौराहे पर चाय की दुकान खोल लेता है तो उसके ग्राहक एक खास तबके के ही होते हैं। दूसरी तरफ वही चाय की दुकान अगर कोई पटेल, जाट, क्षत्रिय या यादव खोल दे तो वहां हर सबके के लोग नजर आने लगेंगे।

इन तथाकथित किसान जातियों की चले तो वे अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था एक मिनट में समाप्त कर दें। पर वह एक अलग बात है जो अभी संभव नहीं दिखती। इनका मुखौटा और बर्ताव देखिए। ये जातियां आरक्षण हासिल करने की अपनी दावेदारी जताते समय दलितों के दुख का रोना रोती हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें कुछ अधिकार मिल जाते हैं वे दलितों के साथ ऐसा बुरा बर्ताव करते हैं मानो उन्हें फांसी चढ़ाकर ही दम लेंगे। आप पेरियार से लेकर वीपी सिंह, विपिन मंडल, शरद यादव तक इन जातियों  के नेताओं के भाषणों-बयानों को सुनिए। वे अत्याचार की गाथा दलित की गाते हैं और खुद को उनके बराबर ही शोषित बताते हैं। तभी तो वे यह जता पाएंगे कि अन्य जातियां उनकी शोेषक रही हैं। और फिर अधिकार हासिल होते ही वे दलितों के साथ वैसा ही सलूक करते हैं जैसा वे पहले से करते आए हैं।

हमें समझना होगा कि ये जो पटेल, जाट, यादव आदि जातियां हैं, इनका संघर्ष सामाजिक न्याय या सामाजिक समानता के लिए नहीं है, बल्कि वह शासक बनने के लिए है। अब अगर सरकार फैसला करे कि देश की संपूर्ण कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा और उसे गरीबों में बांट दिया जाएगा, तो बता सकते हैं कि इन पटेलों, जाटों और यादवों का क्या रुख होगा?